स्कूप से कम नहीं रामकहानी सीताराम
सत्येन्द्र प्रताप
मधुकर उपाध्याय की 'राम कहानी सीताराम' एक ऐसे सिपाही की आत्मकथा है जिसने ब्रिटिश हुकूमत की ४८ साल तक सेवा की. अंगऱेजी हुकूमत का विस्तार देखा और आपस में लड़ती स्थानीय रियासतों का पराभव. सिपाही से सूबेदार बने सीताराम ने अपनी आत्मकथा अवधी मूल में सन १८६० के आसपास लिखी थी जिसमें उसने तत्कालीन समाज, अपनी समझ के मुताबिक़ अंग्रेजों की विस्तार नीति, ठगी प्रथा, अफगान युद्ध और १८५७ के गदर के बारे में लिखा है. अवधी में लिखी गई आत्मकथा का अंग्रेजी में अनुवाद एक ब्रिटिश अधिकारी जेम्स नारगेट ने किया और १८६३ में प्रकाशित कराया.
अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक फ्राम सिपाय टु सूबेदार के पहले सीताराम की अवधी में लिखी गई आत्मकथा इस मायने में महत्वपूर्ण है कि गद्य साहित्य में आत्मकथा है जो भारतीय लेखन में उस जमाने के लिहाज से नई विधा है. सीताराम ने अपनी किताब की शुरुआत उस समय से की है जब वह अंग्रेजों की फौज में काम करने वाले अपने मामा के आभामंडल से प्रभावित होकर सेना में शािमल हुआ। फैजाबाद के तिलोई गांव में जन्मे सीताराम ने सेना में शामिल होने की इच्छा से लेकर सूबेदार के रूप में पेंशनर बनने के अपने अड़तालीस साल के जीवनकाल की कथा या कहें गाथा लिखी है जिसमें उसने अपने सैन्य अभियानों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है.
सीताराम बहुत ही कम पढ़ा लिखा था लेकिन जिस तरह उसने घटनाओं का वर्णन िकया है, एक साहित्यकार भी उसकी लेखनी का कायल हो जाए. भाषा सरस और सरल के साथ गवईं किस्से की तरह पूरी किताब में प्रवाहित है. एक उदाहरण देिखए...
सबेरे आसमान िबल्कुल साफ था। दूर दूर तक बादल दिखाई नहीं दे रहे थे। मुझे याद है, वह १० अक्टूबर १९१२ का िदन था। सबेरे छह बजे मैं मामा के साथ िनकला,एक ऐसी दुनिया में जाने के िलए, जो मेरे लिए बिल्कुल अनजान थी. हम िनकलने वाले थे तो अम्मा ने मुझे िलपटा िलया, चूमा और कपड़े के थैले में रखकर सोने की छह मोहरें पकड़ा दीं. अम्मा ने मान िलया था िक मुझसे अलग होना उनकी किस्मत में लिखा है और वह िबना कुछ बोले चुपचाप खड़ी रहीं. सिसक-सिसक कर रोती रहीं. घर से चला तो मेरे पास सामान के नाम पर घोड़ी, मोहरों वाली थैली, कांसे का एक गहरा बर्तन, रस्सी -बाल्टी, तीन कटोिरयां, लोहे का एक बर्तन और एक चम्मच, दो जोड़ी कपड़े, नई पगड़ी, छोटा गंड़ासा और एक जोड़ी जूते थे.
सीताराम की आत्मकथा में किताब में अंग्रेजों के नाम भी भारतीय उच्चारण के साथ ही बदले-बदले नजर आते हैं, मसलन अजूटन साहब,अडम्स साहब, बर्रमपील साहब, मरतिंदल साहब... आिद आिद. हालांिक कथाक्रम और खासकर अफगान और ठगों के िखलाफ अभियान के बारे में िजस तरह पुख्ता और ऐितहािसक जानकारी दी गई है उसे पढ़कर यह संदेह होता है कि एक कम पढ़े िलखे और िसपाही के पद पर काम करने वाला आदमी ऐसी िकताब सकता है.
