....या कि पूरा देश गिरा?
इष्ट देव सांकृत्यायन
येद्दयुरप्पा ..... ओह! बड़ी कोशिश के बाद मैं ठीक-ठीक उच्चारण कर पाया हूँ इस नाम का. तीन दिन से दुहरा रहा हूँ इस नाम को, तब जाकर अभी-अभी सही-सही बोल सका हूँ. सही-सही बोल के मुझे बड़ी खुशी हो रही है. लगभग उतनी ही जितनी किसी बच्चे को होती है पहली बार अपने पैरों पर खडे हो जाने पर. जैसे बच्चा कई बार खडे होते-होते रह जाता है यानी लुढ़क जाता है वैसे में भी कई बार यह नाम बोलते-बोलते रह गया. खडे होने की भाषा में कहें तो लुढ़क गया.
-हालांकि अब मेरी यह कोशिश लुढ़क चुकी है. क्या कहा - क्यों? अरे भाई उनकी सरकार लुढ़क गई है इसलिए. और क्यों?
-फिर इतनी मेहनत ही क्यों की?
-अरे भाई वो तो मेरा फ़र्ज़ था. मुझे तो मेहनत करनी ही थी हर हाल में. पत्रकार हूँ, कहीं कोई पूछ पड़ता कि कर्नाटक का मुख्यमन्त्री कौन है तो मैं क्या जवाब देता? कोई नेता तो हूँ नहीं की आने-जाने वाली सात पुश्तों का इल्म से कोई मतलब न रहा हो तो भी वजीर-ए-तालीम बन जाऊं! अपनी जिन्दगी भले ही टैक्सों की चोरी और हेराफेरी में गुजारी हो, पर सरकार में मौका मिलते ही वजीर-ए-खारिजा बन जाऊं. ये सब सियासत में होता है, सहाफत और शराफत में नहीं हुआ करता.
-पर तुम्हारे इतना कोशिश करने का अब क्या फायदा हुआ? आखिर वो जो थे, जिनका तुम नाम रात रहे थे, वो मुख्य मंत्री तो बने नहीं?
हांजी वही तो! इसी बात का तो मुझे अफ़सोस है.
- अरे तो बन न जाने देते, तब रटते. तुमको ऎसी भी क्या जल्दी पडी थी.
- अरे भाई तुम वकीलों के साथ यही बड़ी गड़बड़ है. तुम्हारा हर काम घटना हो जाने बाद शुरू हो जाता है और फैसला पीडित व आरोपित पक्ष के मर जाने के बाद. लेकिन हमें तो पहले से पता रखना पड़ता है कि कब कहाँ क्या होने वाला है और कौन मरने वाला है. यहाँ तक कि पुलिस भी हमसे ऎसी ही उम्मीद रखती है. ऐसा न करें तो नौकरी चलनी मुश्किल हो जाए.
- तो क्या? तो अब भुगतो.
- क्या भुगतूं?
- यही मेहनत जाया करने का रोना रोओ. और क्या?
- अब यार, इतना तो अगर सोचते तो वे तो सरकार ही न बनाते.
- कौन?
- अरे वही जिन्होंने बनाया था, और कौन?
- अरे नाम तो बताओ!
- अब यार नाम-वाम लेने को मत कहो. बस ये समझ लो की जिनकी लुढ़क गई.
- अब यार इतनी मेहनत की है तो उसे कुछ तो सार्थक कर लो. चलो बोलो एक बार प्रेम से - येद्दयुरप्पा.
- हाँ चल यार, ठीक है. बोल दिया - येद्दयुरप्पा.
(और मैं एक बार फिर बच्चे की तरह खुश हो लिया)
- लेकिन यार एक बात बता!
- पूछ!
- क्या तुमको सचमुच लगता है कि उनकी सरकार गिर गई?
- तू भी यार वकील है या वकील की दुम?
- क्यों?
- अब यार जो बात हिन्दी फिल्मों की हीरोइनों के कपडों की तरह पारदर्शी है, उसमें भी तुम हुज्जत करते हो. सरे अखबार छाप चुके, रेडियो और टीवी वाले बोल चुके. अब भी तुमको शुबहा है कि सरकार गिरी या नहीं?
- नहीं, वो बात नहीं है.
- फिर?
- में असल में ये सोच रहा हूँ कि उनकी सरकार बनी ही कब थी जो गिर गई.
