दोषी कौन?
काशी जीवंत शहर है, देश में कुछ भी होता है तो काशी मे प्रतिक्रिया जरूर होती है. खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए तो खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नही है. लेकिन क्या मौत को भी मैनेज किया जा सकता है? क्या किसी टीवी के अदने से स्ट्रिंगर के कहने पर कोई मरने के लिए तैयार हो सकता है? ये भी बहस का विषय है कि आख़िर काशी में ही ज्यादातर ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं?
पिछले साल घूरेलाल सोनकर ने लंका थाने के सामने आत्मदाह कर लिया था. इतेफाक से उन दिनों मैं बनारस में ही कार्यरत था. उसके आत्मदाह करने की धमकी संध्याकालीन दैनिक 'सन्मार्ग' मे छपी थी. उसी को पढ़कर CNN-IBN मे काम करने वाला लड़का लंका थाने पंहुचा था. घूरेलाल ने अन्य अखबारों को भी विज्ञप्ति भेजी थी. घूरेलाल ने आग लगा ली. वो मर गया. किसी चैनल ने वो खबर नहीं ली, लेकिन अखबार मे पहले पन्ने पर जलते हुए आदमी कि तसबीर आयी. उस समय भी उंगलिया चैनल पर ही उठी थीं.
बनारस मे खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नहीं. लेकिन सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? टीवी और अखबार के लोग अपनी नौकरी के लिए खबर कवर करते हैं. जहाँ तक टीवी चैनल की बात है, सारा कुछ कवर करने के बाद अगर खबर को चैनल वाले लेते हैं तो ५०० से १००० रुपये मिलते हैं. इतने कम पैसे के लिए कोई किसी की हत्या की जोखिम नहीं लेने वाला है. तमाम लोग हैं जो सिस्टम से परेशान हैं और उनकी कोई सुनने वाला नहीं है. वाराणसी मे विकलांगों द्वारा आत्महत्या की कोशिश इसी दुख का परिणाम है.
स्टार न्यूज़ में वाराणसी में बतौर स्ट्रिंगर काम करने वाले शैलेष कहते हैं कि उन्होने विकलांगों की मंशा भांप ली थी और एसएसपी को फोन कर के जानकारी भी दी, लेकिन उसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और एसएसपी ने स्टार न्यूज़ के खिलाफ ऍफ़आईआर करा दी. साथ ही उनका कहना था कि ये मामला अखबारों मे बहुत दिनों से चल रहा था और एलआइयू ने रिपोर्ट भी दीं थी, लेकिन प्रशासन अपना मुह छुपाने के लिए घटना को दूसरी ओर मोड़ रहा है. इस घटना के लिए सिर्फ दो चैनल के संवाददाता कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं? जबकि घटनास्थल पर तो ज्यादा लोग मौजूद थे ही, पूरे शहर को जानकारी थी कि विकलांगों ने आत्महत्या की घोषणा कर रखी है.
ये जरूर है कि इस घटना के बाद प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की लडाई खुलकर सामने आ गई. अखबार मे खबर तो आई ही, सम्पादकीय भी लिखा गया जिसमे इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लोगों को शैशवावस्था में बताया गया। प्रिंट मीडिया को परिपक्व बताया गया. लेकिन सम्पादकीय लिखने वाले शायद ये नही जानते कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए काम करने वाले कई लोगों का एक दशक से भी अधिक का प्रिंट मीडिया का कैरियर रहा है!
सारी बहस के बाद भी समस्या वही कि वहीं रह गई कि बनारस के नगर निगम द्वारा बेदखल किए गए विकलांगों का क्या होगा? जो मर गए उनका क्या होगा और रोजी रोटी के लिए वरसों से आंदोलन कर रहे उन विकलांगों का क्या होगा जो जिंदा बच गए हैं?
सत्येंद्र प्रताप
पिछले साल घूरेलाल सोनकर ने लंका थाने के सामने आत्मदाह कर लिया था. इतेफाक से उन दिनों मैं बनारस में ही कार्यरत था. उसके आत्मदाह करने की धमकी संध्याकालीन दैनिक 'सन्मार्ग' मे छपी थी. उसी को पढ़कर CNN-IBN मे काम करने वाला लड़का लंका थाने पंहुचा था. घूरेलाल ने अन्य अखबारों को भी विज्ञप्ति भेजी थी. घूरेलाल ने आग लगा ली. वो मर गया. किसी चैनल ने वो खबर नहीं ली, लेकिन अखबार मे पहले पन्ने पर जलते हुए आदमी कि तसबीर आयी. उस समय भी उंगलिया चैनल पर ही उठी थीं.
बनारस मे खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नहीं. लेकिन सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? टीवी और अखबार के लोग अपनी नौकरी के लिए खबर कवर करते हैं. जहाँ तक टीवी चैनल की बात है, सारा कुछ कवर करने के बाद अगर खबर को चैनल वाले लेते हैं तो ५०० से १००० रुपये मिलते हैं. इतने कम पैसे के लिए कोई किसी की हत्या की जोखिम नहीं लेने वाला है. तमाम लोग हैं जो सिस्टम से परेशान हैं और उनकी कोई सुनने वाला नहीं है. वाराणसी मे विकलांगों द्वारा आत्महत्या की कोशिश इसी दुख का परिणाम है.
स्टार न्यूज़ में वाराणसी में बतौर स्ट्रिंगर काम करने वाले शैलेष कहते हैं कि उन्होने विकलांगों की मंशा भांप ली थी और एसएसपी को फोन कर के जानकारी भी दी, लेकिन उसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और एसएसपी ने स्टार न्यूज़ के खिलाफ ऍफ़आईआर करा दी. साथ ही उनका कहना था कि ये मामला अखबारों मे बहुत दिनों से चल रहा था और एलआइयू ने रिपोर्ट भी दीं थी, लेकिन प्रशासन अपना मुह छुपाने के लिए घटना को दूसरी ओर मोड़ रहा है. इस घटना के लिए सिर्फ दो चैनल के संवाददाता कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं? जबकि घटनास्थल पर तो ज्यादा लोग मौजूद थे ही, पूरे शहर को जानकारी थी कि विकलांगों ने आत्महत्या की घोषणा कर रखी है.
ये जरूर है कि इस घटना के बाद प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की लडाई खुलकर सामने आ गई. अखबार मे खबर तो आई ही, सम्पादकीय भी लिखा गया जिसमे इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लोगों को शैशवावस्था में बताया गया। प्रिंट मीडिया को परिपक्व बताया गया. लेकिन सम्पादकीय लिखने वाले शायद ये नही जानते कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए काम करने वाले कई लोगों का एक दशक से भी अधिक का प्रिंट मीडिया का कैरियर रहा है!
सारी बहस के बाद भी समस्या वही कि वहीं रह गई कि बनारस के नगर निगम द्वारा बेदखल किए गए विकलांगों का क्या होगा? जो मर गए उनका क्या होगा और रोजी रोटी के लिए वरसों से आंदोलन कर रहे उन विकलांगों का क्या होगा जो जिंदा बच गए हैं?
सत्येंद्र प्रताप
घूरेलाल पपलू की दुकान के सामने ,पत्रकारों से घिरा,जलने से मर गया । आग लगाने की प्रक्रिया और डिब्बे में बचे पेट्रोल को छिड़कने में भी कथित पत्रकारों का हाथ था।सीएनएन-आईबीएन के पास मौजूद फ़ुटेज में हत्या में शामिल ये चेहरे भी मौजूद होंगे।
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