आम जनता की आस्था
इष्ट देव सांकृत्यायन
दिलली हाईकोर्ट ने जस्टिस सभरवाल के मसले को लेकर जिन चार पत्रकारों को सजा सुनाई थी, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी है. हाईकोर्ट ने उन्हें यह सजा इसलिए दी थी क्योंकि उसे ऐसा लगा था कि मिड डे में छापे लेख से कोर्ट की छवि धूमिल हो रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा के खिलाफ पत्रकारों की याचिका किस आधार पर स्वीकारी और किस कारण से हाईकोर्ट द्वारा दी गई सजा पर रोक लगाई, यह बात तो अभी स्पष्ट नहीं हो सकी है लेकिन पत्रकार बिरादरी और आम जन का मानना है कि इससे भारत की न्यायिक प्रणाली में आम जनता का विश्वास बहाल होता है. आस्था और विश्वास की बहाली का उपाय सच का गला दबाना नहीं उसकी पड़ताल करना है. यह जानना है कि अगर मीडिया ने किसी पर कोई आरोप लगाया है तो ऐसा उसने क्यों किया है? आखिर इस आरोप के क्या आधार हैं उसके पास? उन आधारों पर गौर किया जाना चाहिए. उसके तर्कों को समय और अनुभव की कसौटी पर कसा जाना चाहिए. इसके बाद अगर लगे कि यह तर्क माने जाने लायक हैं, तभी माना जाना चाहिए. तमाम पत्रकारों की ओर से विरोध के बावजूद मैं यह मानता हूँ कि मीडिया के आचार संहिता लाई जानी चाहिए. लेकिन यह आचार संहिता सच का गला घोंटने वाली नहीं होनी चाहिए. यह आचार संहिता सत्ता के हितों की रक्षा के लिए नहीं, आम जनता के हितों की रक्षा करने वाली होनी चाहिए. क्योंकि लोकतंत्र में व्यवस्था का कोई भी अंग जनता के लिए है. चाहे वह विधायिका हो या कार्यपालिका या फिर न्यायपालिका या मीडिया; भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सभी जनता के लिए हैं न कि जनता इनके लिए है. इसीलिए हमारे संविधान ने व्यवस्था के जिस किसी भी अंग या पद को जो विशेषाधिकार दिए हैं वह आम जनता के हितों की रक्षा के लिए हैं. आम जनता इनमें से किसी के हितों की रक्षा के लिए नहीं है. मीडिया को भी इस तरह के जो घोषित-अघोषित विशेषाधिकार हैं, जिनके अंतर्गत वह महीनों अपराधियों के इंटरव्यू दिखाता है, किसी सेलेब्रिटी की शादी की खबर महीनों चलाता है और भूत-प्रेत के किस्से सुना-सुना कर उबाता रहता है या सनसनी फैलता रहता है, ये अधिकार छीने जाने चाहिए.
लेकिन भाई अगर व्यवस्था के शीर्ष पर आसीन लोग भ्रष्ट हो रहे हों, और अपने स्वार्थों में इस क़दर अंधे हो गए हों कि धृतराष्ट्र को भी मात दे रहे हों तो उनके विशेषाधिकार के नाजायज पंख भी काटे जाने चाहिए. व्यवस्था अगर यह काम नहीं करेगी तो फिर यह काम जनता को करना पड़ेगा. और भारत की जनता ऐसा कुछ करने में हिचकती नहीं है. इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं.
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का यह कदम न्याय में आम जनता की आस्था बहाल करने वाला है. इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय धन्यवाद और बधाई दोनों का पात्र है. धन्यवाद इसलिए कि उसने अपना दायित्व निभाया. न्याय की व्यवस्था को न्याय की तरह देखा. और बधाई इसलिए कि वह न्यायिक प्रणाली में जनता की आस्था बनाए रखने में सफल रहा.
