प्रधानमंत्री का लतीफा
सुबह-सुबह अख़बार के पहले ही पन्ने पर एक जोरदार लतीफा पढ़ कर तबीयत हरी हो गई. लतीफा पढने से भी ज्यादा ख़ुशी यह जान कर हुई कि हमेशा गम्भीर से दिखने वाले अपने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री इतना बढ़िया मजाक भी कर लेते हैं. मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि कई लोगों ने तो उनके लतीफे को भी सच्ची बात समझ लिया होगा. निश्चित रुप से वे उनकी इस बात के प्रति उतने ही गम्भीर भी हुए होंगे जितने कि उनके प्रधानमंत्री होने के प्रति. खास तौर से वे लोग जिनका लिखने-पढने से कुछ संबंध है और उनमें भी वे जो हिंदी में लिखते हैं, तो इतने गम्भीर हुए होंगे कि पूछिए मत. औरों को क्या कहूं, मैं खुद ही थोड़ी देर के लिए संशय में फंस गया. तय ही नहीं कर प रहा था कि इसे क्या मानूं. 'ख्वाब है तू या कोई हकीकत ....' टाइप का मामला हो गया था.
बड़ी देर तक गहरे संशय में फंसा रहा मैं कि आखिर इसे मानूं क्या? भीतर बैठा लेखक मन बार-बार कह रहा था, मान लो भाई, सच ही कहा जा रहा है. दूसरा दुनियादार मन कहता, बेवकूफ हो क्या? पागल हो गए हो? इतना तो प्री नर्सरी का बच्चा भी जानता है कि ऎसी बातें सच हो ही नहीं सकतीं. कुछ बातें होती हैं ऐसे ही कुछ खास अवसरों पर कहने के लिए, सो कह दी जाती हैं. यही नहीं, कुछ अवसर भी ऐसे ही बनाए जाते हैं कुछ खास बातें कहने के लिए. जब बडे लोग एक जगह रहते-रहते या एक तरह की बात करते-करते ऊब जाते हैं तो ऐसे ही कुछ सभा-सम्मेलनों का इंतजाम बनाते हैं. इसी बहाने वे घूम भी आते हैं और कुछ अच्छी बातें भी कर लेते हैं.इनके साथ-साथ कुछ मीडिया वाले भी चले जाते हैं. उनका भी घूमना-लिखना दोनों साथ-साथ हो जाता है. इसलिए हे वत्स, लालच छोड़ और सच्चाई को स्वीकार कर!
'सच्चाई है क्या भाई इसकी और मैं कौन से लालच में हूँ भला? किस बात का लालच मुझे छोड़ना है?'
मेरा यह बचकाना सवाल सुन कर यथार्थवादी मन जोर से ठठा कर हंसा. जैसे किसी जमाने में अमरीश पुरी हंसा करते थे. 'तुम हिंदी लेखकों के साथ यही दिक्कत है. जो बात जानते हो उसमें अनजान बनते हो और जो बिल्कुल नहीं जानते उसी विषय के मर्मज्ञ बनते हो. जो मानते हो उसका विरोध करते हो और जिस बात में रत्ती भर भी भरोसा नहीं होता उसी में विश्वास जताते हो.'
उसका लेक्चर सुन कर मेरी अच्कचाहट और बढ गयी थी. मैंने कहा, 'भाई तू तो जानता ही है. अमीर खुसरो को मैंने ज्यादा नहीं पढा है. बुझौवल मत बुझाओ मुझे. साफ-साफ बात कह दो.'
'अरे मूर्ख!' वह गरजा, 'बहुत बनता है तू अपने आपको मजाक करने और समझने वाला. क्या खाक समझते हो तुम मजाक? प्रधानमंत्री का एक छोटा सा मजाक भी नहीं समझ सका तू?'
'क्या मजाक?'
'हाँ, मजाक!'
'क्या मजाक करते हो यार! मजाक क्या पहले पन्ने पर छपा जाता है?'
'अरे प्रधानमंत्री का फिसलना, हिलना-डुलना, छींकना तक अगर पहले पन्ने की खबर बन सकती है तो उसका मजाक पहले पन्ने की खबर क्यों नहीं बन सकता भाई?'
