कृपया इनसे मुग्ध न हों
-दिलीप मण्डल
क्या आप उन लोगों में हैं जो लालू यादव के भदेसपन के दीवाने हैं? क्या मुलायम सिंह आपकी नजर में समाजवादी नेता हैं? क्या उत्तर भारत की ओबीसी पॉलिटिक्स से आपको अब भी किसी चमत्कार की उम्मीद है? क्या आप उन लोगों में हैं, जिन्हें लगता है कि इन जातियों का उभार सांप्रदायिकता को रोक सकता है? अगर आप ऐसे भ्रमों के बीच जी रहे हैं तो आपके लिए ये जाग जाने का समय है।
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी।
जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि दलित उत्पीड़न से लेकर मुसलमानों के खिलाफ दंगों में पिछड़ी जातियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती दिखती हैं। ऐसा गुजरात में हुआ है, उत्तर प्रदेश में हुआ है और बिहार से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक में आपको ऐसे केस दिख जाएंगे।
1990 का पूरा दशक उत्तर भारत में पिछड़े नेताओं के वर्चस्व के कारण याद रखा जाएगा। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, देवीलाल (दिवंगत), ओम प्रकाश चौटाला, कल्याण सिंह, उमा भारती, अजित सिंह जैसे नेता पूरे दशक और आगे-पीछे के कुछ वर्षों में राजनीति के शिखर पर चमकते रहे हैं। इस दौरान खासकर प्रशासन में और सरकारी ठेके और सप्लाई से लेकर ट्रांसपोर्ट और कारोबार तक में पिछड़ों में से अगड़ी जातियों को उनका हिस्सा या उससे ज्यादा मिल गया है। ट्रांसफर पोस्टिंग में इन जातियों के अफसरों को अच्छी और मालदार जगहों पर रखा गया। विकास के लिए ब्लॉक से लेकर पंचायत तक पहुंचने वाले विकास के पैसे की लूट में अब इन जातियों के प्रभावशाली लोग पूरा हिस्सा ले रहे हैं।
इन जातियों के प्रभावशाली होने में एक बड़ी कमी रह गई है। वो ये कि शिक्षा के मामले में इन जातियों और उनके नेताओं ने आम तौर पर कोई काम नहीं किया है। इस मामले में उत्तर भारत की पिछड़ा राजनीति, दक्षिण भारत या महाराष्ट्र की पिछड़ा राजनीति से दरिद्र साबित हुई है।
विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
इसका असर आपको पिछले साल चले आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा होगा। अपनी सीटें कम होने की चिंता को लेकर जब सवर्ण छात्र सड़कों पर थे और एम्स जैसे संस्थान तक बंद करा दिए गए, तब पिछड़ी जाति के छात्रों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। जब सरकार ने आंदोलन के दबाव में ओबीसी रिजर्वेशन को संस्थानों में सीटें बढ़ाने से जोड़ दिया और फिर आरक्षण को तीन साल की किस्तों में लागू करने की घोषणा की, तब भी पिछड़ी जाति के नेताओं से लेकर छात्रों तक में कोई प्रतिक्रिया होती नहीं दिखी। और फिर जब अदालत में सरकार ओबीसी आरक्षण का बचाव नहीं कर पाई और आरक्षण का लागू होना टल गया, तब भी पिछड़ों के खेमे में खोमोशी ही दिखी।
इसकी वजह शायद ये है कि पिछड़ी जातियों में कामयाबी के ज्यादातर मॉडल शिक्षा में कामयाबी हासिल करने वाले नहीं हैं। पिछड़ी जातियों में समृद्धि के जो मॉडल आपको दिखेंगे उनमें ज्यादातर ने जमीन बेचकर, ठेकेदार करके, सप्लायर्स बनकर, नेतागिरी करके, या फिर कारोबार करके कामयाबी हासिल की है। दो तीन दशक तक तो ये मॉडल सफल साबित हुआ। लेकिन अब समय तेजी से बदला है। नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।
ऐसे में उम्मीद की किरण कहां है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आपको इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि समाज में बदलाव की जरूरत किसे है। उत्तर भारतीय समाज को देखें तो उम्मीद की रोशनी आपको दलित, अति पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के बीच नजर आएगी। भारतीय लोकतंत्र में ये समुदाय अब भी वंचित हैं। यथास्थिति उनके हितों के खिलाफ है। संख्या के हिसाब से भी ये बहुत बड़े समूह हैं और चुनाव नतीजों के प्रभावित करने की इनकी क्षमता भी है। वैसे जाति और मजहबी पहचान की राजनीति की बात करते हुए हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने के साथ शायद आदिम पहचान के दम पर चल रहे भारतीय लोकतंत्र का भी चेहरा भी बदलेगा। वैसे भी लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन व्यवस्था का जाति और कबीलाई पहचान के साथ तालमेल स्वाभाविक नहीं है।
क्या आप उन लोगों में हैं जो लालू यादव के भदेसपन के दीवाने हैं? क्या मुलायम सिंह आपकी नजर में समाजवादी नेता हैं? क्या उत्तर भारत की ओबीसी पॉलिटिक्स से आपको अब भी किसी चमत्कार की उम्मीद है? क्या आप उन लोगों में हैं, जिन्हें लगता है कि इन जातियों का उभार सांप्रदायिकता को रोक सकता है? अगर आप ऐसे भ्रमों के बीच जी रहे हैं तो आपके लिए ये जाग जाने का समय है।
