हम ठहरे विश्वगुरू
चाय की गुमटी पर बैठे-बैठे ही अच्छी-खासी बहस छिड़ गई और सलाहू एकदम फायर. सारे बवेले की जड़ में हमेशा की तरह इस बार भी मौजूद था मास्टर. कभी-कभी तो मुझे लगता है इस देश में विवादों की ढ़ेर की वजह यहाँ मास्टरों की बहुतायत ही है. ज्यादा विवाद हमारे यहाँ इसीलिए हैं क्योंकि यहाँ मास्टर बहुत ज्यादा हैं. एक ढूँढो हजार मिलते हैं. केवल स्कूल मास्टर ही नहीं, ट्यूशन मास्टर, दर्जी मास्टर, बैंड मास्टर, बिजली मास्टर ..... अरे कौन-कौन से मास्टर कहें! जहाँ देखिए वहीँ मास्टर और इतने मास्टरों के होने के बावजूद पढ़ाई रोजगार की तरह बिल्कुल नदारद. तुर्रा यह कि इसके बाद भी भारत का विश्वगुरू का तमगा अपनी जगह बरकरार. ये अलग बात है कि मेरे अलावा और कोई इस बात को मानने के लिए तैयार न हो, पर चाहूँ तो मैं खुद भी अपने को विश्वगुरू मान सकता हूँ. अरे भाई मैं अपने को कुछ मानूं या कहूं, कोई क्या कर लेगा? हमारे यहाँ तो केकेएमएफ (खींच-खांच के मेट्रिक फेल) लोग भी अपने को एमडी बताते हैं और कैंसर से लेकर एड्स तक का इलाज करते हैं और कोई उनकी डिग्री चेक करने की जरूरत भी नहीं समझता. तो विश्वगुरू बनने की तो कोई डिग्री भी नहीं होती. बहरहाल विवाद की जड़ अपने को विश्वगुरू से एक दर्जा ऊपर मानने वाले मास्टर की एक स्थापना थी. स्थापना थी नेताजी की पिटाई के संदर्भ में, जिसे वह वैधानिक, संसदीय, नैतिक, पुण्यकार्य और यहाँ तक कि वक़्त की सबसे जरूरी जरूरत बता रहा था. जबकि सलाहू की मान्यता इसके ठीक विपरीत थी. मास्टर कह रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब देश के सारे नेता पीटे जाएँगे और सलाहू कह रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब देश की सारी जनता पीटी जाएगी. मैं ठहरा एक अदद अदना कलमघिस्सू जिसकी औकात में कभी कुछ तय करना रहा ही नहीं. सामने घटी घटना और जगजाहिर हालात के बारे में लिखने के लिए भी जिसे विश्वसनीय, जानकार और उच्चपदस्थ सूत्रों के हवाले का सहारा लेना पड़ता है. पहले से ही संपादक से लेकर पाठक तक के भय से आक्रांत और उस पर भी यह भरोसा नहीं कि कब कौन सा नया कानून लाकर इसके सिर लाद दिया जाए. लिहाजा अपन ने कोई राय देने-मानने के बजाय चुपचाप सुनने और गुनने में ही भलाई समझी. मास्टर फिरंट था. पक्के तौर पर यह माने बैठा था कि देश की सारी समस्याओं की जड़ में नेता हैं. सलाहू ने पूछा भाई वह कैसे? मास्टर शुरू हो गया - भाई देखो झूठे वादे जनता से ये करते हैं. कफ़न से लेकर तोप खरीदने तक के सौदों में दलाली ये खाते हैं. आरक्षण से लेकर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक तुष्टीकरण तक के नाम पर जनता को ये बरगलाते हैं ......
'बस-बस-बस' वाली तर्ज पर बात पूरी होने से पहले ही सलाहू बोल पड़ा, 'यही तो मैं भी कहता हूँ. जनता क्या दूध पीती बच्ची है जो उसे कोई बरगलाए और वह बरगला जाए? आख़िर क्यों बरगला जाती है वह?'
'बरगला इसलिए जाती है कि उसे बनाया ही इस तरह गया है कि वह बरगला जाती रहे.'