मेरे दिमाग की बत्ती अब जल गयी थी. लिहाजा मैं उसे भकुआ कर ताकने लगा. बिल्कुल ऐसे जैसे कोई गाँव का नौजवान ताकता है किसी महानगरीय आधुनिका को. मुझे इस तरह ताकते देख मन ने अपना ज्ञान थोडा और बघारा, 'प्रधानमंत्री तो फिर भी प्रधानमंत्री है बच्चू, चाहे डमी ही क्यों न हो. तुम लोग तो नचनिए के लौंडे की शादी की खबर भी साल भर पहले पन्ने पर छापते रह सकते हो.'
अपनी बिरादरी की ऎसी कड़वी आलोचना सुन कर मुझे बुरा तो जरुर लगा, लेकिन चूंकि बात वह सही कह रहा था लिहाजा मुझसे कुछ खास कहते न बना. बड़ी मुश्किल से बस इतना कह पाया, 'अच्छा-अच्छा चलो, बस करो अब!'
'अरे बस क्यों करूं भाई? कहो तो तुम्हारे लालच के बारे में भी बता दूं?'
अब मेरा लालच तो कुछ था नहीं, तो मैं क्यों डरता! लिहाजा मैंने ताल ठोंकने के से अंदाज में कहा, 'हाँ-हाँ, जरा बता दो तो क्या लालच है मुझे.'
'अरे वही जो सरे हिंदी वालों को हुआ करती है. हिंदी अगर संयुक्त राष्ट्र की भाषा बन गयी तो भैया हो सकता है तुमको भी विदेश मंत्रालय के खर्चे पर एकाध विदेशयात्रा का मौका मिल जाए. कोई पीठ-वीठ किसी यूनिवर्सिटी में नई बने तो क्या पता उसकी अध्यक्षी ही तुमको मिल जाए. नई तो कोई फेलोशिप ही मिल जाएगी. हिंदी को अगर संयुक्त राष्ट्र में जगह मिल गयी तो जाहिर है दो-चार पुरस्कार-सम्मान भी बढी जाएँगे. इसमें कहीँ न कहीँ तो तुम्हरो नाम शामिल होई जाएगा बाबू.'
'अच्छा-अच्छा चल अब रहने दे' अपनी खाल कोई बिल्कुल उतरते तो देख नहीं सकता. लिहाजा मैंने जल्दी से उससे पिंड छुडाया. हालांकि मामले की असलियत अब मेरे सामने फिल्मी हीरोइनों की तरह बिल्कुल खुल कर आ गयी थी. मामला समझ में आते ही जैसा कि लतीफों के मामले में हमारे देश में रिवाज है, मैं जोर से हंसा.
अब शादी के तेरह साल बाद भी कोई आदमी खुल कर हंसने की कूवत रखता हो, तो यह बात हैरतअंगेज तो लगती ही है. खास तौर से ऐसे समय में जबकि आटे से लेकर कीटनाशकों तक के दाम आसमान छू रहे हों, तब तो यह तथाकथित विश्व सुंदरियों के सौंदर्य से भी ज्यादा कृत्रिम लगने लगता है. बीवियां जानती हैं कि ऐसा सिर्फ दो ही स्थितियों में हो सकता है. एक तो यह कि आदमी का दिमाग चल गया हो और दूसरा यह कि उसका चरित्र भारतीय राजनेताओं की तरह संदिग्ध हो गया हो. वर्ना तो आदमी के ब्लू लाईन बसों की तरह बहकने की कोई दूसरी वजह नहीं हो सकती. लिहाजा मेरी जोर की हँसी सुनते ही श्रीमती जी किचेन छोड़ कमरे में नमूदार हुईं. ताका तो उन्होने मुझे ऐसे जैसे सरकारी अस्पताल का डाक्टर ताकता है किसी सोर्सविहीन मरीज को.
'क्या हुआ, क्यों हंसने लगे इस तरह?'
'अरे कुछ नहीं, बस अख़बार में एक चुटकुला पढ़ लिया था.'
'तो इसमें ऎसी क्या बात हो गयी? क्या पहली बार चुटकुला पढ़ रहे हो?'