दिलली हाईकोर्ट ने जस्टिस सभरवाल के मसले को लेकर जिन चार पत्रकारों को सजा सुनाई थी, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी है. हाईकोर्ट ने उन्हें यह सजा इसलिए दी थी क्योंकि उसे ऐसा लगा था कि मिड डे में छापे लेख से कोर्ट की छवि धूमिल हो रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा के खिलाफ पत्रकारों की याचिका किस आधार पर स्वीकारी और किस कारण से हाईकोर्ट द्वारा दी गई सजा पर रोक लगाई, यह बात तो अभी स्पष्ट नहीं हो सकी है लेकिन पत्रकार बिरादरी और आम जन का मानना है कि इससे भारत की न्यायिक प्रणाली में आम जनता का विश्वास बहाल होता है. आस्था और विश्वास की बहाली का उपाय सच का गला दबाना नहीं उसकी पड़ताल करना है. यह जानना है कि अगर मीडिया ने किसी पर कोई आरोप लगाया है तो ऐसा उसने क्यों किया है? आखिर इस आरोप के क्या आधार हैं उसके पास? उन आधारों पर गौर किया जाना चाहिए. उसके तर्कों को समय और अनुभव की कसौटी पर कसा जाना चाहिए. इसके बाद अगर लगे कि यह तर्क माने जाने लायक हैं, तभी माना जाना चाहिए. तमाम पत्रकारों की ओर से विरोध के बावजूद मैं यह मानता हूँ कि मीडिया के आचार संहिता लाई जानी चाहिए. लेकिन यह आचार संहिता सच का गला घोंटने वाली नहीं होनी चाहिए. यह आचार संहिता सत्ता के हितों की रक्षा के लिए नहीं, आम जनता के हितों की रक्षा करने वाली होनी चाहिए. क्योंकि लोकतंत्र में व्यवस्था का कोई भी अंग जनता के लिए है. चाहे वह विधायिका हो या कार्यपालिका या फिर न्यायपालिका या मीडिया; भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सभी जनता के लिए हैं न कि जनता इनके लिए है. इसीलिए हमारे संविधान ने व्यवस्था के जिस किसी भी अंग या पद को जो विशेषाधिकार दिए हैं वह आम जनता के हितों की रक्षा के लिए हैं. आम जनता इनमें से किसी के हितों की रक्षा के लिए नहीं है. मीडिया को भी इस तरह के जो घोषित-अघोषित विशेषाधिकार हैं, जिनके अंतर्गत वह महीनों अपराधियों के इंटरव्यू दिखाता है, किसी सेलेब्रिटी की शादी की खबर महीनों चलाता है और भूत-प्रेत के किस्से सुना-सुना कर उबाता रहता है या सनसनी फैलता रहता है, ये अधिकार छीने जाने चाहिए.
लेकिन भाई अगर व्यवस्था के शीर्ष पर आसीन लोग भ्रष्ट हो रहे हों, और अपने स्वार्थों में इस क़दर अंधे हो गए हों कि धृतराष्ट्र को भी मात दे रहे हों तो उनके विशेषाधिकार के नाजायज पंख भी काटे जाने चाहिए. व्यवस्था अगर यह काम नहीं करेगी तो फिर यह काम जनता को करना पड़ेगा. और भारत की जनता ऐसा कुछ करने में हिचकती नहीं है. इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं.
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का यह कदम न्याय में आम जनता की आस्था बहाल करने वाला है. इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय धन्यवाद और बधाई दोनों का पात्र है. धन्यवाद इसलिए कि उसने अपना दायित्व निभाया. न्याय की व्यवस्था को न्याय की तरह देखा. और बधाई इसलिए कि वह न्यायिक प्रणाली में जनता की आस्था बनाए रखने में सफल रहा.
महाराज ये तो फौरी कदम है, वो भी इसलिये कि जनता गुस्सा रही थी।
ReplyDeleteचलिये; भूल चूक लेनी देनी माफ.
ReplyDeleteआपने दोनो पहलवानों की पीठ थपथपाई - यह अच्छा किया.
महारथी भाई!
ReplyDeleteवक़्त आने दीजिए. फिर लिखा जाएगा. अगर सबूतों में हेर-फेर भी होगी तो वह भी छिपी नहीं रहेगी. न्यायपालिका से जुडे लोगों को सजायाफ्ता होते हुए भी यह देश देख चुका है.
भाई इष्टदेव जी,
ReplyDeleteआलेख को अद्यतन और संशोिधत करने के लिए धन्यवाद। आपने साबित किया कि सच्चा पत्रकार दृढ़ संकल्प और लचीले विचारों वाला होता है। न्याय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रभावी प्रहार आवश्यक है लेिकन यह कार्य लोकतंत्र के उस ढांचे में रहकर ही किया जाना चाहिए जो संविधान ने हमें मुहैया कराया है। इससे बाहर जाकर किया गया कोई भी संघर्ष कई तरह के संकटों का कारण बन सकता है। इसके विफल होने का खतरा तो होता ही है, विपरीत परिस्थितियों में यह सामाजिक अराजकता का कारण भी बन सकता है। कोई जरुरी नहीं कि अराजकता से हर बार फ्रांस जैसी क्रांति का ही आविर्भाव हो । जब तक नई व्यवस्था हमारे सामने मूर्त न हो तब तक बनी बनाई व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने को तोड़ा नहीं जा सकता । यह ठीक नहीं होगा।
मनोज सिंह
विचारोत्तेजक लेख... साधुवाद...
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