- क्यों तुम्हारे सामने बनी थी! पाच-छः दिन तक चली भी.
- अब यार जिसकी स्ट्रेंग्थ ही न हो उस सरकार का बनना क्या?
- अब यूं तो यार जो एमपी ही न हो उसका पीएम होना क्या?
- हाँ, ये बात भी ठीक है.
- लेकिन यार एक बात बता!
- बोल!
- मैं ये नहीं समझ पा रहा हूँ की गिरा कौन?
- क्या मतलब?
- मतलब ये कि येद्दयुरप्पा गिरे, या उनकी सरकार गिरी, या उनकी पार्टी गिरी, या उनका गठबंधन गिरा, या उनका भरोसा गिरा, या फिर उन पर से राज्य का भरोसा गिरा, या उनका चरित्र गिरा, या इनकी पार्टी के सदर गिरे ....... यार मैं बहुत कनफुजिया गया हूँ.
- क्यों पार्टी के सदर के गिरने का सुबह तुमको क्यों होने लगा भाई?
- अरे वो आज उन्होने कहा है न कि देवेगौडा सबसे बडे विश्वासघाती हैं!
- हाँ तो ?
- मैं सोच रहा हूँ उन्होने पार्टी के भीतर तो विश्वासघात नहीं किया, जबकि इनकी पार्टी में तो ऐसे लोग भरे पड़े हैं!
- हूँ! लेकिन यार एक बात है. तेरी मेहनत रंग लाएगी. देखना, जब येद्दयुरप्पा सचमुच मुख्यमन्त्री बनेंगे तब तुमको फिरसे उनका नाम नहीं रटना पड़ेगा.
- पर यार वो अब दुबारा बनेंगे कहाँ?
- नहीं-नहीं, पक्का है बन जाएंगे.
- वो कैसे?
- याद कर 1996 जब इनकी 13 दिन की सरकार बनी थी। तब एक बार गिरे. फिर 13 महीने सरकार बनी. फिर गिरी और फिर पूरे पांच साल तक चली.
- सो तो ठीक है. लेकिन तब ये वाले अध्यक्ष भी इनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं थे.
- लेकिन उससे क्या हुआ?
- हुआ न! याद करो जब वे यूं पी में भाजपा अध्यक्ष हुए तो वहाँ से भाजपा की छुट्टी हो गई. अब राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए हैं तो उनके लाल ने ही उनके दिए पार्टी टिकट पर हरे होने से मना कर दिया. अरे क्या मतलब है भाई? यही न कि ये या तो कांग्रेस के तर्ज पर चल रहे हैं. अभी टिकट प्रपोज कराएंगे, फिर इनकार करेंगे, फिर एक दिन धीरे से ले लेंगे. यानी पार्टी को धीरे-धीरे कर के अपने कार्यकर्ताओं और जनता की डिमांड पर एंड संस कम्पनी बना देंगे. या फिर यह कि बेटे को पता है की बाप क्या गुल खिलाएंगे. शायद इसीलिए वो किसी दुसरे पार्टी में अपना सियासी भविष्य खोजने की कोशिश में जुट गया है. वैसे जैसे कांग्रेस का भतीजा चला आया ...........
- ए भाई! तुम तो बड़ी खतरनाक बात कर रहे हो. बेगम ने मुझे सब्जी लेने भेजा था. देर हो गई तो मार भी पड़ेगी.
(वैधानिक सवाल : यह मेरी और मेरे और मेरे वकील मित्र सलाहू की आपसी और गोपनीय बातचीत है. कहीं इसे आपने सुन तो नहीं लिया?)
येद्दयुरप्पा ..... ओह! बड़ी कोशिश के बाद मैं ठीक-ठीक उच्चारण कर पाया हूँ इस नाम का. तीन दिन से दुहरा रहा हूँ इस नाम को, तब जाकर अभी-अभी सही-सही बोल सका हूँ. सही-सही बोल के मुझे बड़ी खुशी हो रही है. लगभग उतनी ही जितनी किसी बच्चे को होती है पहली बार अपने पैरों पर खडे हो जाने पर. जैसे बच्चा कई बार खडे होते-होते रह जाता है यानी लुढ़क जाता है वैसे में भी कई बार यह नाम बोलते-बोलते रह गया. खडे होने की भाषा में कहें तो लुढ़क गया.
