गठबंधन के देवता
इष्ट देव सांकृत्यायन
बहुत पहले एक कवि मित्र ने एक दार्शनिक मित्र से सवाल किया था. मैं भी वहाँ मौजूद था, लेकिन उन दिनों अपनी दिलचस्पी का विषय न होने के नाते पचड़े में पड़ना मैंने जरूरी नहीं समझा. फिर भी जब दार्शनिक मित्र की घिग्घी बंधती देखी तो मजा आने लगा और मैं भी उसमें रूचि लेने लगा. असल में ऐसा कोई सवाल होता नहीं था जिसका ठीक-ठीक जवाब हमारे दार्शनिक मित्र के पास न होता रहा हो। योग के गुरुओं की तरह. जैसे वे क़मर में दर्द से लेकर कैंसर और एड्स तक का इलाज बता देते हैं, ऐसे ही हमारे दार्शनिक मित्र के पास भारत-पाकिस्तान-नेपाल ही नहीं इथिओपिया से लेकर ईस्ट तिमोर तक की सभी समस्याओं के शर्तिया हल होते थे. ईश्वर के होने - न होने का सवाल ही नहीं उसका पता-ठिकाना तक वो बता देते थे. दुर्भाग्य से इमेल और मोबाइल के बारे में तब तक उन्हें पता नहीं चला था, वरना शायद वे वह सब भी बता देते.
असल में कवि मित्र इस बात पर अड़ा था कि जब हर रुप में ईश्वर एक ही है तो इतने सारे भगवान बनाने और उन्हें अलग-अलग पूजने की जरूरत क्या थी? यह तो हमारे हिंदू धर्म की एकरूपता पर, हमारी आस्था की एकनिष्ठता पर सवाल है. दार्शनिक मित्र ने पहले तो जवाब दिया कि भई किसी ने कहा है कि सबको पूजो. तुम जिसको चाहो पूजो. जिसे तुम मानो वही तुम्हारा भगवान. लेकिन ये तो ऐसे हुआ कि जिसे तुम मानो वही पार्टी अध्यक्ष. अगर ऎसी सुविधा दे दी जाए तो एक-एक दल के कितने अध्यक्ष हो जाएँ ज़रा सोचिए तो! कम से कम भारत की कोई पार्टी तो ऐसा सिर फोडू लोकतंत्र मानने से रही. व्यक्ति क्या पार्टियों के मामले में तो बहुमत का मत भी इस मामले में नहीं चल सकता. अध्यक्ष वह जिसे सुप्रीमो यानी पुराने चलन की भाषा में मालिक या मालकिन चाहे.
कवि मित्र ने इसे मानने से इंकार कर दिया. उल्टा? जाने कहॉ से एक और तर्क ले आया. बोला - भई हमारे यहाँ तो यह भी कहा गया है कि गृहस्थ को एक देवता पर आश्रित नहीं रहना चाहिए. उसे कई-कई देवताओं की पूजा करनी चाहिए. सबसे पहले गणेश जी की (माई फ्रेंड गनेशा तब नहीं आई थी), फिर गौरी माता की और फिर और अन्य देवताओं की. दार्शनिक मित्र ने पहले तो इसे धर्म में लोकतंत्र का असर बताने की कोशिश की, लेकिन जब फेल हो गया तो धर्मशास्त्र के वैश्वीकरण में जुट गया . लगा उदाहरण देने चीन से रोम, अफ्रीका, यूनान और जाने कहॉ-कहॉ के, कि सभी बडे और पुराने धर्मों में कई-कई देवता पूजे जाते हैं. पर मेरा कवि मित्र इससे सन्तुष्ट नहीं था. मैं भी नहीं हो पाया था. क्योंकि हमने यह तो पूछा नहीं था कि कहाँ-कहाँ बहुत सारे देवता पूजे जाते हैं. हमने तो यह पूछा था कि जहाँ भी ऐसा होता है, क्यों होता है?