'नहीं-नहीं, यह बात नहीं है.'
'फिर क्या बात है?'
'असल बात ये है कि ये चुटकुला पहले पन्ने पर छपा है.'
'कौन सा चुटकुला है, जरा मैं भी तो देखूं' श्रीमती जी ने भी अपनी आंख अख़बार पर गडा दी.
मैंने खबर दिखाई - हिंदी को संयक्त राष्ट्र की भाषा बनाएँगे : प्रधानमंत्री. मैंने कहा देखिए जी. ये रही.
'हुंह' उन्होने बिल्कुल ४४० वोल्ट का झटका मारा. 'ये तुम्हे लतीफा दिखता है?'
'तो' मैंने पूछा, 'खबर के पन्ने पे क्या समझाती हो सब खबर ही छपती है. जरा तार्किक ढंग से सोच के देखो. कल शर्मा जी के बेटे के बारे में क्या बता रही थी?
अभी कल ही उन्होने बताया था. पड़ोस के शर्मा जी के मुन्ने के स्कूल में हिंदी बोलने पर रोक लग गयी है. अगर किसी बच्चे ने गलती से बोल दिया तो उसे एक शब्द पर पांच रुपये जुर्माना भरना पड़ेगा. इसी बात को लेकर वह मुझे हडकाए जा रही थीं कि एक तुमने अपने बच्चों का एडमिशन करवाया है. जहाँ आपस में तो बच्चे पूरे दिन हिंदी ही बोलते रहते हैं. यहाँ तक कि मैडमों से भी कई बार हिंदी में बात कर लेते हैं. ऐसे स्कूल में बच्चों का भविष्य क्या खाक बनेगा? वो तो भला हो अपनी औकात का जिसकी दुहाई देकर मैंने जैसे-तैसे श्रीमती जी के कोप से अपनी जान बचाई. और अब आज सुबह-सुबह प्रधानमंत्री का ऐसा बयान! मामले की असलियत जैसे ही श्रीमती जी की समझ में आई, उनकी भी हँसी फूट पडी. अब हम दोनों हंस रहे थे. खुल कर और बेधड़क, आख़िर प्रधानमंत्री ने लतीफा सुनाया था. यह राष्ट्रीय तमीज का विषय है कि उनके लतीफों पर खुल कर हंसा जाए, चाहे वो लाफ्टर चलेंज में सुनाए जाने वाले लतीफों से भी घटिया क्यों न हों. हम लोग हंस रहे हैं - हे-हेह-हे-हे-हे....
आइए हमारी हे-हे में आप भी अपनी हे-हे मिलाइए. हमारे साथ मिलकर आप भी खुल कर हंसिये. आख़िर प्रधानमंत्री का लतीफा है भाई.
इष्ट देव सांकृत्यायन
बड़ी देर तक गहरे संशय में फंसा रहा मैं कि आखिर इसे मानूं क्या? भीतर बैठा लेखक मन बार-बार कह रहा था, मान लो भाई, सच ही कहा जा रहा है. दूसरा दुनियादार मन कहता, बेवकूफ हो क्या? पागल हो गए हो? इतना तो प्री नर्सरी का बच्चा भी जानता है कि ऎसी बातें सच हो ही नहीं सकतीं. कुछ बातें होती हैं ऐसे ही कुछ खास अवसरों पर कहने के लिए, सो कह दी जाती हैं. यही नहीं, कुछ अवसर भी ऐसे ही बनाए जाते हैं कुछ खास बातें कहने के लिए. जब बडे लोग एक जगह रहते-रहते या एक तरह की बात करते-करते ऊब जाते हैं तो ऐसे ही कुछ सभा-सम्मेलनों का इंतजाम बनाते हैं. इसी बहाने वे घूम भी आते हैं और कुछ अच्छी बातें भी कर लेते हैं.इनके साथ-साथ कुछ मीडिया वाले भी चले जाते हैं. उनका भी घूमना-लिखना दोनों साथ-साथ हो जाता है. इसलिए हे वत्स, लालच छोड़ और सच्चाई को स्वीकार कर!