-हालांकि अब मेरी यह कोशिश लुढ़क चुकी है. क्या कहा - क्यों? अरे भाई उनकी सरकार लुढ़क गई है इसलिए. और क्यों?
-फिर इतनी मेहनत ही क्यों की?
-अरे भाई वो तो मेरा फ़र्ज़ था. मुझे तो मेहनत करनी ही थी हर हाल में. पत्रकार हूँ, कहीं कोई पूछ पड़ता कि कर्नाटक का मुख्यमन्त्री कौन है तो मैं क्या जवाब देता? कोई नेता तो हूँ नहीं की आने-जाने वाली सात पुश्तों का इल्म से कोई मतलब न रहा हो तो भी वजीर-ए-तालीम बन जाऊं! अपनी जिन्दगी भले ही टैक्सों की चोरी और हेराफेरी में गुजारी हो, पर सरकार में मौका मिलते ही वजीर-ए-खारिजा बन जाऊं. ये सब सियासत में होता है, सहाफत और शराफत में नहीं हुआ करता.
-पर तुम्हारे इतना कोशिश करने का अब क्या फायदा हुआ? आखिर वो जो थे, जिनका तुम नाम रात रहे थे, वो मुख्य मंत्री तो बने नहीं?
हांजी वही तो! इसी बात का तो मुझे अफ़सोस है.
- अरे तो बन न जाने देते, तब रटते. तुमको ऎसी भी क्या जल्दी पडी थी.
- अरे भाई तुम वकीलों के साथ यही बड़ी गड़बड़ है. तुम्हारा हर काम घटना हो जाने बाद शुरू हो जाता है और फैसला पीडित व आरोपित पक्ष के मर जाने के बाद. लेकिन हमें तो पहले से पता रखना पड़ता है कि कब कहाँ क्या होने वाला है और कौन मरने वाला है. यहाँ तक कि पुलिस भी हमसे ऎसी ही उम्मीद रखती है. ऐसा न करें तो नौकरी चलनी मुश्किल हो जाए.
- तो क्या? तो अब भुगतो.
- क्या भुगतूं?
- यही मेहनत जाया करने का रोना रोओ. और क्या?
- अब यार, इतना तो अगर सोचते तो वे तो सरकार ही न बनाते.
- कौन?
- अरे वही जिन्होंने बनाया था, और कौन?
- अरे नाम तो बताओ!
- अब यार नाम-वाम लेने को मत कहो. बस ये समझ लो की जिनकी लुढ़क गई.
- अब यार इतनी मेहनत की है तो उसे कुछ तो सार्थक कर लो. चलो बोलो एक बार प्रेम से - येद्दयुरप्पा.
- हाँ चल यार, ठीक है. बोल दिया - येद्दयुरप्पा.
(और मैं एक बार फिर बच्चे की तरह खुश हो लिया)
- लेकिन यार एक बात बता!
- पूछ!
- क्या तुमको सचमुच लगता है कि उनकी सरकार गिर गई?
- तू भी यार वकील है या वकील की दुम?
- क्यों?
- अब यार जो बात हिन्दी फिल्मों की हीरोइनों के कपडों की तरह पारदर्शी है, उसमें भी तुम हुज्जत करते हो. सरे अखबार छाप चुके, रेडियो और टीवी वाले बोल चुके. अब भी तुमको शुबहा है कि सरकार गिरी या नहीं?
- नहीं, वो बात नहीं है.
- फिर?
- में असल में ये सोच रहा हूँ कि उनकी सरकार बनी ही कब थी जो गिर गई.
- क्यों तुम्हारे सामने बनी थी! पाच-छः दिन तक चली भी.
- अब यार जिसकी स्ट्रेंग्थ ही न हो उस सरकार का बनना क्या?
- अब यूं तो यार जो एमपी ही न हो उसका पीएम होना क्या?
- हाँ, ये बात भी ठीक है.
- लेकिन यार एक बात बता!
- बोल!
- मैं ये नहीं समझ पा रहा हूँ की गिरा कौन?
- क्या मतलब?
- मतलब ये कि येद्दयुरप्पा गिरे, या उनकी सरकार गिरी, या उनकी पार्टी गिरी, या उनका गठबंधन गिरा, या उनका भरोसा गिरा, या फिर उन पर से राज्य का भरोसा गिरा, या उनका चरित्र गिरा, या इनकी पार्टी के सदर गिरे ....... यार मैं बहुत कनफुजिया गया हूँ.