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी।
जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि दलित उत्पीड़न से लेकर मुसलमानों के खिलाफ दंगों में पिछड़ी जातियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती दिखती हैं। ऐसा गुजरात में हुआ है, उत्तर प्रदेश में हुआ है और बिहार से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक में आपको ऐसे केस दिख जाएंगे।
1990 का पूरा दशक उत्तर भारत में पिछड़े नेताओं के वर्चस्व के कारण याद रखा जाएगा। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, देवीलाल (दिवंगत), ओम प्रकाश चौटाला, कल्याण सिंह, उमा भारती, अजित सिंह जैसे नेता पूरे दशक और आगे-पीछे के कुछ वर्षों में राजनीति के शिखर पर चमकते रहे हैं। इस दौरान खासकर प्रशासन में और सरकारी ठेके और सप्लाई से लेकर ट्रांसपोर्ट और कारोबार तक में पिछड़ों में से अगड़ी जातियों को उनका हिस्सा या उससे ज्यादा मिल गया है। ट्रांसफर पोस्टिंग में इन जातियों के अफसरों को अच्छी और मालदार जगहों पर रखा गया। विकास के लिए ब्लॉक से लेकर पंचायत तक पहुंचने वाले विकास के पैसे की लूट में अब इन जातियों के प्रभावशाली लोग पूरा हिस्सा ले रहे हैं।
इन जातियों के प्रभावशाली होने में एक बड़ी कमी रह गई है। वो ये कि शिक्षा के मामले में इन जातियों और उनके नेताओं ने आम तौर पर कोई काम नहीं किया है। इस मामले में उत्तर भारत की पिछड़ा राजनीति, दक्षिण भारत या महाराष्ट्र की पिछड़ा राजनीति से दरिद्र साबित हुई है।
विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
इसका असर आपको पिछले साल चले आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा होगा। अपनी सीटें कम होने की चिंता को लेकर जब सवर्ण छात्र सड़कों पर थे और एम्स जैसे संस्थान तक बंद करा दिए गए, तब पिछड़ी जाति के छात्रों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। जब सरकार ने आंदोलन के दबाव में ओबीसी रिजर्वेशन को संस्थानों में सीटें बढ़ाने से जोड़ दिया और फिर आरक्षण को तीन साल की किस्तों में लागू करने की घोषणा की, तब भी पिछड़ी जाति के नेताओं से लेकर छात्रों तक में कोई प्रतिक्रिया होती नहीं दिखी। और फिर जब अदालत में सरकार ओबीसी आरक्षण का बचाव नहीं कर पाई और आरक्षण का लागू होना टल गया, तब भी पिछड़ों के खेमे में खोमोशी ही दिखी।
इसकी वजह शायद ये है कि पिछड़ी जातियों में कामयाबी के ज्यादातर मॉडल शिक्षा में कामयाबी हासिल करने वाले नहीं हैं। पिछड़ी जातियों में समृद्धि के जो मॉडल आपको दिखेंगे उनमें ज्यादातर ने जमीन बेचकर, ठेकेदार करके, सप्लायर्स बनकर, नेतागिरी करके, या फिर कारोबार करके कामयाबी हासिल की है। दो तीन दशक तक तो ये मॉडल सफल साबित हुआ। लेकिन अब समय तेजी से बदला है। नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।
ऐसे में उम्मीद की किरण कहां है? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आपको इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि समाज में बदलाव की जरूरत किसे है। उत्तर भारतीय समाज को देखें तो उम्मीद की रोशनी आपको दलित, अति पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के बीच नजर आएगी। भारतीय लोकतंत्र में ये समुदाय अब भी वंचित हैं। यथास्थिति उनके हितों के खिलाफ है। संख्या के हिसाब से भी ये बहुत बड़े समूह हैं और चुनाव नतीजों के प्रभावित करने की इनकी क्षमता भी है। वैसे जाति और मजहबी पहचान की राजनीति की बात करते हुए हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने के साथ शायद आदिम पहचान के दम पर चल रहे भारतीय लोकतंत्र का भी चेहरा भी बदलेगा। वैसे भी लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन व्यवस्था का जाति और कबीलाई पहचान के साथ तालमेल स्वाभाविक नहीं है।
देश के बड़े पूँजीपती अम्बानी के अड्डे के प्रचार के लिए दीपान्जली ने टिप्पणी की,आपको अपने चिट्ठे को प्रचार का साधन बनने से रोकना चाहिए।
ReplyDeleteयह सही है कि पिछड़ा राजनीति आज देश में बिल्कुल दिशाहीन हो चुकी है. लेकिन यह बात राजनीति की और धाराओं के बारे में भी सही है. जहाँ तक सवाल शिक्षा का है, वह वहीं है जहाँ मजबूरी है. आम भारतीय अभी भी 'पढ़ब-लिखब की ऎसी-तैसी' वाली मानसिकता में ही जी रहा है. इसका कारण भी राजनीति ही है. ज़रा सोचिए पढ़ाने की क्या जरूरत है जब पढ़ लिख कर आप ज्यादा से ज्यादा 50 हजार रुपये महीने कमाने वाले मास्टर ही बन सकते हैं और बिना पढे-लिखे तो आप शिक्षा मंत्री बन कर करोड़ों का माल पीत सकते हैं.
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