आलोचकों ने इस पुस्तक के बारे में यहां तक कहा है कि यह Fabricated & False है. इस िकताब में तमाम ऐसे तथ्य हैं जो यह िसद्ध करते हैं िक लेखक की स्थानीय संस्कृति में गहरी पैठ थी। मसलन समाज में छुआछूत और शुद्धि का प्रकरण..इस तरह का वर्णन सीताराम ने कई बार किया है...
एक रोज शाम को मैं अपने घायल होने का िकस्सा सुना रहा था. उसी में जंगल में भैंस चराने वाली लड़की का जिक्र आया, जिसने पानी पिलाकर मेरी जान बचाई थी. पुजारी जी मेरी बात सुन रहे थे। बोले िक मैनें जैसा बताया, लगता है वह लड़की बहुत नीची जाति की थी और उसका िनकाला पानी पीने से मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया।मैने बहुत समझाया कि बर्तन मेरा था लेिकन वह जोर-जोर से बोलने लगे और बहुत सी उल्टी-सीधी बातें कही. देखते-देखते बात पूरे गांव में फैल गई. हर आदमी मुझसे कटकर रहने लगा। कोई साथ हुक्का पीने को तैयार नहीं. मैं पुजारी पंडित दिलीपराम के पास गया। उन्होंने भी बात सुनने के बाद कहा कि मेरा धर्म भ्रष्ट हो गयाऔर मैं जात से गिर गया. वह मेरी बात सुनने को तैयार नहीं थे. मुझपर अपने ही घर में घुसने पर पाबंदी लगा दी गई. मैं दुखी हो गया. बाबू ने बहुत जोर लगाकर पंचायत बुलाई और कहा कि फैसला पंचों को करना चािहए. बाद में पंडित जी लोगों ने पूजा-पाठ किया, कई दिन उपवास कराया और तब जाकर मुझे शुद्ध माना गया। ब्राहमणों को भोज-भात कराने और दक्षिणा देने में सारे पैसे खत्म हो गए जो मैने चार साल में कमाए थे.
यह वर्णन उस समय का है जब सीताराम िपंडारियों से युद्ध करते हुए घायल होने के बाद घर लौटा था. संभवतया इस तरह का बर्णन वही व्यक्ति कर सकता है िजसने उस समाज को जिया हो. ( मुझे अपने गांव में १९८५ में हुई एक घटना याद आती है जब मैं दस साल का था और महज पांचवीं कक्षा का छात्र था। गांव के ही दुखरन शुक्ल की िबटिया, बिट्टू मुझसे दो साल वरिष्ठ। महज सातवीं कक्षा की छात्रा थी. उसकी एक प्रिय बछिया थी जो बीमारी के चलते घास नहीं चर रही थी. उसने गुस्से में आकर बछिया को मुंगरी से मार िदया. बाद में उसने वह घटना मुझे भी बताई. वह बहुत दुखी थी कि आिखर उसने अपनी प्रिय बछिया को क्यों मारा. बाद में उसने कुछ और बच्चों से कह िदया। छह महीने बाद बछिया मर गई. धीरे धीरे गांव में यह चर्चा फैली कि ...िबट्टुआ बछिया का मुंगरी से मारे रही यही से बछिया मरि गै है... पहले बच्चे उसे अशुद्ध मानकर तरजनी पर मध्यमा उंगली चढाते थे िक उसके छूने से अपवित्र न हो जाएं. बाद में समाज ने बिट्टू का हुक्का पानी बंद कर दिया. मैने अम्मा से पूछा था िक वो तो हुक्का पीती ही नहीं तो उसका हुक्का कैसे बंद किया? मुझे बताया गया िक उसे पाप का भागी मानकर समाज से वहिष्कृत कर िदया गया है. जब उसके पिता से कहा गया कि उसको शुद्ध करने के िलए भोज करें तो वे भोज देने की हालत में नहीं थे. समाज ने दुखरन सुकुल के पूरे परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया. लड़की की शादी की बात आई. समाज ने उस परिवार का बहिष्कार कर दिया था. पंडित जी को मजबूरन हुक्का पानी खोलवाने के िलए भोज देना पड़ा। मुझे याद है िक भोज के िलए पैसा कमाने वे पंजाब के िकसी िजले में मजदूरी करने गए थे.)