'वाह जी वाह! तुम्हारा मतलब यह कि वह पैदा ही बरगलाए जाने के लिए होती है !'
'कम से कम हिंदुस्तान की तो सच्चाई यही है.' 'जब यही सच्चाई है तो फिर कष्ट क्यों है भाई? फिर तो उसे बरगलाया ही जाना चाहिए.'
'तुम्हारे जैसे वकील तो कहेंगे ही यही.'
'हाँ, और यह भी कहेंगे कि यह देन है तुम्हारे जैसे मास्टरों की.'
'तुम्हारी तो भाई आदत है मास्टरों को कोसना. अपराधी को महापुरुष साबित करने का काम तुम करो और बदनाम हों मास्टर.' 'कभी यह भी सोचा सलाहू ने ऐसे घूर जैसे ?'
'मास्टर अपराधी नहीं बनाता समझे' मास्टर गाँव की बिजली की तरह फ्लक्चुएट होने लगा था, 'मास्टर जिन बच्चों को पढाता है उन्ही में से कुछ अफसर भी बनते हैं, कुछ डॉक्टर और इंजीनियर भी बनते हैं ...........'
'अरे बस कर यार' सलाहू वकील से अचानक थानेदार बन गया था, 'आख़िर सब बन कर सब करते क्या हैं, घपले-घोटाले और जनता के हक पर डकैती ही तो ....'
'और उन्हें इस बात के लिए मजबूर कौन करता है?'
'अब तो मन करता है कि कह दूं वकील.'
'तुम्हारे कहने से क्या होता है? कौन मानता है तुम्हारी बात?'
'क्या?' एक बारगी तो मास्टर का चेहरा बिल्कुल फक्क पड़ गया. शायद उसे लगा कि कहीं सलाहू घर की बात बाहर न करने लगे. बीवी की याद आते ही उस बेचारे बीस साला पति के पास हथियार डालने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. सलाहू इस बात को जानता है कि बीवी का जिक्र मास्टर पर वैसे ही काम करता है जैसे गठबंधन सरकार पर समर्थन वापसी की धमकी. पर वह भी कामरेड लोगों की तरह अपनी ताकत का सिर्फ एहसास ही देता है, हथियार का इस्तेमाल नहीं करता. sadhe हुए वकील का अगला वाक्य था, 'स्कूल के बच्चे तक तो तुम्हारी बात मानते नहीं.'
पर मास्टर मौका नहीं चूका. उसने तुरंत एक्का फेंका, 'हाँ! अगर सारे बच्चे मास्टरों की बात मान जाते तो नेता और वकील कहॉ से आते?'
'नहीं, आते तो तब भी. लेकिन तब इनमें भी ईमानदार लोग आते.' सलाहू ने सुधार किया, 'पर सवाल यह है कि वे मानें क्यों? जो देख रहा है कि गुरुजी क्लास में पढाने के बजाय सोते हैं, कहते हैं सच बोलने को और खुद बोलते हैं झूठ .......'
'मतलब यह कि स्कूल की किताबें भी कानून की किताबों की तरह हो गई हैं.' यह नया निष्कर्ष शर्मा जी का था.
सलाहू ने ऐसे घूरा जैसे अभी 'आर्डर-आर्डर' करने जा रहा हो. बिना पैसे लिए उसने सवाल उठा दिया, 'जहाँ जनता खुद कानून का सम्मान न करती हो वहाँ भला कानून की किताबों का इसके अलावा और क्या हाल होगा?'
'जनता को कानून का सम्मान करने लायक छोड़ा कहॉ गया है?' मास्टर ने यह सवाल वैसे ही किया था जैसे सलाहू कोर्ट में दलीलें देता है. 'अब क्या सड़क पर चलने, लाल बत्ती पर थोड़ी देर रुकने, कूड़ा गली में न फेंकने, अपना काम सलीके से न करने और अपना वोट जाति-धर्म से प्रभावित होकर न देने से भी हमें रोका गया है?'
'पर एक के यह सब करने से क्या होता है?'
