मोगाम्बो खुश हुआ!
इष्ट देव सांकृत्यायन
कई दिनों पहले की बात है मैने एक ब्लॉगर भाई अनिल रघुराज के ब्लॉग पर एक पोस्ट पढी थी. पोस्ट बहुत महत्वपूर्ण जानकारी से भरा था. जानकारी यह थी कि अपना यूंपी यानी उल्टा प्रदेश ... माफ़ कीजिए ...सरकारी कागज़-पत्तर में उत्तर प्रदेश पढाई-लिखाई में भले फिसड्डी हो, लेकिन पढे-लिखे अपराधियों के मामले में अव्वल है। अपनी साक्षरता दर के मामले में यह देश के 30 राज्यों में छब्बीसवें नंबर पर है, लेकिन पढे-लिखे अपराधियों के मामले में अली दा पहला नंबर है.
भाई अनिल रघुराज का पोस्ट पढ़ कर तो ऐसा लग रहा था जैसे वो कुछ-कुछ खिन्न से हों. बेशक मुझ जैसे तमाम ब्लागरों ने वह पोस्ट पढी होगी और जैसी कि रीति है लेखक से प्रभावित होते हुए वे भी दुखी हुए होंगे. लेकिन भाई, कोई जरूरी तो है नहीं कि हर आदमी परम्परा के अनुसार ही चले. कुछ लोग परम्परा के विपरीत चलने के लिए ही बने होते हैं तो क्या करें? असल में ऐसा मैं कोई जान-बूझ कर नहीं हूँ. बाई डिफाल्ट हूँ. आप चाहें तो कह सकते हैं मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट हैं. तो सबसे पहले तो इस डिफेक्ट के लिए मैं अनिल भाई से माफी चाहता हूँ.
अब ईमानदारी से कबूल करता हूँ कि मैने जब यह बात पढी थी तब भी मुझे ईश्वर की अनुकम्पा से अपार प्रसन्नता हुई थी और अब जबकि मैं इस मुद्दे पर काफी कुछ सोच चुका हूँ तो और ज्यादा यानी अपरम्पार प्रसन्नता हो रही है. पढ़ने के बाद फौरी ख़ुशी की वजह यह थी कि मुझे एक नई जानकारी मिली थी. बिल्कुल ब्रह्मज्ञान की तरह अछूती और अनूठी, साथ ही उपयोगी भी. अब जो ख़ुशी हो रही है उसकी एक वजह यह है कि बाई डिफाल्ट मैं भी उसी उल्टा प्रदेश यानी तथाकथित उत्तर प्रदेश से हूँ, जहाँ से भाई अनिल जी हैं. अब अपनी मातृभूमि की कुछ गौरव गाथा सुनता हूँ तो प्रसन्नता होनी स्वाभाविक ही है. मैं उसे जो उल्टा प्रदेश कह रहा हूँ वह कोई ऐसे-वैसे नहीं. सोच-समझकर और पुख्ता सबूतों के साथ कह रहा हूँ.
इसके उलटा प्रदेश होने का सबसे पहला प्रमाण तो यह तथ्य ही है जो इस पोस्ट के मूल में है. आप देखिए, हमारे यहाँ कहावत कही जाती है - खेलोगे-कूदोगे होगे ख़राब, पढोगे-लिखोगे बनोगे नवाब. अब खेलने कूदने से तो हमें रोक दिया गया और नवाब इस जमाने रहे नहीं. अपने को नवाबों के खानदान से बताने वाले कई महान लोगों को मैने लखनऊ की भूल-भुलैया में गाइडगिरी करते और सौ-पचास रुपये के लिए झीकते देखा है. तो वह बनने में अब अपना कोई रस तो रहा नहीं और खेलने-कूदने दिया ही नहीं गया. जाहिर है, खराब बनने का चांस भी हाथ से जाता रहा. यह सोच कर कि अब नवाबों की जगह बाबुओं-साहबों ने ले ली, थोड़े दिन साहब, फिर बाबू बनने की कोशिश भी की और कुछ नहीं कर पाया तो जैसे-तैसे कलम घिस कर गाडी खींचने लगा. कुछ दोंस्तों की खोपडी प्रकृति ने सीधी बनाई, सो वे इस लायक भी नहीं हुए और अब तक कुछ बनने की कोशिश में अपनी जिन्दगी बिगाड़े ही चले जा रहे हैं.
