उजले कपडों वाले लोग
वैद्य राज नमस्तुभ्यम
यमराज सहोदरः.
एकः हरति प्राणं
अपरः प्राणानि धनानि च..
पिछले दिनों सामान्य बातचीत में यह श्लोक डा. देवेन्द्र शुक्ल ने सुनाया था. उन्होने ही बताया कि यह पंचतंत्र की किसी कहानी में किसी संदर्भ में आया है. अब पंचतन्त्रकार यानी विष्णु शर्मा ने भले ही यह बात मजाक में कही हो, पर पुराण इस मामले में साक्ष्य हैं कि यह बात है सही. ऐतिहासिक न सही, पर पौराणिक तथ्य तो है ही. यमराज और वैद्यराज अगर सगे न भी सही तो सौतेले भाई जरूर हैं, ऐसा पुराणों में वर्णित है. आप कहेंगे कैसे? तो साहब जान लीजिए. सूर्य की पत्नी संज्ञा उनके तेज से घबरा कर भाग गयी थीं और जंगल में छिपी थीं. इतना तो आप जानते ही होंगे. उन्ही दिनों छाया सूर्य के घर में संज्ञा का रुप लेकर रहीं. इस बीच उनके दो पुत्र हुए- शनि और यम. लेकिन जल्दी ही सूर्य को यह आभास हो गया कि यह संज्ञा नहीं हैं और फिर वह चले संज्ञा को तलाशने. वह जंगल में मिलीं, अश्विनी यानी घोड़ी के रुप में. वहाँ सूर्य ने उनके साथ रमण किया और उनसे भी उनके दो पुत्र हुए. ये थे अश्विनी कुमार. आयुर्वेद में सर्जरी की हैंडबुक के तौर पर अब सुश्रुत संहिता जरूर प्रतिष्ठित है, लेकिन पहले सफल सर्जन अश्विनी कुमार ही माने जाते हैं. अब आप ही बताइए, ये यमराज के सहोदर न सही पर भाई तो हैं ही. और इनके ही नए संस्करण हमारे नए दौर के सर्जन हैं, एलोपैथ वाले. अब अगर यह सिरदर्द का इलाज कराने गए आदमी का गुर्दा काटकर बेच देते हैं तो कौन सा गुनाह करते हैं ? बहरहाल पिछले दिनों दिल्ली के एक स्वनामधन्य सर्जन पर कुछ ऐसे ही आरोप लगे थे. उसी से प्रेरित हो कर लिखा गया यह गीत आपकी अदालत में :
उजले कपडों वाले लोग-
दरअसल दिल के काले लोग.
हमें पता है,
तुम भी जानो!
हम इन्हें खुदा मान कर जाते हैं,
ये हमें खोद कर खाते हैं.
पसली पर चोट लगी हो तो-
ये दिल का मर्ज बताते हैं.
छुरा तुम्हारे तन पर रक्खा और
भोंक रहे हैं
जेब पर भले लोग.
हमें पता है,
तुम भी जानो!
नजर जेब तक होती
तो कोई बात नहीं.
ऐसा क्या है जिस पर इनकी घात नहीं!
इनके लिए
हर अंग तुम्हारा रोकड़ है,
दिन में नोच रहे हैं -
जोहें रात नहीं.
गिद्ध भी इनसे बचते हैं
जाने कितने घर घाले लोग.
हमें पता है,
तुम भी जानो!
कहीँ विज्ञान
न संभव कर दे
प्राणों का प्रत्यारोपण.
वरना ये
प्राण निकालेंगे
और
खडे करेंगे रोकड़ .
तुम्हे मार कर
बन जाएँगे
स्वयम अरबपति
बैठे-ठाले लोग।
हमें पता है,
तुम भी जानो!
इष्ट देव सांकृत्यायन
यमराज सहोदरः.
एकः हरति प्राणं
अपरः प्राणानि धनानि च..
