हाय! पीले पड़े कामरेड
इष्ट देव सांकृत्यायन
कामरेड आज बाजार में मिले तो हमने आदतन उनको लाल सलाम ठोंका. लेकिन बदले में पहले वो जैसी गर्मजोशी के साथ सलाम का जवाब सलाम से दिया करते थे आज वैसा उन्होने बिलकुल नहीं किया. वैसे तो उनके बात-व्यवहार में बदलाव में कई रोज से महसूस कर रहा हूँ, लेकिन इतनी बड़ी तब्दीली होगी कि वे बस खीसे निपोर के जल्दी से आगे बढ़ लेंगे ये उम्मीद हमको नहीं थी. कहाँ तो एकदम खून से भी ज्यादा लाल रंग के हुआ करते थे कामरेड और कहाँ करीब पीले पड़ गए.
हालांकि एकदम पीले भी नहीं पड़े हैं. अभी वो जिस रंग में दिख रहे हैं, वो लाल और पीले के बीच का कोई रंग है. करीब-करीब नारंगी जैसा कुछ. हमने देखा है, अक्सर जब कामरेड लोग का लाल रंग छूटता है तो कुछ ऐसा ही रंग हो जाता है उन लोगों का. बचपन में हमारे आर्ट वाले मास्टर साहब बताए भी थे कि नारंगी कोई असली रंग नहीं होता है. वो जब लाल और पीला रंग को एक में मिला दिया जाता है तब कुछ ऐसा ही रंग बन जाता है. भगवा रंग कैसे बनता होगा ये तो में नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि शायद इसी में जब पीला रंग थोडा बढ़ जाता होगा तब वो भगवा बन जाता होगा.
मैंने बडे-बूढों से सुना भी है कि कामरेड लोग जब लाल रंग छोड़ते हैं तो लोग भगवे बूकने लगते हैं. हो न हो, इस बात में कुछ दम जरूर है. ये तो हमने खुद देखा है कि जो कामरेड लोग की हाँ में हाँ मिलाने से चूका, यानी आम को आम और इमली को कहने की ग़लती किया या उनके किसी टुच्चे से भी तर्क को काटने के लिए कोई दमदार तर्क लाया, उसे वो लोग तुरंत संघी घोषित करते हैं. मतलब तो यही हुआ न कि अपने बाद वह अगर किसी विचारधारा को मान्यता देते हैं तो वह संघ ही है. भले संघ का विचारधारा जैसी किसी चीज से कोई लेना-देना न हो. पर कामरेड लोग लाल और भगवे के अलावा बाकी किसी रंग को कोई मान्यता नहीं देते.
इसकी मुझे एक और वजह लगती है. एक तो यह कि कामरेड लोग अपने को सर्वहारा बताते हैं, जिसके पास हरने के लिए कुछ नहीं है और जीतने के लिए पूरी दुनिया. हम देखते हैं भगवाधारी बाबा लोग भी कुछ ऐसही बोलते हैं- ऐ मेरा क्या ले लेगा, क्या है मेरे पास. कामरेड लोग बम-बंदूक की बात करते हैं और बाबा लोग चिमटा-फरसा की. तेवर और तरीका दूनो का एक ही होता है. रही बात भाषा की तो अब कामरेड लोग भी तनी-तनी संस्कृत बोलने लगे हैं और बाबा लोग भी तनी-तनी अन्गरेंजी.
इसके बावजूद एक बात जो मेरी समझ में नहीं आ रही है वह है इस रंग परिवर्तन की रासायनिक प्रक्रिया. ये अलग बात है कि इधर दो-तीन साल से वो लोग अखबार-मैगजीन में थोडा छपने लगे थे, टीवी पर भी दिखने लगे थे. पर उनसे इनका कोई रेगुलर सम्पर्क नहीं था. अव्वल तो ये तवज्जो भी किसी और से सम्पर्क के नाते मिलने लगी थी. जिनके नाते इनको यह तवज्जो मिलने लगी थी उनका रंग है झक सफ़ेद. वैसे ये सच्चाई है कि उस सफ़ेद रंग से उनका समझौता शुरू से ही है, पर वह अन्दरखाते है. हालांकि ये जब-तब जाहिर भी होता रहा है. मसलन कमेटियों, परिषदों, अकादमियों या कमीशनों में मनोनयन और चुनावों, सरकारी खर्चे पर विदेश यात्राओं या फिर इमरजेंसी जैसे मौकों पर. फिर भी इतना खुल्लम-खुला खेल फरुक्खाबादी इन दोनों के बीच कभी नहीं चला.