लंबे समय तक मगजपच्ची के बावजूद हमें उस वक़्त इस सवाल का जवाब नहीं मिला था. हालांकि हमारा दार्शनिक मित्र प्राइवेट बैंको की बिजनेस डेस्क पर सुशोभित सुमधुरभाषिणी कन्याओं की तरह हमारे हर सवाल का संतोषजनक जवाब देने की जीं तोड़ कोशिश में लगा था. पर इस फेर में वह उन्ही की तरह अंड-बंड जवाब दिए जा रहा था और हम थे कि हर जवाब नकारे जा रहे थे. हालांकि ऐसा भी नहीं था कि इनकार हम इरादतन करते रहे हों, पर भाई जवाब ही सही नहीं होगा तो क्या करेगा? आख़िर हमें कोई सवाल पूछने के लिए पैसा तो मिला नहीं था कि जितना पैसा उतना सवाल और न हम इनवर्सिटी के इग्जामिनर ही थे, जिसका मजबूरी हो कैसे भी जवाब को स्वीकार करना. खैर, उस सवाल का जवाब मुझे मिल गया. मुझे हैरत हुई अचानक उस सवाल का जवाब पाकर. बहुत अच्छा भी इसलिए लगा कि वह जवाब मुझे कोई देने नहीं आया. मैंने खुद ही पा लिया. पा क्या लिया, समझिए मेरे हाथ बटेर लग गई. हुआ यूँ कि मैं अखबार पलट रहा था और अचानक मेरी नजर पड़ गई झारखंड सरकार के एक विज्ञापन पर. अब विज्ञापनों को लोग चाहे जो कह लें, पर भाई मैं तो उनका मुरीद हूँ. जरा सोचिए अगर विज्ञापन न होते तो हमें कैसे ये पता चलता कि कौन सा टीवी हमारे घर में होने से पड़ोसी जलेगा, या कौन सा टूथपेस्ट मरने के बाद भी हमारे दांतों को सही-सलामत रखेगा, या कौन सी क्रीम मुझ कव्वे को भी हंस बना देगी .....आदि-आदि. तो मैं विज्ञापन पढ़ता भी हूँ और विज्ञापन देखते ही मेरे ज्ञानचक्षु ऐसे खुले जैसे रत्ना की फटकार से तुलसीदास के खुल गए थे. ये अलग बात है कि अपनी रत्ना की रोज-रोज की फटकार भी मेरी आँखें नहीं खोल पाई. झारखण्ड सरकार के उस विज्ञापन ने ढ़ेर सारे भगवान लोगों की उपयोगिता के प्रति मुझे वैसे ही चौकन्ना कर दिया जैसे देशव्यापी जाम ने कांग्रेस सुप्रीमो को राम के अस्तित्व के प्रति कर दिया था. पूरे पन्ने के उस विज्ञापन में नीचे बड़ा सा कट आउट लगा था मधु कौडा यानी वहाँ के मुख्य मंत्री का और ऊपर शो केस में सजे कई अदद बडे नेताओं के चित्र थे. एक बार तो मुझे संदेह हुआ. जीं में डर सा गया कि कहीं कुछ हो तो नहीं गया. आख़िर क्यों बेचारे शो केस में चले गए? लेकिन जल्दी ही मामला संभल भी गया. मैंने उन्ही में से एक चहरे को टीवी पर बहस करते देख लिया. तय हो गया कि यह हैं और यह हैं तो बाकी भी होंगे ही. आख़िर जाएंगे कहॉ?
शो केस में सजने वालों में सोनिया गांधी थीं तो मनमोहन सिंह भी थे. गुरुजी थे तो लालू जी भी थे. अब कोई पूछे कि भाई जब पार्टी अध्यक्ष हैये हैं तो प्रधानमंत्री की क्या जरूरत? भाई यह तो आप भी जानते हैं कि मधु कौडा कांग्रेस के नहीं, झामुमो के नेता हैं. अब सवाल यह है कि तब झारखण्ड सरकार की उपलब्धियाँ बताने वाले इश्तहार में कांग्रेस और राजद सुप्रीमो का फोटो लगाने की क्या जरूरत? अब मैंने बिना किसी शिविर-सत्र-गुफा-उफा में गए चिन्तन करना शुरू किया तो मालूम हुआ कि उसकी भी वजह है. एक ज़माना हुआ करता था जब प्रधानमंत्री इस देश में सबसे शक्तिशाली समझा जाता था. वैसे ही जैसे वेदों के जमाने में इन्द्र सबसे बडे देवता थे. तब वही पार्टी अध्यक्ष भी हुआ करता था. पर प्रधानमंत्री का पद कुनबे के बाहर गया तो पार्टी अध्यक्ष वह कैसे रह सकता था? लिहाजा सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए ये वाली व्यवस्था बनाई गई.