'सच्चाई है क्या भाई इसकी और मैं कौन से लालच में हूँ भला? किस बात का लालच मुझे छोड़ना है?'
मेरा यह बचकाना सवाल सुन कर यथार्थवादी मन जोर से ठठा कर हंसा. जैसे किसी जमाने में अमरीश पुरी हंसा करते थे. 'तुम हिंदी लेखकों के साथ यही दिक्कत है. जो बात जानते हो उसमें अनजान बनते हो और जो बिल्कुल नहीं जानते उसी विषय के मर्मज्ञ बनते हो. जो मानते हो उसका विरोध करते हो और जिस बात में रत्ती भर भी भरोसा नहीं होता उसी में विश्वास जताते हो.'
उसका लेक्चर सुन कर मेरी अच्कचाहट और बढ गयी थी. मैंने कहा, 'भाई तू तो जानता ही है. अमीर खुसरो को मैंने ज्यादा नहीं पढा है. बुझौवल मत बुझाओ मुझे. साफ-साफ बात कह दो.'
'अरे मूर्ख!' वह गरजा, 'बहुत बनता है तू अपने आपको मजाक करने और समझने वाला. क्या खाक समझते हो तुम मजाक? प्रधानमंत्री का एक छोटा सा मजाक भी नहीं समझ सका तू?'
'क्या मजाक?'
'हाँ, मजाक!'
'क्या मजाक करते हो यार! मजाक क्या पहले पन्ने पर छपा जाता है?'
'अरे प्रधानमंत्री का फिसलना, हिलना-डुलना, छींकना तक अगर पहले पन्ने की खबर बन सकती है तो उसका मजाक पहले पन्ने की खबर क्यों नहीं बन सकता भाई?'
मेरे दिमाग की बत्ती अब जल गयी थी. लिहाजा मैं उसे भकुआ कर ताकने लगा. बिल्कुल ऐसे जैसे कोई गाँव का नौजवान ताकता है किसी महानगरीय आधुनिका को. मुझे इस तरह ताकते देख मन ने अपना ज्ञान थोडा और बघारा, 'प्रधानमंत्री तो फिर भी प्रधानमंत्री है बच्चू, चाहे डमी ही क्यों न हो. तुम लोग तो नचनिए के लौंडे की शादी की खबर भी साल भर पहले पन्ने पर छापते रह सकते हो.'
अपनी बिरादरी की ऎसी कड़वी आलोचना सुन कर मुझे बुरा तो जरुर लगा, लेकिन चूंकि बात वह सही कह रहा था लिहाजा मुझसे कुछ खास कहते न बना. बड़ी मुश्किल से बस इतना कह पाया, 'अच्छा-अच्छा चलो, बस करो अब!'
'अरे बस क्यों करूं भाई? कहो तो तुम्हारे लालच के बारे में भी बता दूं?'
अब मेरा लालच तो कुछ था नहीं, तो मैं क्यों डरता! लिहाजा मैंने ताल ठोंकने के से अंदाज में कहा, 'हाँ-हाँ, जरा बता दो तो क्या लालच है मुझे.'
'अरे वही जो सरे हिंदी वालों को हुआ करती है. हिंदी अगर संयुक्त राष्ट्र की भाषा बन गयी तो भैया हो सकता है तुमको भी विदेश मंत्रालय के खर्चे पर एकाध विदेशयात्रा का मौका मिल जाए. कोई पीठ-वीठ किसी यूनिवर्सिटी में नई बने तो क्या पता उसकी अध्यक्षी ही तुमको मिल जाए. नई तो कोई फेलोशिप ही मिल जाएगी. हिंदी को अगर संयुक्त राष्ट्र में जगह मिल गयी तो जाहिर है दो-चार पुरस्कार-सम्मान भी बढी जाएँगे. इसमें कहीँ न कहीँ तो तुम्हरो नाम शामिल होई जाएगा बाबू.'