- क्यों पार्टी के सदर के गिरने का सुबह तुमको क्यों होने लगा भाई?
- अरे वो आज उन्होने कहा है न कि देवेगौडा सबसे बडे विश्वासघाती हैं!
- हाँ तो ?
- मैं सोच रहा हूँ उन्होने पार्टी के भीतर तो विश्वासघात नहीं किया, जबकि इनकी पार्टी में तो ऐसे लोग भरे पड़े हैं!
- हूँ! लेकिन यार एक बात है. तेरी मेहनत रंग लाएगी. देखना, जब येद्दयुरप्पा सचमुच मुख्यमन्त्री बनेंगे तब तुमको फिरसे उनका नाम नहीं रटना पड़ेगा.
- पर यार वो अब दुबारा बनेंगे कहाँ?
- नहीं-नहीं, पक्का है बन जाएंगे.
- वो कैसे?
- याद कर 1996 जब इनकी 13 दिन की सरकार बनी थी। तब एक बार गिरे. फिर 13 महीने सरकार बनी. फिर गिरी और फिर पूरे पांच साल तक चली.
- सो तो ठीक है. लेकिन तब ये वाले अध्यक्ष भी इनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं थे.
- लेकिन उससे क्या हुआ?
- हुआ न! याद करो जब वे यूं पी में भाजपा अध्यक्ष हुए तो वहाँ से भाजपा की छुट्टी हो गई. अब राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए हैं तो उनके लाल ने ही उनके दिए पार्टी टिकट पर हरे होने से मना कर दिया. अरे क्या मतलब है भाई? यही न कि ये या तो कांग्रेस के तर्ज पर चल रहे हैं. अभी टिकट प्रपोज कराएंगे, फिर इनकार करेंगे, फिर एक दिन धीरे से ले लेंगे. यानी पार्टी को धीरे-धीरे कर के अपने कार्यकर्ताओं और जनता की डिमांड पर एंड संस कम्पनी बना देंगे. या फिर यह कि बेटे को पता है की बाप क्या गुल खिलाएंगे. शायद इसीलिए वो किसी दुसरे पार्टी में अपना सियासी भविष्य खोजने की कोशिश में जुट गया है. वैसे जैसे कांग्रेस का भतीजा चला आया ...........
- ए भाई! तुम तो बड़ी खतरनाक बात कर रहे हो. बेगम ने मुझे सब्जी लेने भेजा था. देर हो गई तो मार भी पड़ेगी.
(वैधानिक सवाल : यह मेरी और मेरे और मेरे वकील मित्र सलाहू की आपसी और गोपनीय बातचीत है. कहीं इसे आपने सुन तो नहीं लिया?)
येदियुरप्पा हों या कोई और अप्पा या गौड़ा या स्वामी या सिंग। व्यंग लेखन के लिये आप और आपके सलाहू को कृतज्ञ होना चाहिये कि ये पोलिटिकल लोग जो उर्वर सामग्री उपलब्ध कराते हैं, उसका फर्टिलाइजर कण्टेण्ट बेस्टतम होता है।
ReplyDeleteऔर आप हैं कि छीलने से बाज नहीं आते। :-)
माफी चाहता हूँ ज्ञान भइया. आगे से मैं इनका कृतज्ञ भी रहा करूंगा.
ReplyDeleteरहीबात छीलने की तो भाई उससे तो मैं बाज नहीं आ पाऊंगा. क्योंकि वो तो मेरी आदत जो बन चुकी है. वो कहावत है न! घोडा घास से दोस्ती करेगा तो ....
बहुत बढिया रचना. अच्छा व्यंग्य है. धीरे-धीरे पुरा चिटठा जगत व्यंग्यमय होता जा रहा है. अगली कड़ी कौन?
ReplyDeleteअभी तय टू नहीं किया है, पर सोच रहा हूँ कि ज्ञान जी की सलाह पर अमल कर डालूँ.
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ReplyDeleteयही तो रंग है भइया राजनीति का। इधर सुनने में आ रहा है कि उमा भी गठजोड़ टाइप का कुछ करने वाली है। कब क्या हो जाएगा, जनता परेशान है। उसे कुछ पता ही नहीं चलता।
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