'यह बात कानून तोड़ते समय क्यों नहीं सोचते गुरू ? एक तोड़ता है तोड़े, पर उसे क्यों तोडें? खास तौर से तब जब इसके लिए सिर्फ थोड़े से धैर्य की जरूरत होती है? हम जैसे हैं हमारे नेता भी वैसे ही तो होंगे!जब कानून का सम्मान नहीं करेंगे तो संसद और विधान सभाओं में भेजेंगे भी क्यों? वे तो हमारे लिए ही परेशानी के सबब बन जाएंगे.' मास्टर के पास इस बात का जवाब शायद नहीं था. वह वैसे ही खिसक लिया जैसे किसी सवाल का जवाब न आने पर अपनी क्लास से खिसक लेता है.
मैं सोच रहा था कि बात तो ठीक है, पर हम विश्वगुरू जो ठहरे. गुरू का काम उपदेश देना है, उस पर अमल करना थोड़े ही. अगले ही क्षण सलाहू भी उठा. उसने अद्दलत के चिन्ह वाले स्टीकर से युक्त बिना नंबर वाली अपनी गाड़ी उठाई और आगे बढ़ गया.
इष्ट देव सांकृत्यायन
'बस-बस-बस' वाली तर्ज पर बात पूरी होने से पहले ही सलाहू बोल पड़ा, 'यही तो मैं भी कहता हूँ. जनता क्या दूध पीती बच्ची है जो उसे कोई बरगलाए और वह बरगला जाए? आख़िर क्यों बरगला जाती है वह?'
'बरगला इसलिए जाती है कि उसे बनाया ही इस तरह गया है कि वह बरगला जाती रहे.'
'वाह जी वाह! तुम्हारा मतलब यह कि वह पैदा ही बरगलाए जाने के लिए होती है !'
'कम से कम हिंदुस्तान की तो सच्चाई यही है.' 'जब यही सच्चाई है तो फिर कष्ट क्यों है भाई? फिर तो उसे बरगलाया ही जाना चाहिए.'
'तुम्हारे जैसे वकील तो कहेंगे ही यही.'
'हाँ, और यह भी कहेंगे कि यह देन है तुम्हारे जैसे मास्टरों की.'
'तुम्हारी तो भाई आदत है मास्टरों को कोसना. अपराधी को महापुरुष साबित करने का काम तुम करो और बदनाम हों मास्टर.' 'कभी यह भी सोचा सलाहू ने ऐसे घूर जैसे ?'
'मास्टर अपराधी नहीं बनाता समझे' मास्टर गाँव की बिजली की तरह फ्लक्चुएट होने लगा था, 'मास्टर जिन बच्चों को पढाता है उन्ही में से कुछ अफसर भी बनते हैं, कुछ डॉक्टर और इंजीनियर भी बनते हैं ...........'
'अरे बस कर यार' सलाहू वकील से अचानक थानेदार बन गया था, 'आख़िर सब बन कर सब करते क्या हैं, घपले-घोटाले और जनता के हक पर डकैती ही तो ....'
'और उन्हें इस बात के लिए मजबूर कौन करता है?'
'अब तो मन करता है कि कह दूं वकील.'
'तुम्हारे कहने से क्या होता है? कौन मानता है तुम्हारी बात?'
'क्या?' एक बारगी तो मास्टर का चेहरा बिल्कुल फक्क पड़ गया. शायद उसे लगा कि कहीं सलाहू घर की बात बाहर न करने लगे. बीवी की याद आते ही उस बेचारे बीस साला पति के पास हथियार डालने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. सलाहू इस बात को जानता है कि बीवी का जिक्र मास्टर पर वैसे ही काम करता है जैसे गठबंधन सरकार पर समर्थन वापसी की धमकी. पर वह भी कामरेड लोगों की तरह अपनी ताकत का सिर्फ एहसास ही देता है, हथियार का इस्तेमाल नहीं करता. sadhe हुए वकील का अगला वाक्य था, 'स्कूल के बच्चे तक तो तुम्हारी बात मानते नहीं.'
पर मास्टर मौका नहीं चूका. उसने तुरंत एक्का फेंका, 'हाँ! अगर सारे बच्चे मास्टरों की बात मान जाते तो नेता और वकील कहॉ से आते?'