अगर मुझे यह जानकारी पहले मिल गई होती तो शायद मैंने अपने बेकार दोस्तो तक यह बात पहुँचा दी होती और वे अब तक अपनी कोशिशें शुरू कर चुके होते. खैर कोई बात नहीं. देर आयद दुरुस्त आयद या कहें जब तू जगे तभी सवेरा. इस जानकारी से मुझे अचानक ज्ञान हुआ है और एक रास्ता खुलता दिखा है. अब चूंकि राजनीति यानी शासन में पढे-लिखों का वर्चस्व नहीं रहा, शायद इसीलिए प्रशासन भी पढे-लिखों से खाली कराया जा रहा है. इसी अभियान के तहत जाती-धर्म-सम्प्रदाय से जो जगहें बच जा रही हैं उन्हें रिश्वत और शिफारिस से भरा जा रहा है. मंचों पर बैठ कर ऐसे-ऐसे लोग चार वेद-छः शास्त्र के ज्ञाता होने के दावे के साथ ऎसी-ऎसी बातें कर रहे हैं, जिन्हे एक वेद का ठीक-ठीक नाम भी नहीं बता सकते. थोक के भाव से पढे-लिखे लोग उनके चेले बन कर यह साबित करने में लगे हैं कि उन्होने पढ़-लिख कर गलती की है. नहीं क्या?
वैसे सच पूछिए तो पढना-लिखने अपने-आप में एक अपराध है. आख़िर जिस कवायद का कोई मतलब न हो, जानते हुए भी उसमें सालों तक अपना वक़्त और माँ-बाप का धन बरबाद करते चले जाना अगर अपराध नहीं तो और क्या है. खास तौर से ऐसे वक़्त में जबकि हम देख रहे हों कि पढ़-लिख कर चपरासी बनाना मुश्किल है और बिना पढे-लिखे मंत्री हुआ जा सकता है. यहाँ तक कि हाई कमान की कृपा हो जाए तो बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री भी हुआ जा सकता है. हमारे देश में वैसे यह बात पहले से ही मानी जाती है कि जो कुछ भी होता है सब साहब से होता है और बन्दे से कुछ भी नहीं हो सकता. इसके बाद भी कुछ मूर्ख हैं जो कुछ करने का भ्रम पाले हुए हैं और पढने-लिखने की बेवकूफी किए जा रहे हैं.
बहरहाल, अब उनके लिए भी खुशखबरी है. यह कि अपने उल्टा प्रदेश में पढाई-लिखाई का सीधा इस्तेमाल होने लगा है. यानी वहाँ अपराधियों में पढे-लिखे लोगों की तादाद बढ़ गई है. इससे इस संभावना को बल मिल है कि अब अपराध जगत में पढे-लिखे लोगों की पूछ बढेगी. उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार खुलेंगे. जब इस क्षेत्र में पढे लिखे लोग आएंगे तो जाहिर है, थोड़े दिनों में यह क्षेत्र योजनाबद्ध तरीक़े से काम करने लगेगा और तब असंगठित क्षेत्र के संगठित रुप लेने में देर नहीं लगेगी. कोई उदार सरकार आ गई तो हो सकता है कि इसे उद्योग का दर्जा भी मिल जाए. तब अपराध उद्योग को आसानी से लोन वगैरह भी मिलने लगेगा और अगर अमेरिका-इटली की कृपा हम पर ऐसे ही बनी रही तो आने वाले दिनों में इस उद्योग में ऍफ़ दीं आई का मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा. सोचिए तब इस सेक्टर में आने का कितना क्रेज होगा?
अभी वक़्त है. जो आना चाहें आ जाएँ. बाद में प्रवेश मुश्किल हो जाएगा. क्योंकि पहले आओ-पहले पाओ का सिद्धांत हर जगह लागू होता है. लिहाजा जिन्हे यह संकोच हो कि अब पढ़ लिख कर अपराध क्या करें, वे कृपया निम्न प्रश्नों का जवाब स्वयम को दे लें:
1. यह कि अगर वे अपराध नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?