पिछले दिनों सामान्य बातचीत में यह श्लोक डा. देवेन्द्र शुक्ल ने सुनाया था. उन्होने ही बताया कि यह पंचतंत्र की किसी कहानी में किसी संदर्भ में आया है. अब पंचतन्त्रकार यानी विष्णु शर्मा ने भले ही यह बात मजाक में कही हो, पर पुराण इस मामले में साक्ष्य हैं कि यह बात है सही. ऐतिहासिक न सही, पर पौराणिक तथ्य तो है ही. यमराज और वैद्यराज अगर सगे न भी सही तो सौतेले भाई जरूर हैं, ऐसा पुराणों में वर्णित है. आप कहेंगे कैसे? तो साहब जान लीजिए. सूर्य की पत्नी संज्ञा उनके तेज से घबरा कर भाग गयी थीं और जंगल में छिपी थीं. इतना तो आप जानते ही होंगे. उन्ही दिनों छाया सूर्य के घर में संज्ञा का रुप लेकर रहीं. इस बीच उनके दो पुत्र हुए- शनि और यम. लेकिन जल्दी ही सूर्य को यह आभास हो गया कि यह संज्ञा नहीं हैं और फिर वह चले संज्ञा को तलाशने. वह जंगल में मिलीं, अश्विनी यानी घोड़ी के रुप में. वहाँ सूर्य ने उनके साथ रमण किया और उनसे भी उनके दो पुत्र हुए. ये थे अश्विनी कुमार. आयुर्वेद में सर्जरी की हैंडबुक के तौर पर अब सुश्रुत संहिता जरूर प्रतिष्ठित है, लेकिन पहले सफल सर्जन अश्विनी कुमार ही माने जाते हैं. अब आप ही बताइए, ये यमराज के सहोदर न सही पर भाई तो हैं ही. और इनके ही नए संस्करण हमारे नए दौर के सर्जन हैं, एलोपैथ वाले. अब अगर यह सिरदर्द का इलाज कराने गए आदमी का गुर्दा काटकर बेच देते हैं तो कौन सा गुनाह करते हैं ? बहरहाल पिछले दिनों दिल्ली के एक स्वनामधन्य सर्जन पर कुछ ऐसे ही आरोप लगे थे. उसी से प्रेरित हो कर लिखा गया यह गीत आपकी अदालत में :
उजले कपडों वाले लोग-
दरअसल दिल के काले लोग.
हमें पता है,
तुम भी जानो!
हम इन्हें खुदा मान कर जाते हैं,
ये हमें खोद कर खाते हैं.
पसली पर चोट लगी हो तो-
ये दिल का मर्ज बताते हैं.
छुरा तुम्हारे तन पर रक्खा और
भोंक रहे हैं
जेब पर भले लोग.
हमें पता है,
तुम भी जानो!
नजर जेब तक होती
तो कोई बात नहीं.
ऐसा क्या है जिस पर इनकी घात नहीं!
इनके लिए
हर अंग तुम्हारा रोकड़ है,
दिन में नोच रहे हैं -
जोहें रात नहीं.
गिद्ध भी इनसे बचते हैं
जाने कितने घर घाले लोग.
हमें पता है,
तुम भी जानो!
कहीँ विज्ञान
न संभव कर दे
प्राणों का प्रत्यारोपण.
वरना ये
प्राण निकालेंगे
और
खडे करेंगे रोकड़ .
तुम्हे मार कर
बन जाएँगे
स्वयम अरबपति
बैठे-ठाले लोग।
हमें पता है,
तुम भी जानो!
इष्ट देव सांकृत्यायन
सही है। अपना-अपना धंधा है!
ReplyDeleteहेल्थ की चिंता में वेल्थ गंवाया
ReplyDeleteमैंने भुगता है, अब तुम भुगतो.
जिन प्रकार के लोगों की आप बात कह रहे हैं, उनमें भी 'तीन' के हैं न्यूरोसर्जन. अपने लड़के के मामले में इस प्रकार के लोगों से मेरा सम्पर्क हुआ. उनमें से कुछ तो निश्चित यमराज के सहोदर थे. पर मैं यह भी कहता हूं कि उनमें से अनेक - और बहुतायत में, मानव के रूप में हीरा थे.
ReplyDeleteउनमें से एक को मेरी पत्नी बकलोल कहती है - यानि अत्यंत सरल, अपनी धुन में मस्त और अत्यंत सम्वेदनशील!
कुल मिला कर समाज में जैसे सतरंगी लोग और क्षेत्रों में हैं, वैसे ही हैं न्यूरोसर्जन.
आपके अनुभव अलग हो सकते हैं.
वैसे तो पल्ला मेरा भी पाण्डेय जी दोनों तरह के लोगों से पड़ा है. अच्छे चिकित्सक भी मिले हैं. लेकिन वे देश भर में उँगलियों पर ही गिने जाने लायक लोग हैं. ज़्यादातर आपका गला काट कर अपनी जेब भरने वाले लोग ही हैं.
ReplyDeleteअच्छी ख़बर ली है। अच्छी कविता है
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