तीस-पैंतीस बार
एक सज्जन रास्ते पर चले जा रहे थे. बीच में कोई जरूरत पड़ने पर उन्हें एक दुकान पर रुकना पडा. वहाँ एक और सज्जन पहले से खडे थे. उनकी दाढी काफी बढी हुई थी. देखते ही राहगीर सज्जन ने मजाक उडाने के अंदाज में पूछा, 'क्यों भाई! आप दिन में कितनी बार दाढी बना लेते हैं?'
'ज्यादा नहीं! यही कोई तीस-पैंतीस बार.' दढियल सजान का जवाब था.
'अरे वाह! आप टू अनूठे हैं.'
'जी नहीं, में अनूठा-वनूठा नहीं. सिर्फ नाई हूँ.' उन्होने स्पष्ट किया.
'ज्यादा नहीं! यही कोई तीस-पैंतीस बार.' दढियल सजान का जवाब था.
'अरे वाह! आप टू अनूठे हैं.'
'जी नहीं, में अनूठा-वनूठा नहीं. सिर्फ नाई हूँ.' उन्होने स्पष्ट किया.
बहुत सुंदर व्यंग्य , कम शब्दों में बड़ी धारदार बातें , अच्छी लगी , बधाई !
ReplyDeleteहा! हा! हा! हा! हा! हा!
ReplyDeleteमुल्ला नसीरुद्दीन जैसी कहानी है. हा हा !!
ReplyDeleteमजा आया.
http://kakesh.com
हा हा , बहुत सही!!
ReplyDeleteहा! हा! हा! हा! हा! हा!
ReplyDeleteकई ब्लॉगर भी कुशल नाई टाइप हैं - दिन में ढ़ेरों पोस्ट ठेलते हैं! :-)
:)
ReplyDeleteधन्यवाद ज्ञान जी! हम टू दो-चार दिन में एक ही ठेल पाते हैं.
ReplyDelete'रात में अलाव की लकडियों के लिए,
ReplyDeleteजंगल में और नहीं लौटना चाहता,
लील न ले कहीं,
कोई पुराना ठंडा कुआं ।'-
मुझे ये इस कविता की केन्द्रीय पंक्तियाँ लगती हैं- वैसे अगर अपनी कविता संपादित करने की कला स्वयं आ जाए, तो आदमी 'शमशेर' हो जाता है.