विस्फोट : बौद्धिक विमर्श में प्रामाणिकता और शुचिता की मिसाल
कृपया इसे किसी हार-जीत के रूप में न देखें। सवाल बौद्धिक विमर्श में प्रामाणिकता और शुचिता बनाए रखने का है। ये किसी भी हार-जीत से बड़ी चीज है। हमें ये कामना करनी चाहिए कि जो प्रामाणिक नहीं होगा, वो नष्ट हो जाएगा। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा था - इससे मैकाले के बारे में कुछ बदल नहीं जाएगा। लेकिन न्याय की इमारत सच की बुनियाद पर खड़ी हो तो बेहतर। - दिलीप मंडल
संजय तिवारी चाहते तो ऐसा नहीं भी कर सकते थे। और वो ऐसा नहीं करते तो कोई उनका क्या बिगाड़ लेता? लेकिन संजय तिवारी ने वो किया जिसका मौजूदा दौर में घनघोर अभाव है। बात इतनी-सी थी कि मैंने रिजेक्टमाल, इयत्ता और कबाड़खाना पर एक पोस्ट डाली थी। पोस्ट तो अपने चंदू भाई के एक लेख की प्रतिक्रिया में थी। लेकिन साथ में इस बात का जिक्र था कि कुछ जगहों पर (बतंगड़, विस्फोट और आजादी एक्सप्रेस का मैंने जिक्र किया था, वैसे ये बात है कई और जगहों पर भी) मैकाले को जिस तरह से उद्धृत किया जा रहा है उसके प्रमाण नही मिल रहे हैं। मैंने सबसे से ये जानना चाहा था कि क्या किसी के पास उस स्रोत की जानकारी है, जहां से मैकाले को इस तरह कोट किया गया है। मैकाले का वह (सही/गलत) कोट इस तरह है:
लार्ड मैकाले की योजना
मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूं और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया जो चोर हो, भिखारी हो. इस देश में मैंने इतनी धन-दौलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पायेंगे. जब तक उसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो है उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत.और इसलिए मैं प्रस्ताव रखता हूं कि हम उसकी पुरातन शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को बदल डालें. यदि भारतीय सोचने लगे कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी में है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं.
(2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में मैकाले द्वारा प्रस्तुत प्रारूप)
इस पर पिछले दिनों संजय तिवारी का ये मेल आया। इसे सार्वजनिक करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इसमें हम सबके सीखने के लिए कुछ है। संजय जी ने क्या लिखा है, आप भी पढ़ें:
मैकाले के कथन पर आपका सवाल जायज है. फिलहाल यह टिप्पणी के माध्यम से मेरे पास पहुंचा है और मैं आपको भेज रहा हूं. और हां जब तक प्रमाणित नहीं हो जाता मैं वह वाक्य हटा रहा हूं. गंभीरता से ऐतिहासिक साक्ष्य देखने के लिए धन्यवाद.
फिर भी क्या मैकाले की ऐसी ही कुछ योजना नहीं थी?
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संजय जी, बौद्धिक साहस और प्रामाणिकता के प्रति आपका आग्रह अनुकरणीय है। आप बंधुओं में अगर कोई भी मुझे मैकाले के उक्त कथन का स्रोत/प्रमाण भेजता है तो मैं उसे पोस्ट के रूप में छापूंगा। यहां एक बात और। मैकाले का लगभग सारा लेखन वेब पर मौजूद है। फरवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा पर पेश किया गया मैकाले का प्रारूप भी नेट पर है। मैकाले के भाषणों, लेखन और पत्र व्यवहार के ढेर सारे पन्नों को पढ़ने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैकाले भारत का किसी भी रूप में प्रशंसक था। भारतीय लोगों के चारित्रिक आदर्श की वो प्रशंसा करेगा, ये मान पाना आसान नहीं है। यूरोपीय नस्ल की श्रेष्ठता में आकंठ डूबे मैकाले को भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करने का श्रेय देना अनुचित है। इस बारे में फिर कभी।
संजय तिवारी चाहते तो ऐसा नहीं भी कर सकते थे। और वो ऐसा नहीं करते तो कोई उनका क्या बिगाड़ लेता? लेकिन संजय तिवारी ने वो किया जिसका मौजूदा दौर में घनघोर अभाव है। बात इतनी-सी थी कि मैंने रिजेक्टमाल, इयत्ता और कबाड़खाना पर एक पोस्ट डाली थी। पोस्ट तो अपने चंदू भाई के एक लेख की प्रतिक्रिया में थी। लेकिन साथ में इस बात का जिक्र था कि कुछ जगहों पर (बतंगड़, विस्फोट और आजादी एक्सप्रेस का मैंने जिक्र किया था, वैसे ये बात है कई और जगहों पर भी) मैकाले को जिस तरह से उद्धृत किया जा रहा है उसके प्रमाण नही मिल रहे हैं। मैंने सबसे से ये जानना चाहा था कि क्या किसी के पास उस स्रोत की जानकारी है, जहां से मैकाले को इस तरह कोट किया गया है। मैकाले का वह (सही/गलत) कोट इस तरह है:
लार्ड मैकाले की योजना
मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूं और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया जो चोर हो, भिखारी हो. इस देश में मैंने इतनी धन-दौलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पायेंगे. जब तक उसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो है उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत.और इसलिए मैं प्रस्ताव रखता हूं कि हम उसकी पुरातन शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को बदल डालें. यदि भारतीय सोचने लगे कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी में है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं.
(2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में मैकाले द्वारा प्रस्तुत प्रारूप)
इस पर पिछले दिनों संजय तिवारी का ये मेल आया। इसे सार्वजनिक करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इसमें हम सबके सीखने के लिए कुछ है। संजय जी ने क्या लिखा है, आप भी पढ़ें:
मैकाले के कथन पर आपका सवाल जायज है. फिलहाल यह टिप्पणी के माध्यम से मेरे पास पहुंचा है और मैं आपको भेज रहा हूं. और हां जब तक प्रमाणित नहीं हो जाता मैं वह वाक्य हटा रहा हूं. गंभीरता से ऐतिहासिक साक्ष्य देखने के लिए धन्यवाद.
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