मुझको मालूम है अदालत की हकीकत ....
इष्ट देव सांकृत्यायन
अभी-अभी एक ब्लोग पर नजर गई. कोई गज़ब के मेहनती महापुरुष हैं. हाथ धोकर अदालत के पीछे पड़े हैं. ऐसे जैसे भारत की सारी राजनीतिक पार्टियाँ पड़ गई हैं धर्मनिरपेक्षता के पीछे. कोई हिन्दुओं का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. कोई मुसलमानों का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. कोई सिखों का तुष्टीकरण कर रहा है और इसे ही असली धर्मनिरपेक्षता बता रहा है. गजब. ऐसा लगता है की जब तक भी लोग दोनों की पूरी तरह ऎसी-तैसी ही नहीं कर डालेंगे, चैन नहीं लेंगे.
तो साहब ये साहब भी ऐसे ही अदालत के पीछे पड़ गए हैं. पहले मैंने इनकी एक खबर पढी कोर्ट के आदेश के बावजूद जमीन वापस लेने में लगे 35 साल. मैंने कहा अच्छा जी चलो, 35 साल बाद सही. बेचारे को मिल तो गई जमीन. यहाँ तो ऐसे लोगों के भी नाम-पते मालूम हैं जो मुक़दमे लड़ते-लड़ते और अदालत में जीत-जीत कर मर भी गए, पर हकीकत में जमीन न मिली तो नहीं ही मिली. उनकी इस खबर पर मुझे याद आती है अपने गाँव के दुर्गा काका की एक सीख. वह कहा करते थे कि जर-जोरू-जमीन सारे फसाद इनके ही चलते होते हैं और ये उनकी ही होती हैं जिनमें दम होता है. पुराने जमाने के दर्जा तीन तक पढे-लिखे थे. उनको राधेश्याम बाबा की रामायण बांचनी आती थी. उनका हवाला देकर कहते थे कि इन तीनो की चाल-चलन भैंस जैसी होती है, वो उसी की होती है जिसकी लाठी होती है.
कृपया इसे अन्यथा न लें. मेरी न सही, पर दुर्गा काका की भावनाओं की कद्र जरूर करें. असल में उनका सारा वक्त भैसों के बीच ही गुजरा और भैंसों के प्रति वह ऐसे समर्पित थे जैसे आज के कांग्रेसी नेहरू परिवार के प्रति भी नहीं होंगे. एक बार काकी ने अपने किसी सिरफिरे लहुरे देवर को बताया था कि जब वह नई-नई आईं तब काका ने उनके लहराते रेशमी बालों की तारीफ़ करते हुए कहा था - अरे ई त भुअरी भईंसिया के पोंछियो से सुन्नर बा. आपको इस बात पर हँसी तो आ सकती है, लेकिन आप भैंस के प्रति काका का समर्पण भाव देखिए. शायद इसीलिए उन्हें किसी भी काम के लिए लाठी से आगे किसी चीज की कोई जरूरत न पडी. अदालत-वदालत को वह तब तो कुछ न समझते थे, अब होते तो समझते कि नहीं, यह कहना असंभव ही है.
खैर, मुझे हैरत है कि जो बात दुर्गा काका इतनी आसानी से समझते थे हमारे ये ब्लॉगर मित्र इतने पढे-लिखे होकर भी यह बात समझ नहीं पाए. पत्रकार तो खैर होता ही नासमझ है. उसकी तो मजबूरी है मुर्दे से बाईट लाना और यह पूछना कि भाई मर कर आपको कैसा लग रहा है. पर ब्लॉगर की भी ऎसी कोई मजबूरी होती है, यह बात मेरी समझ में नहीं आती. आज कल कौन नहीं जानता कि कब्जे अदालती हुक्म से नहीं ताकत और पव्वे से मिलते हैं. ताकत और पव्वा कैसे आता है, यह सार्वजनिक रूप से बताया नहीं जा सकता. हो किसी में दम तो करवा न ले जजों से उनकी सम्पत्ति का खुलासा? पर नहीं साहब वह फिर भी माने. एक और खबर दे दी है सिक्के उछाल फैसला करने वाले जज. यह खबर अमेरिका की है. वहाँ के लिए हो नई बात तो हो, हमारे यहाँ तो जी सरकार ही सिक्के उछाल कर बनती है. और तो और कानून भी सिक्का-उछाल सिद्धांत ही पर काम करता है. पर क्या करिएगा, कुछ लोग जान ही नहीं पाते जन्नत की हकीकत. तो वे जिन्दगी भर नेकी करते और अपनी व अपने बाल-बच्चों की जिन्दगी दरिया में डालते रहते हैं. चचा गालिब ने ये हकीकत समझ ली थी. इसीलिए वे इन सब चक्करों में नहीं पड़े और वजीफाख्वार बन शाह को दुआएं देते रहे. में सोच रहा हूँ कि अगर वे आज होते तो क्या लिखते? यही न -
मुझको मालूम है अदालत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है.