2. जो लोग आज सीधे अपराध नहीं करके कहीँ नौकरी-व्यापार या कुछ और कर रहे हैं, क्या वे यह सब करके अपराध नहीं कर रहे हैं?
3. जो रिश्वत भी नहीं ले रहे, हेराफेरी भी नहीं कर रहे, गद्दारी और हरामखोरी भी नहीं कर रहे; क्या यह सब करके आप हरामखोरी नहीं कर रहे? खुद अपने और अपने परिवार के साथ?
4. क्या आप कुछ न करते हुए भी उनका सहयोग नहीं कर रहे, जो भांति-भांति के अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं?
5. क्या यह अपने आप में एक अपराध नहीं है?
मेरा ख़याल है कि अब तक आप समझ गए होंगे और अगर समझदार ही होंगे तो रास्ता भी तय कर लिया होगा. ज्यादा से ज्यादा यही तय करना बचा होगा कि किधर और अपराध उद्योग की किस कम्पनी में ज्वाईन करें. चिन्ता न करें. जल्दी ही कोई ब्लॉगर मित्र लोक सभा, विधान सभा या विधान परिषद की सूची भी भेजेंगे. नजर रखिएगा और चुन लीजिएगा. अगर उनमें से कोई पसंद न आए तो भी कोई बात नहीं. हम थानों से भी सूची मंगवा लेंगे. वैसे बेहतर यही होगा कि संसद या विधान सभा वाली सूची से ही अपना रास्ता चुन लीजिएगा. थानों में तो नौसिखियों के नाम ही रह जाते हैं.
भाई अनिल रघुराज का पोस्ट पढ़ कर तो ऐसा लग रहा था जैसे वो कुछ-कुछ खिन्न से हों. बेशक मुझ जैसे तमाम ब्लागरों ने वह पोस्ट पढी होगी और जैसी कि रीति है लेखक से प्रभावित होते हुए वे भी दुखी हुए होंगे. लेकिन भाई, कोई जरूरी तो है नहीं कि हर आदमी परम्परा के अनुसार ही चले. कुछ लोग परम्परा के विपरीत चलने के लिए ही बने होते हैं तो क्या करें? असल में ऐसा मैं कोई जान-बूझ कर नहीं हूँ. बाई डिफाल्ट हूँ. आप चाहें तो कह सकते हैं मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट हैं. तो सबसे पहले तो इस डिफेक्ट के लिए मैं अनिल भाई से माफी चाहता हूँ.
अब ईमानदारी से कबूल करता हूँ कि मैने जब यह बात पढी थी तब भी मुझे ईश्वर की अनुकम्पा से अपार प्रसन्नता हुई थी और अब जबकि मैं इस मुद्दे पर काफी कुछ सोच चुका हूँ तो और ज्यादा यानी अपरम्पार प्रसन्नता हो रही है. पढ़ने के बाद फौरी ख़ुशी की वजह यह थी कि मुझे एक नई जानकारी मिली थी. बिल्कुल ब्रह्मज्ञान की तरह अछूती और अनूठी, साथ ही उपयोगी भी. अब जो ख़ुशी हो रही है उसकी एक वजह यह है कि बाई डिफाल्ट मैं भी उसी उल्टा प्रदेश यानी तथाकथित उत्तर प्रदेश से हूँ, जहाँ से भाई अनिल जी हैं. अब अपनी मातृभूमि की कुछ गौरव गाथा सुनता हूँ तो प्रसन्नता होनी स्वाभाविक ही है. मैं उसे जो उल्टा प्रदेश कह रहा हूँ वह कोई ऐसे-वैसे नहीं. सोच-समझकर और पुख्ता सबूतों के साथ कह रहा हूँ.