पर अब? अब इन्द्र पानी बरसाने के अलावा किसी और काम के लिए याद नहीं किए जाते. इसी तरह प्रधानमंत्री अब फीता काटने और दस्त से ख़त करने के अलावा किसी और काम के लिए याद नहीं किए जाते. फैसले तो लोग भूल ही गए कि प्रधानमंत्री करता है. यह सारे काम अब पार्टी सुप्रीमो के जिम्मे हैं. पर फिर भी संविधान में दीं गई व्यवस्था के मुताबिक हमारा मुखिया तो प्रधानमंत्री ही है. चाहे वह भला हो - बुरा हो, जैसा भी हो. सो प्रधानमंत्री को बुरा नहीं लगना चाहिए, वरना राज्य के विकास के लिए धन कहॉ से आएगा? इसलिए प्रधानमंत्री की फोटो तो लगानी पडेगी. कम से कम अभी तो ये कर्टेसी निभानी पडेगी. लेकिन भाई ये बात तो अब पूरा हिंदुस्तान जानता है कि बेचारा प्रधानमंत्री अब फैसले लेने की झंझट से मुक्त कर दिया गया है. अब वह सिर्फ दस्तखत करने के लिए है. मैडम के हुक्म की तामील के लिए. वैसे ही जैसे पहले इस देश में राष्ट्रपति नाम का एक जीव होता था. और हाँ, इस पद के लिए अब ऐसे जीव ढूंढें जाने लगे हैं जो दस्तखत तक की झंझट से मुक्त रह सकें.
तो साहब यह सारी जिम्मेदारियां आ गई हैं अकेली मैडम पर. तो अब मैडम की फोटो लगाए बग़ैर काम कैसे चल सकता है? बेचारे कौडा यह भी जानते हैं कि बतौर सीएम उनकी हैसियत भी कुछ अलग तो है नहीं. सारे फैसले गुरुजी के हाथ हैं. भला गुरू के इतर चेला कैसे चल सकता है. यह तो हमारे देश की परम्परा के भी खिलाफ है. सुना ही होगा आपने कबीर तक कह गए है - बलिहारी गुरू आपने .......... तो गुरुजी की फोटो तो उन्होने लगाई ही है और यह भी जानते हैं कि गुरुजी की जिन्दगी जेल से बाहर उतने ही दिन है जितने दिन मैडम से उनकी पटरी है. और पटरी उतने ही दिन है जितने दिन रेल की पटरी पर लालू भैया का हक है. लिहाजा दूसरे दल के और एक जमाने में प्रतिस्पर्धी होने के बावजूद लालू जी की फोटो भी लगाई गई.
अब कल्पना करिए कि जब साठ साल के लोकतांत्रिक इतिहास में हम सातवीं बार गठबंधन की सरकार चला रहे हैं तो हजारों साल के इतिहास में हिंदू धर्म को यह झंझट कितनी बार झेलनी पडी होगी? अब हमारे देश के विद्वान भले यह मानने से इनकार कर दें, लेकिन इसकी प्राचीनता से तो इनकार अंगरेज विद्वान भी नहीं कर सके थे. तो साहब जाहिर है, इस धर्म में इतने सारे देवी-देवताओं का होना किसी दर्शन की नहीं गठबंधन की जरूरत रही होगी. पका है कि कभी न कभी हिंदू धर्म को गठबंधन की सरकार बनानी पडी होगी. और वैसे भी देखिए समुदायों-सम्प्रदायों की तमाम शाखाओं-प्रशाखाओं को समेटे हुए यह एक संघ ही तो है. राष्ट्रीय और स्वंयसेवक हुए बग़ैर. कई बार तो मुझे इसकी स्थिति संयुक्त मोर्चा सरकार जैसी लगती है - जिसमें वाम मोर्चा और भाजपा दोनों शामिल हैं. ग़ैर कांग्रेसवाद के नाम पर. ये अलग बात है कि आज वाम मोर्चा कांग्रेस की बैसाखी बाना है तो राजा साहब रानी साहब के कंधे से कन्धा मिला रहे हैं. पता नहीं कौन सी साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर.