तो साहब ये साहब भी ऐसे ही अदालत के पीछे पड़ गए हैं. पहले मैंने इनकी एक खबर पढी कोर्ट के आदेश के बावजूद जमीन वापस लेने में लगे 35 साल. मैंने कहा अच्छा जी चलो, 35 साल बाद सही. बेचारे को मिल तो गई जमीन. यहाँ तो ऐसे लोगों के भी नाम-पते मालूम हैं जो मुक़दमे लड़ते-लड़ते और अदालत में जीत-जीत कर मर भी गए, पर हकीकत में जमीन न मिली तो नहीं ही मिली. उनकी इस खबर पर मुझे याद आती है अपने गाँव के दुर्गा काका की एक सीख. वह कहा करते थे कि जर-जोरू-जमीन सारे फसाद इनके ही चलते होते हैं और ये उनकी ही होती हैं जिनमें दम होता है. पुराने जमाने के दर्जा तीन तक पढे-लिखे थे. उनको राधेश्याम बाबा की रामायण बांचनी आती थी. उनका हवाला देकर कहते थे कि इन तीनो की चाल-चलन भैंस जैसी होती है, वो उसी की होती है जिसकी लाठी होती है.
कृपया इसे अन्यथा न लें. मेरी न सही, पर दुर्गा काका की भावनाओं की कद्र जरूर करें. असल में उनका सारा वक्त भैसों के बीच ही गुजरा और भैंसों के प्रति वह ऐसे समर्पित थे जैसे आज के कांग्रेसी नेहरू परिवार के प्रति भी नहीं होंगे. एक बार काकी ने अपने किसी सिरफिरे लहुरे देवर को बताया था कि जब वह नई-नई आईं तब काका ने उनके लहराते रेशमी बालों की तारीफ़ करते हुए कहा था - अरे ई त भुअरी भईंसिया के पोंछियो से सुन्नर बा. आपको इस बात पर हँसी तो आ सकती है, लेकिन आप भैंस के प्रति काका का समर्पण भाव देखिए. शायद इसीलिए उन्हें किसी भी काम के लिए लाठी से आगे किसी चीज की कोई जरूरत न पडी. अदालत-वदालत को वह तब तो कुछ न समझते थे, अब होते तो समझते कि नहीं, यह कहना असंभव ही है.
खैर, मुझे हैरत है कि जो बात दुर्गा काका इतनी आसानी से समझते थे हमारे ये ब्लॉगर मित्र इतने पढे-लिखे होकर भी यह बात समझ नहीं पाए. पत्रकार तो खैर होता ही नासमझ है. उसकी तो मजबूरी है मुर्दे से बाईट लाना और यह पूछना कि भाई मर कर आपको कैसा लग रहा है. पर ब्लॉगर की भी ऎसी कोई मजबूरी होती है, यह बात मेरी समझ में नहीं आती. आज कल कौन नहीं जानता कि कब्जे अदालती हुक्म से नहीं ताकत और पव्वे से मिलते हैं. ताकत और पव्वा कैसे आता है, यह सार्वजनिक रूप से बताया नहीं जा सकता. हो किसी में दम तो करवा न ले जजों से उनकी सम्पत्ति का खुलासा? पर नहीं साहब वह फिर भी माने. एक और खबर दे दी है सिक्के उछाल फैसला करने वाले जज. यह खबर अमेरिका की है. वहाँ के लिए हो नई बात तो हो, हमारे यहाँ तो जी सरकार ही सिक्के उछाल कर बनती है. और तो और कानून भी सिक्का-उछाल सिद्धांत ही पर काम करता है. पर क्या करिएगा, कुछ लोग जान ही नहीं पाते जन्नत की हकीकत. तो वे जिन्दगी भर नेकी करते और अपनी व अपने बाल-बच्चों की जिन्दगी दरिया में डालते रहते हैं. चचा गालिब ने ये हकीकत समझ ली थी. इसीलिए वे इन सब चक्करों में नहीं पड़े और वजीफाख्वार बन शाह को दुआएं देते रहे. में सोच रहा हूँ कि अगर वे आज होते तो क्या लिखते? यही न -
मुझको मालूम है अदालत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है.
सही कहा है आपने. मैं सहमत हूँ.
ReplyDeleteबाप रे! एतना बढ़िया लिखबै त हमार चरित्र-फरित्र के पढ़े! :-)
ReplyDeletewah bhai sahib kya baat hai. Ab aap vyang lekar akhbaar me aayen.
ReplyDeleteसही सही।
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