इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौडा
इष्ट देव सांकृत्यायन
पिछ्ले दिनो मैने त्रिलोचन जी से सम्बन्धित एक संस्मरण लिखा था. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए भाई अनूप शुक्ल यानी फुरसतिया महराज ने और भाई दिलीप मंडल ने आदेश दिया था कि इस विधा के बारे मे मै विस्तार से बताऊँ और अपने कुछ सानेट भी पढवाऊ. मेरे सानेट के मामले मे तो अभी आपको पहले से इयत्ता पर पोस्टेड सानेटो से ही काम चलाना पडेगा, सानेट का संक्षिप्त इतिहास मै आज ही पोस्ट कर रहा हूँ. हाँ, कविता को मै चूँकि छन्दो और रूपो के आधार पर बांटने के पक्ष मे नही हूँ, क्योंकि मै मानता हूँ कि काव्यरूपो के इस झगडे से कविता का कथ्य पीछे छूट जाता है; इसलिए मेरे सॉनेट कविता वाले खांचे मे ही दर्ज है.
वैसे यह लेख आज ही दैनिक जागरण के साहित्य परिशिष्ट पुनर्नवा मे प्रकाशित हुआ है और वही लेख दैनिक जागरण के ही मार्फत याहू इंडिया ने भी लिया है. भाई मान्धाता जी ने भी यह लेख अपने ब्लाग पर याहू के हवाले से लिया है. निश्चित रूप से भाई अनूप जी इसे पढ भी चुके होंगे, पर अन्य साथी भी इस विधा के इतिहास-भूगोल से सुपरिचित हो सके इस इरादे से मै यह लेख यहाँ दे रहा हूँ.
पहली ही मुलाकात में त्रिलोचन शास्त्री से जैसी आत्मीयता हुई, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता. कवि त्रिलोचन को तो मैं बहुत पहले से जानता था और उनकी रचनाधर्मिता का मैं कायल भी था, लेकिन व्यक्ति त्रिलोचन से मेरी मुलाकात 1991 में हुई. उनकी सहजता और विद्वत्ता ने मुझे जिस तरह प्रभावित किया, उसने उनके कवि के प्रति मेरे मन में सम्मान और बढ़ा दिया. ऐसे रचनाकार अब कहां दिखते है, जो लेखन और व्यवहार दोनों में एक जैसे ही हों! पर त्रिलोचन में यह बात थी और व्यक्तित्व की यह सहजता ही उनके रचनाकार को और बड़ा बनाती है. अंग्रेजी का मुहावरा 'लार्जर दैन लाइफ' बिलकुल सकारात्मक अर्थ में उन पर लागू होता है.
अंग्रेजी का और नकारात्मक अर्थो में इस्तेमाल किए जाने के बावजूद इस मुहावरे का सकारात्मक प्रयोग करते हुए संकोच मुझे दो कारणों से नहीं हो रहा है. पहला तो यह हिंदी के प्रति पूरी तरह समर्पित होते हुए भी त्रिलोचन को अंग्रेजी से कोई गुरेज नहीं था. अंग्रेजी का छंद सॉनेट हिंदी में त्रिलोचन का पर्याय बन गया, इससे बड़ा प्रमाण इसके लिए और क्या चाहिए? दूसरा यह कि शब्दों के साथ खेलना मैंने त्रिलोचन से ही सीखा. वह कैसे किसी शब्द को उसके रूढ़ अर्थ के तंग दायरे से निकाल कर एकदम नए अर्थ में सामने प्रस्तुत कर दें, इसका अंदाजा कोई लगा नहीं सकता था. भाषा और भाव पर उनका जैसा अधिकार था उसकी वजह उनकी सहजता और अपनी सोच के प्रति निष्ठा ही थी.
अपने छोटों के प्रति सहज स्नेह का जो निर्झर उनके व्यक्तित्व से निरंतर झरता था, वह किसी को भी भिगो देने के लिए काफी था. लेकिन मेरी और उनकी आत्मीयता का एक और कारण था. वह था सॉनेट. वैसे हिंदी में सॉनेट छंद का प्रयोग करने वाले त्रिलोचन कोई अकेले कवि नहीं है. उनके पहले जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महाप्राण निराला भी इस छंद का प्रयोग कर चुके थे. उनके बाद जयप्रकाश बागी ने इसका प्रयोग किया. हो सकता है कि इसका प्रयोग कुछ और कवियों ने भी किया हो, पर इटैलियन मूल के इस छंद को आज हिंदी में सिर्फ त्रिलोचन के नाते ही जाना जाता है. ऐसे ही जैसे इटली में बारहवीं शताब्दी में शुरू हुए इस छंद को चौदहवीं सदी के कवि पेट्रार्क के नाते जाना जाता है.