जाहिर है कि यह धर्म के पूजा-पाठ नहीं गठबंधन सिद्धांत का मामला है. सच्चाई तो ये है कि हमको भी ये आत्मज्ञान ही हुआ है, लेकिन हम कोई रिशी मुनी तो हैं नहीं और आलोक पुराणिक की तरह पोर्फेसरे हैं. तो हम ई घोषणा कैसे कर सकते हैं. वैसे अगर आप हमको आत्मज्ञानी मान लें तो हमको कौनो एतराज भी नहीं होगा.
असल में कवि मित्र इस बात पर अड़ा था कि जब हर रुप में ईश्वर एक ही है तो इतने सारे भगवान बनाने और उन्हें अलग-अलग पूजने की जरूरत क्या थी? यह तो हमारे हिंदू धर्म की एकरूपता पर, हमारी आस्था की एकनिष्ठता पर सवाल है. दार्शनिक मित्र ने पहले तो जवाब दिया कि भई किसी ने कहा है कि सबको पूजो. तुम जिसको चाहो पूजो. जिसे तुम मानो वही तुम्हारा भगवान. लेकिन ये तो ऐसे हुआ कि जिसे तुम मानो वही पार्टी अध्यक्ष. अगर ऎसी सुविधा दे दी जाए तो एक-एक दल के कितने अध्यक्ष हो जाएँ ज़रा सोचिए तो! कम से कम भारत की कोई पार्टी तो ऐसा सिर फोडू लोकतंत्र मानने से रही. व्यक्ति क्या पार्टियों के मामले में तो बहुमत का मत भी इस मामले में नहीं चल सकता. अध्यक्ष वह जिसे सुप्रीमो यानी पुराने चलन की भाषा में मालिक या मालकिन चाहे.
कवि मित्र ने इसे मानने से इंकार कर दिया. उल्टा? जाने कहॉ से एक और तर्क ले आया. बोला - भई हमारे यहाँ तो यह भी कहा गया है कि गृहस्थ को एक देवता पर आश्रित नहीं रहना चाहिए. उसे कई-कई देवताओं की पूजा करनी चाहिए. सबसे पहले गणेश जी की (माई फ्रेंड गनेशा तब नहीं आई थी), फिर गौरी माता की और फिर और अन्य देवताओं की. दार्शनिक मित्र ने पहले तो इसे धर्म में लोकतंत्र का असर बताने की कोशिश की, लेकिन जब फेल हो गया तो धर्मशास्त्र के वैश्वीकरण में जुट गया . लगा उदाहरण देने चीन से रोम, अफ्रीका, यूनान और जाने कहॉ-कहॉ के, कि सभी बडे और पुराने धर्मों में कई-कई देवता पूजे जाते हैं. पर मेरा कवि मित्र इससे सन्तुष्ट नहीं था. मैं भी नहीं हो पाया था. क्योंकि हमने यह तो पूछा नहीं था कि कहाँ-कहाँ बहुत सारे देवता पूजे जाते हैं. हमने तो यह पूछा था कि जहाँ भी ऐसा होता है, क्यों होता है?