हो न हो, ई मामला कुछ यूरोप-यूरोप है. इनकी इम्पोर्टेड विचारधारा और उनकी इम्पोर्टेड नेता. क्या गजब इत्तेफाक है! साझा सरकारों के अन्दर ऐसा तालमेल भी संजोग से ही मिलता है. अब देखिए सफेद्की पाल्टी के बापू की धोती सरे-बाजार उतार ली गई और जनता चेंचिया के रह गई, पर कामरेड लोग ऊंह तक नही किए. इसके पहले की जनता का भरोसा उनसे उठता एक और कमाल हुआ. पता नहीं क्या परमाणु-वर्माणु को लेकर भारत-अमेरिका के बीच समझौता होने लगा. बस अब अड़ गए कामरेड और खूब ठनी दो बांकों में. ये कहे समझौता हुआ तो हम सरकार गिरा देंगे. वे कहे हम समझौता करेंगे और सरकार गिरा लेंगे. ये तो बाद में पता चला कि असल में ये असली नहीं नूरा कुश्ती थी. देखिए न! आज तक न तो कोई गिरा और न कोई गिराया.
अब सबसे जोरदार मामला तो ऊ लग रहा है जो नंदीग्राम में हो रहा है। अस्सी के दशक में कौनो सिनेमा ऐसा आया होता तो लोग टूट ही पड़ते हाल पर. बिना कौनो प्रचार के हर शो हाउसफुल जाता जी! मार-धाड़-बम-बंदूक-सस्पेंस-थ्रिल अरे का नहीं है जी उसमें. अगर कौनो दूसरे पार्टी की गौरमेंट बंगाल में रही होती तो अब तक उसको सिपुर्दे-खाक तो कर ही दिया गया होता और वहाँ राष्ट्रपति महोदया का शासन भी लग गया होता. पर देखिए न! कामरेड लोगों का पुण्य प्रताप! है कोई माई का लाल जो उनकी लाल सरकार को हाथ लगा के देखे? लेकिन लगता है की अपने कामरेड सफ़ेद रंग के इतने सघन संग के बावजूद अभी इतनी सफेदी नहीं सोख पाए हैं की उनके खून का रंग सफ़ेद हो गया हो. पर क्या करें ये बात सबसे कह भी तो नहीं सकते हैं न! शायद इसीलिए .....
कामरेड आज बाजार में मिले तो हमने आदतन उनको लाल सलाम ठोंका. लेकिन बदले में पहले वो जैसी गर्मजोशी के साथ सलाम का जवाब सलाम से दिया करते थे आज वैसा उन्होने बिलकुल नहीं किया. वैसे तो उनके बात-व्यवहार में बदलाव में कई रोज से महसूस कर रहा हूँ, लेकिन इतनी बड़ी तब्दीली होगी कि वे बस खीसे निपोर के जल्दी से आगे बढ़ लेंगे ये उम्मीद हमको नहीं थी. कहाँ तो एकदम खून से भी ज्यादा लाल रंग के हुआ करते थे कामरेड और कहाँ करीब पीले पड़ गए.
हालांकि एकदम पीले भी नहीं पड़े हैं. अभी वो जिस रंग में दिख रहे हैं, वो लाल और पीले के बीच का कोई रंग है. करीब-करीब नारंगी जैसा कुछ. हमने देखा है, अक्सर जब कामरेड लोग का लाल रंग छूटता है तो कुछ ऐसा ही रंग हो जाता है उन लोगों का. बचपन में हमारे आर्ट वाले मास्टर साहब बताए भी थे कि नारंगी कोई असली रंग नहीं होता है. वो जब लाल और पीला रंग को एक में मिला दिया जाता है तब कुछ ऐसा ही रंग बन जाता है. भगवा रंग कैसे बनता होगा ये तो में नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि शायद इसी में जब पीला रंग थोडा बढ़ जाता होगा तब वो भगवा बन जाता होगा.
मैंने बडे-बूढों से सुना भी है कि कामरेड लोग जब लाल रंग छोड़ते हैं तो लोग भगवे बूकने लगते हैं. हो न हो, इस बात में कुछ दम जरूर है. ये तो हमने खुद देखा है कि जो कामरेड लोग की हाँ में हाँ मिलाने से चूका, यानी आम को आम और इमली को कहने की ग़लती किया या उनके किसी टुच्चे से भी तर्क को काटने के लिए कोई दमदार तर्क लाया, उसे वो लोग तुरंत संघी घोषित करते हैं. मतलब तो यही हुआ न कि अपने बाद वह अगर किसी विचारधारा को मान्यता देते हैं तो वह संघ ही है. भले संघ का विचारधारा जैसी किसी चीज से कोई लेना-देना न हो. पर कामरेड लोग लाल और भगवे के अलावा बाकी किसी रंग को कोई मान्यता नहीं देते.
इसकी मुझे एक और वजह लगती है. एक तो यह कि कामरेड लोग अपने को सर्वहारा बताते हैं, जिसके पास हरने के लिए कुछ नहीं है और जीतने के लिए पूरी दुनिया. हम देखते हैं भगवाधारी बाबा लोग भी कुछ ऐसही बोलते हैं- ऐ मेरा क्या ले लेगा, क्या है मेरे पास. कामरेड लोग बम-बंदूक की बात करते हैं और बाबा लोग चिमटा-फरसा की. तेवर और तरीका दूनो का एक ही होता है. रही बात भाषा की तो अब कामरेड लोग भी तनी-तनी संस्कृत बोलने लगे हैं और बाबा लोग भी तनी-तनी अन्गरेंजी.