ऐसा शायद इसलिए है कि पेट्रार्क की तरह त्रिलोचन भी ताउम्र सफर में रहे। वैसे ही जैसे यह छंद इटैलियन से अंग्रेजी, अंग्रेजी से हिंदी और फिर रूसी, जर्मन, डच, कैनेडियन, ब्राजीलियन, फ्रेंच, पोलिश, पुर्तगी़ज, स्पैनिश, स्वीडिश .. और जाने कितनी ही भाषाओं के रथ की सवारी करता दुनिया भर के सफर में है. चौदह पंक्तियों के इस छंद से त्रिलोचन का बहुत गहरा लगाव था और यह अकारण नहीं था. कारण उन्होंने मुझे पहली ही मुलाकात में बताया था, 'देखिए, यह छंद जल्दी सधता नहीं है, लेकिन जब सध जाता है तो बहता है और बहा ले जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आप जो कहना चाहते है, वही कहते है और पढ़ने या सुनने वाला ठीक-ठीक वही समझता भी है.' मतलब यह कि दो अर्थो के चमत्कार पैदा करने के कायल अलंकारप्रेमी कवियों के लिए यह छंद मुफीद नहीं है. ठीक-ठीक वही अर्थ कोई कैसे ग्रहण करता है? इस सवाल पर शास्त्री जी का जवाब था, 'हिंदी में बहुत लोगों को भ्रम है कि शब्दों के पंक्चुएशन से अर्थ केवल अंग्रेजी में बदलता है. हिंदी में क्रिया-संज्ञा को इधर-उधर कर देने से कोई फर्क नहीं पड़ता है. वास्तव में ऐसा है नहीं. हिंदी में तो केवल बलाघात से, बोलने के टोन से ही वाक्यों के अर्थ बदल जाते है. फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि यहां शब्दों के पंक्चुएशन से अर्थ न बदले?'
त्रिलोचन की कोशिश यह थी कि वह जो कहे वही समझा जाए. यही वजह है जो-
इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा
सॉनेट सॉनेट सॉनेट सॉनेट क्या कर डाला
यह उसने भी अजब तमाशा. मन की माला
गले डाल ली. इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा
अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आयें जैसे किला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को.
गेय रहे एकान्वित हो. ..
और इसे आप नॉर्सिसिज्म नहीं कह सकते है। वह इस विधा में अपने अवदान को लेकर किसी खुशफहमी में नहीं है। साफ कहते है-
....उसने तो झूठे
ठाट-बाट बांधे है. चीज किराए की है.
फिर चीज है किसकी, यह जानने कहीं और नहीं जाना है.
अगली ही पंक्ति में वह अपने पूर्ववर्तियों को पूरे सम्मान के साथ याद करते है-
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्डस्वर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वरधारा है. उसने नई चीज क्या दी है!
ऐसा भी नहीं है कि वह आत्मश्लाघा से मुक्त है तो आत्मबोध से भी मुक्त हों। अपने रचनात्मक अवदान के प्रति भी वह पूरी तरह सजग है और यह बात वह पूरी विनम्रता से कहते भी हैं-
सॉनेट से मजाक भी उसने खूब किया है,
जहां तहां कुछ रंग व्यंग का छिड़क दिया है.
कविता की भाषा के साथ भी जो प्रयोग उन्होंने किया, वह बहुत सचेत ढंग से किया है. गद्य के व्याकरण में उन्होंने कविता लिखी, जिसमें लय उत्पन्न करना छंदमुक्त नई कविता लिखने वालों के लिए भी बहुत मुश्किल है. लेकिन त्रिलोचन छंद और व्याकरण के अनुशासन में भी लय का जो प्रवाह देते है, वह दुर्लभ है. शायद यह वही 'अर्थ की लय' है जिसके लिए अज्ञेय जी आह्वान किया करते थे.
यह अलग बात है कि आज हम उन्हे एक छंद सॉनेट के लिए याद कर रहे है, पर कविता उनके लिए छंद-अलंकार का चमत्कार पैदा करने वाली मशीन नहीं है. कविता उनके लिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का माध्यम है. ठीक-ठीक वही बात जो वह सोचते है. वह अपने समय और समाज के प्रति पूरे सचेत है-
देख रहा हूं व्यक्ति, समाज, राष्ट्र की घातें
एक दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें
संधि शांति की..
वह यह भी जानते है जो संघर्ष वह कर रहे है वह उनकी पीढ़ी में पूरा होने वाला नहीं है.इसमें कई पीढि़यां खपेंगी, फिर उनके सपनों का समाज बन पाएगा.कहते है-
धर्म विनिर्मित अंधकार से लड़ते लड़ते
आगामी मनुष्य; तुम तक मेरे स्वर बढ़ते.
भाई इष्टदेव जी, आपकी ये पोस्ट देखने के बाद मैकाले पुराण से जुड़ी अपनी पोस्ट ऊपर डालने का दिल नही करता। त्रिलोचन जी की बात हो रही हो, तो मैकाले थोड़ा इंतजार कर ही सकते हैं। करना चाहिए। सॉनेट के बारे में ज्ञान अर्जित करने की कोशिश करता हूं।
ReplyDeleteकविता और छन्दों के बारे में जानकारी के अभाव का मलाल यह पोस्ट पढ़ने पर हुआ। कितना कुछ अच्छा है जानने समझने को।
ReplyDeleteआपका लेखन उत्तरोत्तर बहुत भाता जा रहा है।
भाई दिलीप जी
ReplyDeleteबुड्ढा की चर्चा हो रही हो तोता अन्ग्य्लिमाल अप्रासंगिक थोड़े ही हो जाता है. बल्कि उसकी चर्चा की जरुरत और बढ़ जाती है. बेहतर होगा की मैकाले पुरान आप जारी रखें. मैं ख़ुद इस विषय पर गंभीरता पूर्वक सोच रहा हूँ, लेकिन इतिहास की बहुत पक्की जानकारी न होने की वजह से अभी यह मसला छेड़ नहीं रहा हूँ. थोड़ा कच्चा माल आपसे जुटा लूँ, फ़िर मैं भी जल्द ही हथियार लेकर मैदान में कूदूंगा.
ज्ञान भइया
धन्यवाद.
अच्छा है। मेरे यहां अमर उजाला अखबार आता है। संयोग यह कि कल जागरण आया और मैंने इस लेख को कल ही पढ़ा था। आज दुबारा पढ़कर और अच्छा लगा। शुक्रिया इसे यहां भी पोस्ट करने के लिये।
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