िकताब में अंग्रेजों की फौज और उनके िनयमों की भूिर-भूिर प्रशंसा की गई है. सीताराम ने खुद भी कहा है िक उसने वह िकताब नारगेट के कहने पर िलखी थी. साथ ही भारत में नमक का कर्ज अदा करने की परम्परा रही है. ऐसे में भले ही उसका बेटा िवद्रोह के चलते गोिलयों का िशकार हुआ लेिकन सीताराम उसे ही रास्ते से भटका हुआ बताता है. हालांिक अपनी आत्मकथा में उसने तीन बार इस बात पर आश्चर्य जताया है िक अंग्रेज बहादुर िकसी दुश्मन को जान से नहीं मारते ऐसी लड़ाई से क्या फायदा.
रामकहानी सीताराम, भारतीय समाज और संस्कृित, तत्कालीन इितहास के बारे में एक आम िसपाही की सोच को व्यक्त करती है। पुस्तक इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो जाती है िक यह अवधी भाषा में िलखी गई आत्मकथा की पहली पुस्तक है.
इस िकताब के लेखक की िवद्वत्ता के बारे में अगर िवचार िकया जाए तो भारतीय समाज में ऐसे तमाम किव, लेखक हुए हैं िजन्होंने मामूली िशक्षा हािसल की थी लेिकन समाज के बारे में शसक्त िंचंतन िकया. अवधी भाषा में कृष्ण लीला के बारे में गाया जाने वाला वह किवत्त मुझे याद है जो बचपन में मैने सुनी थी.
हम जात रिहन अगरी-डगरी,
िफर लउिट पिरन मथुरा नगरी.
मथुरा के लोग बड़े रगरी,
वै फोरत हैं िसर की गगरी..
आम लोगों द्वारा गाई जाने वाली यह किवता भी शायद िकसी कम पढ़े िलखे व्यिक्त ने की होगी, लेिकन ग्राह्य और गूढ़ अथॆ वाली हैं ये पंिक्तया.
सीताराम ने इस पुस्तक में अंग्रेजों द्वारा िहन्दुस्तािनयों से दुर्व्यवहार का भी वर्णन िकया है। साथ ही वह पदोन्नित न िदए जाने को भी लेकर खासा दुखी नजर आता है। अंितम अध्याय में तो उसने न्यायप्रिय कहे जाने वाले अंग्रेजी शासन की बिखया उधेड़ दी है. उसने कारण भी बताया है िक भारतीय अिधकारी क्यों भ्रष्ट हैं. िकताब में एक जगह लेखक ने अंग्रेजों के उस िरवाज का वर्णन िकया है िजसमें दो अंग्रेजों के बीच झगड़ा होने पर वे एक दूसरे पर गोली चलाते हैं. यह िकताब सािहत्य जगत, समाजशास्त्र और इितहास तीनों िवधाओं के िलए महत्वपूर्ण है.
पुस्तक में मधुकर जी ने बहुत ही ग्राह्य िहंदी का पऱयोग िकया है जो पढ़ने और समझने में आसान है.
पुस्तक : रामकहानी सीताराम
लेखक : मधुकर उपाध्याय
मूल्य : ६० रुपये
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मधुकर उपाध्याय की 'राम कहानी सीताराम' एक ऐसे सिपाही की आत्मकथा है जिसने ब्रिटिश हुकूमत की ४८ साल तक सेवा की. अंगऱेजी हुकूमत का विस्तार देखा और आपस में लड़ती स्थानीय रियासतों का पराभव. सिपाही से सूबेदार बने सीताराम ने अपनी आत्मकथा अवधी मूल में सन १८६० के आसपास लिखी थी जिसमें उसने तत्कालीन समाज, अपनी समझ के मुताबिक़ अंग्रेजों की विस्तार नीति, ठगी प्रथा, अफगान युद्ध और १८५७ के गदर के बारे में लिखा है. अवधी में लिखी गई आत्मकथा का अंग्रेजी में अनुवाद एक ब्रिटिश अधिकारी जेम्स नारगेट ने किया और १८६३ में प्रकाशित कराया.
अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक फ्राम सिपाय टु सूबेदार के पहले सीताराम की अवधी में लिखी गई आत्मकथा इस मायने में महत्वपूर्ण है कि गद्य साहित्य में आत्मकथा है जो भारतीय लेखन में उस जमाने के लिहाज से नई विधा है. सीताराम ने अपनी किताब की शुरुआत उस समय से की है जब वह अंग्रेजों की फौज में काम करने वाले अपने मामा के आभामंडल से प्रभावित होकर सेना में शािमल हुआ। फैजाबाद के तिलोई गांव में जन्मे सीताराम ने सेना में शामिल होने की इच्छा से लेकर सूबेदार के रूप में पेंशनर बनने के अपने अड़तालीस साल के जीवनकाल की कथा या कहें गाथा लिखी है जिसमें उसने अपने सैन्य अभियानों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है.
सीताराम बहुत ही कम पढ़ा लिखा था लेकिन जिस तरह उसने घटनाओं का वर्णन िकया है, एक साहित्यकार भी उसकी लेखनी का कायल हो जाए. भाषा सरस और सरल के साथ गवईं किस्से की तरह पूरी किताब में प्रवाहित है. एक उदाहरण देिखए...
सबेरे आसमान िबल्कुल साफ था। दूर दूर तक बादल दिखाई नहीं दे रहे थे। मुझे याद है, वह १० अक्टूबर १९१२ का िदन था। सबेरे छह बजे मैं मामा के साथ िनकला,एक ऐसी दुनिया में जाने के िलए, जो मेरे लिए बिल्कुल अनजान थी. हम िनकलने वाले थे तो अम्मा ने मुझे िलपटा िलया, चूमा और कपड़े के थैले में रखकर सोने की छह मोहरें पकड़ा दीं. अम्मा ने मान िलया था िक मुझसे अलग होना उनकी किस्मत में लिखा है और वह िबना कुछ बोले चुपचाप खड़ी रहीं. सिसक-सिसक कर रोती रहीं. घर से चला तो मेरे पास सामान के नाम पर घोड़ी, मोहरों वाली थैली, कांसे का एक गहरा बर्तन, रस्सी -बाल्टी, तीन कटोिरयां, लोहे का एक बर्तन और एक चम्मच, दो जोड़ी कपड़े, नई पगड़ी, छोटा गंड़ासा और एक जोड़ी जूते थे.
सीताराम की आत्मकथा में किताब में अंग्रेजों के नाम भी भारतीय उच्चारण के साथ ही बदले-बदले नजर आते हैं, मसलन अजूटन साहब,अडम्स साहब, बर्रमपील साहब, मरतिंदल साहब... आिद आिद. हालांिक कथाक्रम और खासकर अफगान और ठगों के िखलाफ अभियान के बारे में िजस तरह पुख्ता और ऐितहािसक जानकारी दी गई है उसे पढ़कर यह संदेह होता है कि एक कम पढ़े िलखे और िसपाही के पद पर काम करने वाला आदमी ऐसी िकताब सकता है.
आलोचकों ने इस पुस्तक के बारे में यहां तक कहा है कि यह Fabricated & False है. इस िकताब में तमाम ऐसे तथ्य हैं जो यह िसद्ध करते हैं िक लेखक की स्थानीय संस्कृति में गहरी पैठ थी। मसलन समाज में छुआछूत और शुद्धि का प्रकरण..इस तरह का वर्णन सीताराम ने कई बार किया है...