इसके उलटा प्रदेश होने का सबसे पहला प्रमाण तो यह तथ्य ही है जो इस पोस्ट के मूल में है. आप देखिए, हमारे यहाँ कहावत कही जाती है - खेलोगे-कूदोगे होगे ख़राब, पढोगे-लिखोगे बनोगे नवाब. अब खेलने कूदने से तो हमें रोक दिया गया और नवाब इस जमाने रहे नहीं. अपने को नवाबों के खानदान से बताने वाले कई महान लोगों को मैने लखनऊ की भूल-भुलैया में गाइडगिरी करते और सौ-पचास रुपये के लिए झीकते देखा है. तो वह बनने में अब अपना कोई रस तो रहा नहीं और खेलने-कूदने दिया ही नहीं गया. जाहिर है, खराब बनने का चांस भी हाथ से जाता रहा. यह सोच कर कि अब नवाबों की जगह बाबुओं-साहबों ने ले ली, थोड़े दिन साहब, फिर बाबू बनने की कोशिश भी की और कुछ नहीं कर पाया तो जैसे-तैसे कलम घिस कर गाडी खींचने लगा. कुछ दोंस्तों की खोपडी प्रकृति ने सीधी बनाई, सो वे इस लायक भी नहीं हुए और अब तक कुछ बनने की कोशिश में अपनी जिन्दगी बिगाड़े ही चले जा रहे हैं.
अगर मुझे यह जानकारी पहले मिल गई होती तो शायद मैंने अपने बेकार दोस्तो तक यह बात पहुँचा दी होती और वे अब तक अपनी कोशिशें शुरू कर चुके होते. खैर कोई बात नहीं. देर आयद दुरुस्त आयद या कहें जब तू जगे तभी सवेरा. इस जानकारी से मुझे अचानक ज्ञान हुआ है और एक रास्ता खुलता दिखा है. अब चूंकि राजनीति यानी शासन में पढे-लिखों का वर्चस्व नहीं रहा, शायद इसीलिए प्रशासन भी पढे-लिखों से खाली कराया जा रहा है. इसी अभियान के तहत जाती-धर्म-सम्प्रदाय से जो जगहें बच जा रही हैं उन्हें रिश्वत और शिफारिस से भरा जा रहा है. मंचों पर बैठ कर ऐसे-ऐसे लोग चार वेद-छः शास्त्र के ज्ञाता होने के दावे के साथ ऎसी-ऎसी बातें कर रहे हैं, जिन्हे एक वेद का ठीक-ठीक नाम भी नहीं बता सकते. थोक के भाव से पढे-लिखे लोग उनके चेले बन कर यह साबित करने में लगे हैं कि उन्होने पढ़-लिख कर गलती की है. नहीं क्या?
वैसे सच पूछिए तो पढना-लिखने अपने-आप में एक अपराध है. आख़िर जिस कवायद का कोई मतलब न हो, जानते हुए भी उसमें सालों तक अपना वक़्त और माँ-बाप का धन बरबाद करते चले जाना अगर अपराध नहीं तो और क्या है. खास तौर से ऐसे वक़्त में जबकि हम देख रहे हों कि पढ़-लिख कर चपरासी बनाना मुश्किल है और बिना पढे-लिखे मंत्री हुआ जा सकता है. यहाँ तक कि हाई कमान की कृपा हो जाए तो बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री भी हुआ जा सकता है. हमारे देश में वैसे यह बात पहले से ही मानी जाती है कि जो कुछ भी होता है सब साहब से होता है और बन्दे से कुछ भी नहीं हो सकता. इसके बाद भी कुछ मूर्ख हैं जो कुछ करने का भ्रम पाले हुए हैं और पढने-लिखने की बेवकूफी किए जा रहे हैं.
बहरहाल, अब उनके लिए भी खुशखबरी है. यह कि अपने उल्टा प्रदेश में पढाई-लिखाई का सीधा इस्तेमाल होने लगा है. यानी वहाँ अपराधियों में पढे-लिखे लोगों की तादाद बढ़ गई है. इससे इस संभावना को बल मिल है कि अब अपराध जगत में पढे-लिखे लोगों की पूछ बढेगी. उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार खुलेंगे. जब इस क्षेत्र में पढे लिखे लोग आएंगे तो जाहिर है, थोड़े दिनों में यह क्षेत्र योजनाबद्ध तरीक़े से काम करने लगेगा और तब असंगठित क्षेत्र के संगठित रुप लेने में देर नहीं लगेगी. कोई उदार सरकार आ गई तो हो सकता है कि इसे उद्योग का दर्जा भी मिल जाए. तब अपराध उद्योग को आसानी से लोन वगैरह भी मिलने लगेगा और अगर अमेरिका-इटली की कृपा हम पर ऐसे ही बनी रही तो आने वाले दिनों में इस उद्योग में ऍफ़ दीं आई का मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा. सोचिए तब इस सेक्टर में आने का कितना क्रेज होगा?