'अच्छा-अच्छा चल अब रहने दे' अपनी खाल कोई बिल्कुल उतरते तो देख नहीं सकता. लिहाजा मैंने जल्दी से उससे पिंड छुडाया. हालांकि मामले की असलियत अब मेरे सामने फिल्मी हीरोइनों की तरह बिल्कुल खुल कर आ गयी थी. मामला समझ में आते ही जैसा कि लतीफों के मामले में हमारे देश में रिवाज है, मैं जोर से हंसा.
अब शादी के तेरह साल बाद भी कोई आदमी खुल कर हंसने की कूवत रखता हो, तो यह बात हैरतअंगेज तो लगती ही है. खास तौर से ऐसे समय में जबकि आटे से लेकर कीटनाशकों तक के दाम आसमान छू रहे हों, तब तो यह तथाकथित विश्व सुंदरियों के सौंदर्य से भी ज्यादा कृत्रिम लगने लगता है. बीवियां जानती हैं कि ऐसा सिर्फ दो ही स्थितियों में हो सकता है. एक तो यह कि आदमी का दिमाग चल गया हो और दूसरा यह कि उसका चरित्र भारतीय राजनेताओं की तरह संदिग्ध हो गया हो. वर्ना तो आदमी के ब्लू लाईन बसों की तरह बहकने की कोई दूसरी वजह नहीं हो सकती. लिहाजा मेरी जोर की हँसी सुनते ही श्रीमती जी किचेन छोड़ कमरे में नमूदार हुईं. ताका तो उन्होने मुझे ऐसे जैसे सरकारी अस्पताल का डाक्टर ताकता है किसी सोर्सविहीन मरीज को.
'क्या हुआ, क्यों हंसने लगे इस तरह?'
'अरे कुछ नहीं, बस अख़बार में एक चुटकुला पढ़ लिया था.'
'तो इसमें ऎसी क्या बात हो गयी? क्या पहली बार चुटकुला पढ़ रहे हो?'
'नहीं-नहीं, यह बात नहीं है.'
'फिर क्या बात है?'
'असल बात ये है कि ये चुटकुला पहले पन्ने पर छपा है.'
'कौन सा चुटकुला है, जरा मैं भी तो देखूं' श्रीमती जी ने भी अपनी आंख अख़बार पर गडा दी.
मैंने खबर दिखाई - हिंदी को संयक्त राष्ट्र की भाषा बनाएँगे : प्रधानमंत्री. मैंने कहा देखिए जी. ये रही.
'हुंह' उन्होने बिल्कुल ४४० वोल्ट का झटका मारा. 'ये तुम्हे लतीफा दिखता है?'
'तो' मैंने पूछा, 'खबर के पन्ने पे क्या समझाती हो सब खबर ही छपती है. जरा तार्किक ढंग से सोच के देखो. कल शर्मा जी के बेटे के बारे में क्या बता रही थी?
अभी कल ही उन्होने बताया था. पड़ोस के शर्मा जी के मुन्ने के स्कूल में हिंदी बोलने पर रोक लग गयी है. अगर किसी बच्चे ने गलती से बोल दिया तो उसे एक शब्द पर पांच रुपये जुर्माना भरना पड़ेगा. इसी बात को लेकर वह मुझे हडकाए जा रही थीं कि एक तुमने अपने बच्चों का एडमिशन करवाया है. जहाँ आपस में तो बच्चे पूरे दिन हिंदी ही बोलते रहते हैं. यहाँ तक कि मैडमों से भी कई बार हिंदी में बात कर लेते हैं. ऐसे स्कूल में बच्चों का भविष्य क्या खाक बनेगा? वो तो भला हो अपनी औकात का जिसकी दुहाई देकर मैंने जैसे-तैसे श्रीमती जी के कोप से अपनी जान बचाई. और अब आज सुबह-सुबह प्रधानमंत्री का ऐसा बयान! मामले की असलियत जैसे ही श्रीमती जी की समझ में आई, उनकी भी हँसी फूट पडी. अब हम दोनों हंस रहे थे. खुल कर और बेधड़क, आख़िर प्रधानमंत्री ने लतीफा सुनाया था. यह राष्ट्रीय तमीज का विषय है कि उनके लतीफों पर खुल कर हंसा जाए, चाहे वो लाफ्टर चलेंज में सुनाए जाने वाले लतीफों से भी घटिया क्यों न हों. हम लोग हंस रहे हैं - हे-हेह-हे-हे-हे....