इसके बावजूद एक बात जो मेरी समझ में नहीं आ रही है वह है इस रंग परिवर्तन की रासायनिक प्रक्रिया. ये अलग बात है कि इधर दो-तीन साल से वो लोग अखबार-मैगजीन में थोडा छपने लगे थे, टीवी पर भी दिखने लगे थे. पर उनसे इनका कोई रेगुलर सम्पर्क नहीं था. अव्वल तो ये तवज्जो भी किसी और से सम्पर्क के नाते मिलने लगी थी. जिनके नाते इनको यह तवज्जो मिलने लगी थी उनका रंग है झक सफ़ेद. वैसे ये सच्चाई है कि उस सफ़ेद रंग से उनका समझौता शुरू से ही है, पर वह अन्दरखाते है. हालांकि ये जब-तब जाहिर भी होता रहा है. मसलन कमेटियों, परिषदों, अकादमियों या कमीशनों में मनोनयन और चुनावों, सरकारी खर्चे पर विदेश यात्राओं या फिर इमरजेंसी जैसे मौकों पर. फिर भी इतना खुल्लम-खुला खेल फरुक्खाबादी इन दोनों के बीच कभी नहीं चला.
हो न हो, ई मामला कुछ यूरोप-यूरोप है. इनकी इम्पोर्टेड विचारधारा और उनकी इम्पोर्टेड नेता. क्या गजब इत्तेफाक है! साझा सरकारों के अन्दर ऐसा तालमेल भी संजोग से ही मिलता है. अब देखिए सफेद्की पाल्टी के बापू की धोती सरे-बाजार उतार ली गई और जनता चेंचिया के रह गई, पर कामरेड लोग ऊंह तक नही किए. इसके पहले की जनता का भरोसा उनसे उठता एक और कमाल हुआ. पता नहीं क्या परमाणु-वर्माणु को लेकर भारत-अमेरिका के बीच समझौता होने लगा. बस अब अड़ गए कामरेड और खूब ठनी दो बांकों में. ये कहे समझौता हुआ तो हम सरकार गिरा देंगे. वे कहे हम समझौता करेंगे और सरकार गिरा लेंगे. ये तो बाद में पता चला कि असल में ये असली नहीं नूरा कुश्ती थी. देखिए न! आज तक न तो कोई गिरा और न कोई गिराया.
अब सबसे जोरदार मामला तो ऊ लग रहा है जो नंदीग्राम में हो रहा है। अस्सी के दशक में कौनो सिनेमा ऐसा आया होता तो लोग टूट ही पड़ते हाल पर. बिना कौनो प्रचार के हर शो हाउसफुल जाता जी! मार-धाड़-बम-बंदूक-सस्पेंस-थ्रिल अरे का नहीं है जी उसमें. अगर कौनो दूसरे पार्टी की गौरमेंट बंगाल में रही होती तो अब तक उसको सिपुर्दे-खाक तो कर ही दिया गया होता और वहाँ राष्ट्रपति महोदया का शासन भी लग गया होता. पर देखिए न! कामरेड लोगों का पुण्य प्रताप! है कोई माई का लाल जो उनकी लाल सरकार को हाथ लगा के देखे? लेकिन लगता है की अपने कामरेड सफ़ेद रंग के इतने सघन संग के बावजूद अभी इतनी सफेदी नहीं सोख पाए हैं की उनके खून का रंग सफ़ेद हो गया हो. पर क्या करें ये बात सबसे कह भी तो नहीं सकते हैं न! शायद इसीलिए .....
हमें यह कामरेडी रंग शास्त्र बहुत जमा। जब रन्ग बदल ही रहा है तो बदरंग या रंगहीन भी कभी होंगे। उस रासायनिक प्रक्रिया का इंतजार है।
ReplyDeleteरंगों के बहाने वामपंथियों के जीवन चरित्र को पहली बार समझ रहा हूं। लेकिन, जिस तेजी से आप वामपंथियों का रंग बलता बता रहे हैं। तो, क्या वो गिरगिट हो गए हैं।
ReplyDeleteBaap re Baap kya baat hai. Huzur aab to maaf kijiye. Itana bhayanak vyang. Bas aab aur nahi.
ReplyDeleteज्ञान भइया
ReplyDeleteविज्ञान के आदमी तो आप हैं अब यह आप ही तय करिये वे बेचारे रंगहीन या बदरंग कब होंगे.
भाई हर्ष जी
ReplyDeleteमुझे ज्ञान भइया तो लगता है की गिरगिट को रंग बदलने वाली प्रेरणा भारतीय राजनेताओं से ही मिली होगी. और इस मामले में सब बराबर हैं.