... तो मैं समझदार हूँ?
मैंने ग्रेजुएशन के दौरान एक निबंध पढा था 'ऑफ़ ताज'. इसे अंगरेजी मानसिकता से प्रभावित होने का नतीजा न माना जाए, लेकिन यह सच है कि मैं उस लेखक के तर्कों से प्रभावित हुआ था और ताज को लेकर मेरे मन में जो भी रूमानी ख़याल थे वे सारे दूर हो गए. यह भी सच है इन सामंती चोंचलों से मेरी कोई सहमति पहले भी नहीं थी. भूख और गरीबी से बेहाल एक देश का बादशाह जनता की गाढी कमाई के करोड़ों रुपये खर्च कर एक कब्र बनवाए, इससे बड़ी अश्लीलता मुझे नहीं लगता कि कुछ हो सकती है.
संयोग से उसी दौरान मुझे ताज देखने का अवसर मिला और मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे उस लेखक के तर्कों से सहमत होना पड़ा. स्थापत्य के नाम पर मुझे वहाँ कुछ खास नहीं दिखा. उससे बेहतर राजस्थान की छतरियाँ हैं और अगर इसे धर्मनिरपेक्षता का अतिक्रमण न माना जाए तो कोणार्क, खजुराहो के मंदिर हैं, भोपाल की बेगमों की बनवाई मस्जिदें हैं. गोवा के चर्च हैं और पंजाब व दिल्ली के गुरूद्वारे हैं. देश के सैकड़ों किले हैं. वहाँ अगर कुछ खास है तो वह सिर्फ शाहजहाँ के आंसू हैं. अगर मुझे आंसू ही देखने हों तो यहाँ करोड़ों ग़रीबों के आंसू क्या कम हैं, जो एक बादशाह के घड़ियाली आंसू देखने में हम वक़्त जाया करें?
यही नहीं, लंबे दौर तक टूरिजम बीट देखने के नाते मैं यह भी पहले से जानता था कि इस दुनिया में सिर्फ बहुराष्ट्रीय पूजी का बोलबाला है और वह भी ऐसा कि वे आपके देश के किसी ओद्योगिक-व्यापारिक घराने को उसमें एक पैसे का हिस्सा देना नहीं चाहते. ज़्यादा से ज़्यादा कृपा करते हैं तो बस यह कि उन्हें अपने जनसंपर्क का कार्य सौंप देते हैं और उस मामूली रकम के लिए हमारी देसी कम्पनियाँ न्योछावर हो जाती हैं. मुझे इस बात की पक्की जानकारी तो नहीं, पर इतना जरूर पता था कि यह सब बहुराष्ट्रीय पूंजी की मृगमरीचिका के लिए ही किया जा रहा है. यही वजह थी जो तमाम दोस्तो के बार-बार कहने और बच्चों की जिद के बावजूद मैं तथाकथित ताज कैम्पेन के झांसे का शिकार नहीं हुआ.
अभी एक हिंदुस्तानी की डायरी पर भाई अनिल रघुराज से यह जानकर मुझे संतोष का अनुभव हुआ कि मैं एक विश्वव्यापी पूंजीवादी दुश्चक्र का शिकार होने से बच गया.
आमीन!!
इष्ट देव सांकृत्यायन
संयोग से उसी दौरान मुझे ताज देखने का अवसर मिला और मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे उस लेखक के तर्कों से सहमत होना पड़ा. स्थापत्य के नाम पर मुझे वहाँ कुछ खास नहीं दिखा. उससे बेहतर राजस्थान की छतरियाँ हैं और अगर इसे धर्मनिरपेक्षता का अतिक्रमण न माना जाए तो कोणार्क, खजुराहो के मंदिर हैं, भोपाल की बेगमों की बनवाई मस्जिदें हैं. गोवा के चर्च हैं और पंजाब व दिल्ली के गुरूद्वारे हैं. देश के सैकड़ों किले हैं. वहाँ अगर कुछ खास है तो वह सिर्फ शाहजहाँ के आंसू हैं. अगर मुझे आंसू ही देखने हों तो यहाँ करोड़ों ग़रीबों के आंसू क्या कम हैं, जो एक बादशाह के घड़ियाली आंसू देखने में हम वक़्त जाया करें?
यही नहीं, लंबे दौर तक टूरिजम बीट देखने के नाते मैं यह भी पहले से जानता था कि इस दुनिया में सिर्फ बहुराष्ट्रीय पूजी का बोलबाला है और वह भी ऐसा कि वे आपके देश के किसी ओद्योगिक-व्यापारिक घराने को उसमें एक पैसे का हिस्सा देना नहीं चाहते. ज़्यादा से ज़्यादा कृपा करते हैं तो बस यह कि उन्हें अपने जनसंपर्क का कार्य सौंप देते हैं और उस मामूली रकम के लिए हमारी देसी कम्पनियाँ न्योछावर हो जाती हैं. मुझे इस बात की पक्की जानकारी तो नहीं, पर इतना जरूर पता था कि यह सब बहुराष्ट्रीय पूंजी की मृगमरीचिका के लिए ही किया जा रहा है. यही वजह थी जो तमाम दोस्तो के बार-बार कहने और बच्चों की जिद के बावजूद मैं तथाकथित ताज कैम्पेन के झांसे का शिकार नहीं हुआ.
अभी एक हिंदुस्तानी की डायरी पर भाई अनिल रघुराज से यह जानकर मुझे संतोष का अनुभव हुआ कि मैं एक विश्वव्यापी पूंजीवादी दुश्चक्र का शिकार होने से बच गया.
आमीन!!
इष्ट देव सांकृत्यायन
इक शंहशाह ने दौलत का सहारा ले कर,
ReplyDeleteहम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़,
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
साहिर
आपने जो लिखा, सही है.
मगर सुंदरता और संपन्नता अक्सर हाथ में हाथ डाले चलते हैं.
अनामदास
हर चीज के दो पहलू होते ही है। एक पहलू रोशनी से भरपूर है, तो दूसरे पहलू के हिस्से अंधेरा ही आएगा।
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