एक रोज शाम को मैं अपने घायल होने का िकस्सा सुना रहा था. उसी में जंगल में भैंस चराने वाली लड़की का जिक्र आया, जिसने पानी पिलाकर मेरी जान बचाई थी. पुजारी जी मेरी बात सुन रहे थे। बोले िक मैनें जैसा बताया, लगता है वह लड़की बहुत नीची जाति की थी और उसका िनकाला पानी पीने से मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया।मैने बहुत समझाया कि बर्तन मेरा था लेिकन वह जोर-जोर से बोलने लगे और बहुत सी उल्टी-सीधी बातें कही. देखते-देखते बात पूरे गांव में फैल गई. हर आदमी मुझसे कटकर रहने लगा। कोई साथ हुक्का पीने को तैयार नहीं. मैं पुजारी पंडित दिलीपराम के पास गया। उन्होंने भी बात सुनने के बाद कहा कि मेरा धर्म भ्रष्ट हो गयाऔर मैं जात से गिर गया. वह मेरी बात सुनने को तैयार नहीं थे. मुझपर अपने ही घर में घुसने पर पाबंदी लगा दी गई. मैं दुखी हो गया. बाबू ने बहुत जोर लगाकर पंचायत बुलाई और कहा कि फैसला पंचों को करना चािहए. बाद में पंडित जी लोगों ने पूजा-पाठ किया, कई दिन उपवास कराया और तब जाकर मुझे शुद्ध माना गया। ब्राहमणों को भोज-भात कराने और दक्षिणा देने में सारे पैसे खत्म हो गए जो मैने चार साल में कमाए थे.
यह वर्णन उस समय का है जब सीताराम िपंडारियों से युद्ध करते हुए घायल होने के बाद घर लौटा था. संभवतया इस तरह का बर्णन वही व्यक्ति कर सकता है िजसने उस समाज को जिया हो. ( मुझे अपने गांव में १९८५ में हुई एक घटना याद आती है जब मैं दस साल का था और महज पांचवीं कक्षा का छात्र था। गांव के ही दुखरन शुक्ल की िबटिया, बिट्टू मुझसे दो साल वरिष्ठ। महज सातवीं कक्षा की छात्रा थी. उसकी एक प्रिय बछिया थी जो बीमारी के चलते घास नहीं चर रही थी. उसने गुस्से में आकर बछिया को मुंगरी से मार िदया. बाद में उसने वह घटना मुझे भी बताई. वह बहुत दुखी थी कि आिखर उसने अपनी प्रिय बछिया को क्यों मारा. बाद में उसने कुछ और बच्चों से कह िदया। छह महीने बाद बछिया मर गई. धीरे धीरे गांव में यह चर्चा फैली कि ...िबट्टुआ बछिया का मुंगरी से मारे रही यही से बछिया मरि गै है... पहले बच्चे उसे अशुद्ध मानकर तरजनी पर मध्यमा उंगली चढाते थे िक उसके छूने से अपवित्र न हो जाएं. बाद में समाज ने बिट्टू का हुक्का पानी बंद कर दिया. मैने अम्मा से पूछा था िक वो तो हुक्का पीती ही नहीं तो उसका हुक्का कैसे बंद किया? मुझे बताया गया िक उसे पाप का भागी मानकर समाज से वहिष्कृत कर िदया गया है. जब उसके पिता से कहा गया कि उसको शुद्ध करने के िलए भोज करें तो वे भोज देने की हालत में नहीं थे. समाज ने दुखरन सुकुल के पूरे परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया. लड़की की शादी की बात आई. समाज ने उस परिवार का बहिष्कार कर दिया था. पंडित जी को मजबूरन हुक्का पानी खोलवाने के िलए भोज देना पड़ा। मुझे याद है िक भोज के िलए पैसा कमाने वे पंजाब के िकसी िजले में मजदूरी करने गए थे.)