लंबे समय तक मगजपच्ची के बावजूद हमें उस वक़्त इस सवाल का जवाब नहीं मिला था. हालांकि हमारा दार्शनिक मित्र प्राइवेट बैंको की बिजनेस डेस्क पर सुशोभित सुमधुरभाषिणी कन्याओं की तरह हमारे हर सवाल का संतोषजनक जवाब देने की जीं तोड़ कोशिश में लगा था. पर इस फेर में वह उन्ही की तरह अंड-बंड जवाब दिए जा रहा था और हम थे कि हर जवाब नकारे जा रहे थे. हालांकि ऐसा भी नहीं था कि इनकार हम इरादतन करते रहे हों, पर भाई जवाब ही सही नहीं होगा तो क्या करेगा? आख़िर हमें कोई सवाल पूछने के लिए पैसा तो मिला नहीं था कि जितना पैसा उतना सवाल और न हम इनवर्सिटी के इग्जामिनर ही थे, जिसका मजबूरी हो कैसे भी जवाब को स्वीकार करना. खैर, उस सवाल का जवाब मुझे मिल गया. मुझे हैरत हुई अचानक उस सवाल का जवाब पाकर. बहुत अच्छा भी इसलिए लगा कि वह जवाब मुझे कोई देने नहीं आया. मैंने खुद ही पा लिया. पा क्या लिया, समझिए मेरे हाथ बटेर लग गई. हुआ यूँ कि मैं अखबार पलट रहा था और अचानक मेरी नजर पड़ गई झारखंड सरकार के एक विज्ञापन पर. अब विज्ञापनों को लोग चाहे जो कह लें, पर भाई मैं तो उनका मुरीद हूँ. जरा सोचिए अगर विज्ञापन न होते तो हमें कैसे ये पता चलता कि कौन सा टीवी हमारे घर में होने से पड़ोसी जलेगा, या कौन सा टूथपेस्ट मरने के बाद भी हमारे दांतों को सही-सलामत रखेगा, या कौन सी क्रीम मुझ कव्वे को भी हंस बना देगी .....आदि-आदि. तो मैं विज्ञापन पढ़ता भी हूँ और विज्ञापन देखते ही मेरे ज्ञानचक्षु ऐसे खुले जैसे रत्ना की फटकार से तुलसीदास के खुल गए थे. ये अलग बात है कि अपनी रत्ना की रोज-रोज की फटकार भी मेरी आँखें नहीं खोल पाई. झारखण्ड सरकार के उस विज्ञापन ने ढ़ेर सारे भगवान लोगों की उपयोगिता के प्रति मुझे वैसे ही चौकन्ना कर दिया जैसे देशव्यापी जाम ने कांग्रेस सुप्रीमो को राम के अस्तित्व के प्रति कर दिया था. पूरे पन्ने के उस विज्ञापन में नीचे बड़ा सा कट आउट लगा था मधु कौडा यानी वहाँ के मुख्य मंत्री का और ऊपर शो केस में सजे कई अदद बडे नेताओं के चित्र थे. एक बार तो मुझे संदेह हुआ. जीं में डर सा गया कि कहीं कुछ हो तो नहीं गया. आख़िर क्यों बेचारे शो केस में चले गए? लेकिन जल्दी ही मामला संभल भी गया. मैंने उन्ही में से एक चहरे को टीवी पर बहस करते देख लिया. तय हो गया कि यह हैं और यह हैं तो बाकी भी होंगे ही. आख़िर जाएंगे कहॉ?
शो केस में सजने वालों में सोनिया गांधी थीं तो मनमोहन सिंह भी थे. गुरुजी थे तो लालू जी भी थे. अब कोई पूछे कि भाई जब पार्टी अध्यक्ष हैये हैं तो प्रधानमंत्री की क्या जरूरत? भाई यह तो आप भी जानते हैं कि मधु कौडा कांग्रेस के नहीं, झामुमो के नेता हैं. अब सवाल यह है कि तब झारखण्ड सरकार की उपलब्धियाँ बताने वाले इश्तहार में कांग्रेस और राजद सुप्रीमो का फोटो लगाने की क्या जरूरत? अब मैंने बिना किसी शिविर-सत्र-गुफा-उफा में गए चिन्तन करना शुरू किया तो मालूम हुआ कि उसकी भी वजह है. एक ज़माना हुआ करता था जब प्रधानमंत्री इस देश में सबसे शक्तिशाली समझा जाता था. वैसे ही जैसे वेदों के जमाने में इन्द्र सबसे बडे देवता थे. तब वही पार्टी अध्यक्ष भी हुआ करता था. पर प्रधानमंत्री का पद कुनबे के बाहर गया तो पार्टी अध्यक्ष वह कैसे रह सकता था? लिहाजा सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए ये वाली व्यवस्था बनाई गई.