अभी वक़्त है. जो आना चाहें आ जाएँ. बाद में प्रवेश मुश्किल हो जाएगा. क्योंकि पहले आओ-पहले पाओ का सिद्धांत हर जगह लागू होता है. लिहाजा जिन्हे यह संकोच हो कि अब पढ़ लिख कर अपराध क्या करें, वे कृपया निम्न प्रश्नों का जवाब स्वयम को दे लें:
1. यह कि अगर वे अपराध नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?
2. जो लोग आज सीधे अपराध नहीं करके कहीँ नौकरी-व्यापार या कुछ और कर रहे हैं, क्या वे यह सब करके अपराध नहीं कर रहे हैं?
3. जो रिश्वत भी नहीं ले रहे, हेराफेरी भी नहीं कर रहे, गद्दारी और हरामखोरी भी नहीं कर रहे; क्या यह सब करके आप हरामखोरी नहीं कर रहे? खुद अपने और अपने परिवार के साथ?
4. क्या आप कुछ न करते हुए भी उनका सहयोग नहीं कर रहे, जो भांति-भांति के अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं?
5. क्या यह अपने आप में एक अपराध नहीं है?
मेरा ख़याल है कि अब तक आप समझ गए होंगे और अगर समझदार ही होंगे तो रास्ता भी तय कर लिया होगा. ज्यादा से ज्यादा यही तय करना बचा होगा कि किधर और अपराध उद्योग की किस कम्पनी में ज्वाईन करें. चिन्ता न करें. जल्दी ही कोई ब्लॉगर मित्र लोक सभा, विधान सभा या विधान परिषद की सूची भी भेजेंगे. नजर रखिएगा और चुन लीजिएगा. अगर उनमें से कोई पसंद न आए तो भी कोई बात नहीं. हम थानों से भी सूची मंगवा लेंगे. वैसे बेहतर यही होगा कि संसद या विधान सभा वाली सूची से ही अपना रास्ता चुन लीजिएगा. थानों में तो नौसिखियों के नाम ही रह जाते हैं.
"जो रिश्वत भी नहीं ले रहे, हेराफेरी भी नहीं कर रहे, गद्दारी और हरामखोरी भी नहीं कर रहे; क्या यह सब करके आप हरामखोरी नहीं कर रहे? खुद अपने और अपने परिवार के साथ?"
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हरामखोरी तो नहीं; पर कभी तुलना के मोड में आते हैं तो अवसाद अवश्य होता है कि फलाने जी के पास क्या मस्त सुविधायें हैं. मजे की बात है कि जिसके पास विटामिन-आर है उसके पास प्रशंसकों की भी कमी नहीं होती. जिसके पास नहीं उसे लल्लू की संज्ञा दी जाती है.
पोस्ट बहुत अच्छी है.
क्या बात है!! आप तो बाई-डिफॉल्ट तगड़ा व्यंग्य लिखते हैं, बड़ा अच्छा लिखते हैं। इस व्यंग्य में आम इंसान की जो पीड़ा की धारा है, वह भी दिल को कहीं अंदर से चीर कर रख देती है।
ReplyDeleteअनिल भाई शुक्रिया. वैसे इस व्यंग्य की प्रेरणा आपके पोस्ट से ही मिली थी.
ReplyDeleteAre bhaee sach kaha hai-
ReplyDeletekhuda ne husn nadaanon ko bakhsha zasr razeelon ko . Aklmandon ko rotee khushk aur halwa vakheelon ko.. Vinay ojha snehil
भैया हम तो ठहरे बिहारी लेकिन उल्टा पदेश के बारे में पढ़कर हमर खोपरिया भी उलट गयेल. कुल मिलाकर बहुत बढ़िया है. एकदम मस्त.
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