'नहीं, आते तो तब भी. लेकिन तब इनमें भी ईमानदार लोग आते.' सलाहू ने सुधार किया, 'पर सवाल यह है कि वे मानें क्यों? जो देख रहा है कि गुरुजी क्लास में पढाने के बजाय सोते हैं, कहते हैं सच बोलने को और खुद बोलते हैं झूठ .......'
'मतलब यह कि स्कूल की किताबें भी कानून की किताबों की तरह हो गई हैं.' यह नया निष्कर्ष शर्मा जी का था.
सलाहू ने ऐसे घूरा जैसे अभी 'आर्डर-आर्डर' करने जा रहा हो. बिना पैसे लिए उसने सवाल उठा दिया, 'जहाँ जनता खुद कानून का सम्मान न करती हो वहाँ भला कानून की किताबों का इसके अलावा और क्या हाल होगा?'
'जनता को कानून का सम्मान करने लायक छोड़ा कहॉ गया है?' मास्टर ने यह सवाल वैसे ही किया था जैसे सलाहू कोर्ट में दलीलें देता है. 'अब क्या सड़क पर चलने, लाल बत्ती पर थोड़ी देर रुकने, कूड़ा गली में न फेंकने, अपना काम सलीके से न करने और अपना वोट जाति-धर्म से प्रभावित होकर न देने से भी हमें रोका गया है?'
'पर एक के यह सब करने से क्या होता है?'
'यह बात कानून तोड़ते समय क्यों नहीं सोचते गुरू ? एक तोड़ता है तोड़े, पर उसे क्यों तोडें? खास तौर से तब जब इसके लिए सिर्फ थोड़े से धैर्य की जरूरत होती है? हम जैसे हैं हमारे नेता भी वैसे ही तो होंगे!जब कानून का सम्मान नहीं करेंगे तो संसद और विधान सभाओं में भेजेंगे भी क्यों? वे तो हमारे लिए ही परेशानी के सबब बन जाएंगे.' मास्टर के पास इस बात का जवाब शायद नहीं था. वह वैसे ही खिसक लिया जैसे किसी सवाल का जवाब न आने पर अपनी क्लास से खिसक लेता है.
मैं सोच रहा था कि बात तो ठीक है, पर हम विश्वगुरू जो ठहरे. गुरू का काम उपदेश देना है, उस पर अमल करना थोड़े ही. अगले ही क्षण सलाहू भी उठा. उसने अद्दलत के चिन्ह वाले स्टीकर से युक्त बिना नंबर वाली अपनी गाड़ी उठाई और आगे बढ़ गया.
इष्ट देव सांकृत्यायन
सही है. "अपन तो विश्व गुरु हैं अपना काम तो प्रवचन का है." यहां सारे ब्लॉगों पर भी या तो गाली होती है या गौंचन (फैकोलॉजी) या प्रवचन!
ReplyDeleteबहुत मस्त है. फुरसतिया भी ईर्ष्याग्रस्त हो जायेंगे.
झाड़े रहें कलेक्टरगंज!
अपन तो विश्वगुरू हैं,
ReplyDeleteकिन बातों में ?
अपना काम तो सिर्फ प्रवचन,
किस तरह का?
शुक्रिया मेरे इष्टदेव,
इस मन को चुनौती देने वाले
लेख के लिये.
प्रभु करे
इस तरह का हर लेख,
ह्म को कर्म की तरफ
प्रेरित करे !
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
सही प्रवचन दे गये मास्टर साहब!
ReplyDeleteसही है जारी रखें प्रवचन...और स्टेशन मास्टर को काहे भूल गये. :)
ReplyDeleteभाई उड़न तश्तरी वाले समीर लाल जी !
ReplyDeleteहाँ भाई ! स्टेशन मास्टर को भूल गए। ग़लती हुई, माफ़ करिये. अगली बार उससे बदला ले लेंगे. याद दिलाने के लिए धन्यवाद.
इसमें कोई संदेह नहीं कि आप गुरु आदमी है। बिल्कुल सही नब्ज पकड़ी है
ReplyDelete