आइए हमारी हे-हे में आप भी अपनी हे-हे मिलाइए. हमारे साथ मिलकर आप भी खुल कर हंसिये. आख़िर प्रधानमंत्री का लतीफा है भाई.
इष्ट देव सांकृत्यायन
ये व्यंग्य लिखकर हमारे पेट पर क्यों लात मार रहे हैं जी। गजल -कविता-दोहे-कहानी-उपन्यास सब हैं जी फिर हम से पंगेबाजी क्यों। यार आप तो पंगेबाज भी नहीं है। फिर पंगेबाज जी ने अब पंगेबाजी छोड़ दी है।
ReplyDeleteबात बिल्कुल सही है। यह लतीफा ही है लेकिन सुन कर हँसूँ या रोऊँ; यह समझ में नहीं आ रहा। जो सरकार हिंदी को राज्यभाषा नहीं बना सकी और जिसका ऐसा करने का कोई इरादा भी नहीं है, वही सरकार हिंदी को यू एन में मान्यता दिलाने की कोशिश कर रही है, यह मज़ाक नहीं तो और क्या है।
ReplyDeleteआपने बढ़िया लिखा है।
अरे क्या बात आप करते हैं आलोकजी. हम आपके मित्र हैं. प्रतिस्पर्धी नहीं. रही बात विधा की, तो इस मामले में मैंने कभी कोई बन्धन माना नहीं. कथ्य अपने अनुरूप जब विधा चुन लेता है तो मैं उसके साथ बह जाता हूँ. आपको अच्छा लगा, इसके लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteआलोक जी की शिकायत अपनी जगह, लेकिन थोड़ा छोटा रखते तो और मजा आता.
ReplyDeleteऔर हां, ये अप्रूवल का चक्कर आपने नहीं हटाया तो इसे मेरी आखिरी टिप्पड़ी समझियेगा.
ReplyDeleteबेचारे शरीफ से प्रधान मंत्री हैं. और बातों पर भी कह रहे है. ग्लासगो में हुये काण्ड पर कह रहे है कि एक कम्युनिटी पर शक नहीं करना चाहिये. उससे उन्हे नीद नहीं आ रही. वह मुलायम/अर्जुन सिन्ह जैसे विचार को डिल्यूज़न की हद तक सोच ले जा रहे हैं. ये हिन्दी पर वक्तव्य भी शायद नींद न आने की समस्या के कारण हो. उसे आलोक अपने पेट पर लात और आप लेखन की विधा से जोड़ रहे हैं. प्रधानमंत्री की सीमायें समझने का कष्ट करें. :)
ReplyDeleteआलोक जी सेंटिया गये...और हमें मजा आ गया...हा हा हा!!!
ReplyDeleteसही है।लेकिन चुटकुला तो बता देते। :)
ReplyDeleteहे इष्ट देव !
ReplyDeleteएकदम ठीक कहा आपने..अब लग रहा है इस पूरे विश्व हिन्दी सम्मेलन की भावभूमि ही प्रधानमंत्री जी का वक्तव्य जारी करने के लिये रची गई है.
लताजी का गीत याद आ गया...मनमोहना बडे़ झूठे !
आज तो आपकी दिल खोलकर तारीफ करनी होगी इष्टदेव जी !फुरसतिया टच लिए, रोचकोत्तम शैली में ऎसा करारा व्यंग्य जिसे पढकर आत्मा तृप्त भई!
ReplyDeleteइष्टदेव जी ,
ReplyDeleteसही लिखा है.सच वो जोक ऑफ़ डी डै था .हम तो यही कह सकते है आओं सब रोहोहोऊ मिल भी हिंदी दुर्दशा देखी ना जाई ।
तानिवी
इष्ट देव जी, बिल्कुल सही बात है. हिंदी कि हमारे देश मैं अभी यही दशा है. सभी सिर्फ दिखावे की प्रतिबद्धता जताते हैं.
ReplyDeletegs- gsa djus ds vykok dksbZ jkLrk Hkh rks ugha fudy jgk gS b"Vnso th ]
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