पर अब? अब इन्द्र पानी बरसाने के अलावा किसी और काम के लिए याद नहीं किए जाते. इसी तरह प्रधानमंत्री अब फीता काटने और दस्त से ख़त करने के अलावा किसी और काम के लिए याद नहीं किए जाते. फैसले तो लोग भूल ही गए कि प्रधानमंत्री करता है. यह सारे काम अब पार्टी सुप्रीमो के जिम्मे हैं. पर फिर भी संविधान में दीं गई व्यवस्था के मुताबिक हमारा मुखिया तो प्रधानमंत्री ही है. चाहे वह भला हो - बुरा हो, जैसा भी हो. सो प्रधानमंत्री को बुरा नहीं लगना चाहिए, वरना राज्य के विकास के लिए धन कहॉ से आएगा? इसलिए प्रधानमंत्री की फोटो तो लगानी पडेगी. कम से कम अभी तो ये कर्टेसी निभानी पडेगी. लेकिन भाई ये बात तो अब पूरा हिंदुस्तान जानता है कि बेचारा प्रधानमंत्री अब फैसले लेने की झंझट से मुक्त कर दिया गया है. अब वह सिर्फ दस्तखत करने के लिए है. मैडम के हुक्म की तामील के लिए. वैसे ही जैसे पहले इस देश में राष्ट्रपति नाम का एक जीव होता था. और हाँ, इस पद के लिए अब ऐसे जीव ढूंढें जाने लगे हैं जो दस्तखत तक की झंझट से मुक्त रह सकें.
तो साहब यह सारी जिम्मेदारियां आ गई हैं अकेली मैडम पर. तो अब मैडम की फोटो लगाए बग़ैर काम कैसे चल सकता है? बेचारे कौडा यह भी जानते हैं कि बतौर सीएम उनकी हैसियत भी कुछ अलग तो है नहीं. सारे फैसले गुरुजी के हाथ हैं. भला गुरू के इतर चेला कैसे चल सकता है. यह तो हमारे देश की परम्परा के भी खिलाफ है. सुना ही होगा आपने कबीर तक कह गए है - बलिहारी गुरू आपने .......... तो गुरुजी की फोटो तो उन्होने लगाई ही है और यह भी जानते हैं कि गुरुजी की जिन्दगी जेल से बाहर उतने ही दिन है जितने दिन मैडम से उनकी पटरी है. और पटरी उतने ही दिन है जितने दिन रेल की पटरी पर लालू भैया का हक है. लिहाजा दूसरे दल के और एक जमाने में प्रतिस्पर्धी होने के बावजूद लालू जी की फोटो भी लगाई गई.
अब कल्पना करिए कि जब साठ साल के लोकतांत्रिक इतिहास में हम सातवीं बार गठबंधन की सरकार चला रहे हैं तो हजारों साल के इतिहास में हिंदू धर्म को यह झंझट कितनी बार झेलनी पडी होगी? अब हमारे देश के विद्वान भले यह मानने से इनकार कर दें, लेकिन इसकी प्राचीनता से तो इनकार अंगरेज विद्वान भी नहीं कर सके थे. तो साहब जाहिर है, इस धर्म में इतने सारे देवी-देवताओं का होना किसी दर्शन की नहीं गठबंधन की जरूरत रही होगी. पका है कि कभी न कभी हिंदू धर्म को गठबंधन की सरकार बनानी पडी होगी. और वैसे भी देखिए समुदायों-सम्प्रदायों की तमाम शाखाओं-प्रशाखाओं को समेटे हुए यह एक संघ ही तो है. राष्ट्रीय और स्वंयसेवक हुए बग़ैर. कई बार तो मुझे इसकी स्थिति संयुक्त मोर्चा सरकार जैसी लगती है - जिसमें वाम मोर्चा और भाजपा दोनों शामिल हैं. ग़ैर कांग्रेसवाद के नाम पर. ये अलग बात है कि आज वाम मोर्चा कांग्रेस की बैसाखी बाना है तो राजा साहब रानी साहब के कंधे से कन्धा मिला रहे हैं. पता नहीं कौन सी साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर.
जाहिर है कि यह धर्म के पूजा-पाठ नहीं गठबंधन सिद्धांत का मामला है. सच्चाई तो ये है कि हमको भी ये आत्मज्ञान ही हुआ है, लेकिन हम कोई रिशी मुनी तो हैं नहीं और आलोक पुराणिक की तरह पोर्फेसरे हैं. तो हम ई घोषणा कैसे कर सकते हैं. वैसे अगर आप हमको आत्मज्ञानी मान लें तो हमको कौनो एतराज भी नहीं होगा.
झक्कास च बिंदास।
ReplyDeleteपत्रकार से बड़का प्रोफेसर कऊन होता है जी। एग्रीकल्चर से लेकर कल्चर तक शिल्पा शेट्टी से लेकर मंगल ग्रह तक सब पर संपादकीय कऊन स्कालर लोग लिखता है, परोफेसर कि पत्रकार।