बादल घिरे हुए
हरिशंकर राढ़ी
कितने दिनों के बाद हैं बादल घिरे हुए .
जिनको निहारते हैं चातक मरे हुए.
उनकी गली से लौट के आए तो कोई क्यों
जाते ही हैं वहाँ पे पापी तरे हुए.
पशुओं का झुंड कोई गुजरा था रात में
खुर के निशान शबनम पे दिखते पडे हुए.
मरने पे उनके आख़िर आंसू बहाए कौन
दिखते हैं चारो ओर ही चेहरे मरे हुए.
लगता है कोई आज भी रस्ता भटक गया
और आ रहा है झूठ की उंगली धरे हुए.
कितने दिनों के बाद हैं बादल घिरे हुए .
जिनको निहारते हैं चातक मरे हुए.
उनकी गली से लौट के आए तो कोई क्यों
जाते ही हैं वहाँ पे पापी तरे हुए.
पशुओं का झुंड कोई गुजरा था रात में
खुर के निशान शबनम पे दिखते पडे हुए.
मरने पे उनके आख़िर आंसू बहाए कौन
दिखते हैं चारो ओर ही चेहरे मरे हुए.
लगता है कोई आज भी रस्ता भटक गया
और आ रहा है झूठ की उंगली धरे हुए.
वाह राढ़ी जी
ReplyDeleteतो अब गजल की बगिया में व्यंग्यकार भी कुलान्चें भरने लगे! मुझे तो गोसाईं बाबा के मानस का सुन्दर कांड याद आ रहा है.
बहुत खूब, गहरे भाव!!!
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