िकताब में अंग्रेजों की फौज और उनके िनयमों की भूिर-भूिर प्रशंसा की गई है. सीताराम ने खुद भी कहा है िक उसने वह िकताब नारगेट के कहने पर िलखी थी. साथ ही भारत में नमक का कर्ज अदा करने की परम्परा रही है. ऐसे में भले ही उसका बेटा िवद्रोह के चलते गोिलयों का िशकार हुआ लेिकन सीताराम उसे ही रास्ते से भटका हुआ बताता है. हालांिक अपनी आत्मकथा में उसने तीन बार इस बात पर आश्चर्य जताया है िक अंग्रेज बहादुर िकसी दुश्मन को जान से नहीं मारते ऐसी लड़ाई से क्या फायदा.
रामकहानी सीताराम, भारतीय समाज और संस्कृित, तत्कालीन इितहास के बारे में एक आम िसपाही की सोच को व्यक्त करती है। पुस्तक इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो जाती है िक यह अवधी भाषा में िलखी गई आत्मकथा की पहली पुस्तक है.
इस िकताब के लेखक की िवद्वत्ता के बारे में अगर िवचार िकया जाए तो भारतीय समाज में ऐसे तमाम किव, लेखक हुए हैं िजन्होंने मामूली िशक्षा हािसल की थी लेिकन समाज के बारे में शसक्त िंचंतन िकया. अवधी भाषा में कृष्ण लीला के बारे में गाया जाने वाला वह किवत्त मुझे याद है जो बचपन में मैने सुनी थी.
हम जात रिहन अगरी-डगरी,
िफर लउिट पिरन मथुरा नगरी.
मथुरा के लोग बड़े रगरी,
वै फोरत हैं िसर की गगरी..
आम लोगों द्वारा गाई जाने वाली यह किवता भी शायद िकसी कम पढ़े िलखे व्यिक्त ने की होगी, लेिकन ग्राह्य और गूढ़ अथॆ वाली हैं ये पंिक्तया.
सीताराम ने इस पुस्तक में अंग्रेजों द्वारा िहन्दुस्तािनयों से दुर्व्यवहार का भी वर्णन िकया है। साथ ही वह पदोन्नित न िदए जाने को भी लेकर खासा दुखी नजर आता है। अंितम अध्याय में तो उसने न्यायप्रिय कहे जाने वाले अंग्रेजी शासन की बिखया उधेड़ दी है. उसने कारण भी बताया है िक भारतीय अिधकारी क्यों भ्रष्ट हैं. िकताब में एक जगह लेखक ने अंग्रेजों के उस िरवाज का वर्णन िकया है िजसमें दो अंग्रेजों के बीच झगड़ा होने पर वे एक दूसरे पर गोली चलाते हैं. यह िकताब सािहत्य जगत, समाजशास्त्र और इितहास तीनों िवधाओं के िलए महत्वपूर्ण है.
पुस्तक में मधुकर जी ने बहुत ही ग्राह्य िहंदी का पऱयोग िकया है जो पढ़ने और समझने में आसान है.
पुस्तक : रामकहानी सीताराम
लेखक : मधुकर उपाध्याय
मूल्य : ६० रुपये
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
इस िकताब की जो सबसे अच्छी बात है। वो है इसके िलखने की शैली। इितहास को िजतने बेहतरीन तरीके से मधुकर जी ने िलखा है। वो वाकई कािबले तारीफ है। इस तरह कम ही लोग िलख पाते हैं। १८५७ के िवद्रोह के हालात को इतने बेहतरीन ढ़ंग से पेश िकया गया। िजतना की शायद इितहासकार भी न कर पाते। सीताराम के जरिए िवद्रोह के ददॆ अौर उसकी मािमॆकता का बेहतरीन वणॆन िकया है। रामकहानी सीताराम की तरह िसतारा िगर पड़ेगा भी लाजवाब िकताब है। सभी लोगों को इसका अध्ययन जरूर करना चािहए। खासकर जनॆिलज्म के स्टूडेंटों को। इससे उन्हें िलखने की शैली िसखने को िमलेगी।
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