ठेला
प्रयाग विश्वविद्यालय शहर के उत्तरी छोर पर पसरा हुआ है.यहाँ से भी उत्तर बढे तो एक गाँव मिलता है -चांदपुर सलोरी, शहर से बिल्कुल जुड़ा हुआ.पहले तो यह गाँव ही था लेकिन अब सुना है नगर-निगम इस के उस पार तक पसर गया है. अब से करीब बीस साल पहले जब मैं पहली बार प्रयाग आकर इसी गाँव में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगा था तो वहाँ की आबो-हवा बिल्कुल गाँव जैसी ही मिली थी .लेकिन महानगर से जुड़े होने के कारण उस समय भी वहाँ एक डिग्री कॉलेज, लड़के और लड़कियों के लिए दो अलग इंटर कॉलेज और अनेक शिशु मन्दिर खुल चुके थे. बैंक भी था और पक्के मकानों की छतों पर स्टार टीवी की छतरियाँ भी उग आई थी. सब कुछ शहर से मेल खाता हुआ. इलाहाबाद में अपना कॅरिअर सवारने आये असंख्य विद्यार्थी इस गाँव में तब भी रहते थे. किरायेदारी का धंधा यहाँ खूब फल- फूल रहा था. इसी गाँव के नुक्कड़ पर चाय -पानी, शाक-सब्जी और परचून की दुकानों की कतार से अलग एक निराला विक्रेता था- ‘कंठी-बजवा’. लंबे छरहरे बदन पर साठ से उपर की उमर बताने वाली झुर्रियां, पतली, नुकीली सफ़ेद मूछे, लाल डोरेदार आँखों के नीचे झूलती ढीली चमड़ी और गंजे सिर के किनारों पर बचे सफ़ेद बाल उसकी अपरिमित सक्रियता को रोमांचक बना देते थे. चारखाने की मैल में चिमटी उतंग लुंगी, टेरीकाट की मटमैली सफ़ेद कमीज और कंधे पर लटका काला पड़ चुका सफ़ेद गमछा जो धूप में उसके सिर पर बने चाँद को ढक लेता था. हमेशा यही बाना...
डिग्री कॉलेज के गेट से लेकर गाँव के नुक्कड़ तक उसका ठेला उसकी सुपरिचित और विशिष्ट आवाज़ के साथ कहीं भी मिल जाता था. लड़के हमेशा उसे घेरे रहते थे. कुछ खरीदारी के लिए तो कुछ सिर्फ़ उसकी बे सिर-पैर की हंसोड़ बातों का मज़ा लेने के लिए. ग्रामीण शैली के मुहावरों व लोकोक्तियों से अटी उसकी धारा प्रवाह भाषा का नाम हम कभी तय नहीं कर पाए. हाँ, बीच-बीच में एक शब्द नगीने की तरह जड़ा हुआ हमारे कान से टकरा जाता था –‘कंठी-बजवा’. तभी तो हम उसे इसी नाम से जानने लगे थे. यह या तो उसकी कहानियो का कोई नायक होगा या उसका ही कोई प्रतिनिधि ..जो हर आने -जाने वाले को मानो हाथ पकड़ कर खींच लाता था. इलाहाबाद के नामी अमरूद हों या छील -काट कर बेंचे जाने वाले कच्चे कटहल की सब्जी, कच्ची अमियाँ और नीबू हो या पके दशहरी आम और केले. बदले सामान के साथ न तो उसका स्थान बदला, न ही स्टाइल और न ही खरीदारों की जमघट ....
...उसकी उम्र भी शायद रुक गई थी .चार -चार बेटियों की शादी ,बेटों की पढ़ाई और सड़क के किनारे पक्का मकान सब कुछ उसने इसी ठेले से कर लिया ."लड़के तो जवान हो गए ,अब यह पसीना क्यों बहाते हो दादा?”, पूछने पर उसने कैफियत दी- "यही तो हमरी ‘लच्छमी’ है बाबूजी !"
डिग्री कॉलेज के गेट से लेकर गाँव के नुक्कड़ तक उसका ठेला उसकी सुपरिचित और विशिष्ट आवाज़ के साथ कहीं भी मिल जाता था. लड़के हमेशा उसे घेरे रहते थे. कुछ खरीदारी के लिए तो कुछ सिर्फ़ उसकी बे सिर-पैर की हंसोड़ बातों का मज़ा लेने के लिए. ग्रामीण शैली के मुहावरों व लोकोक्तियों से अटी उसकी धारा प्रवाह भाषा का नाम हम कभी तय नहीं कर पाए. हाँ, बीच-बीच में एक शब्द नगीने की तरह जड़ा हुआ हमारे कान से टकरा जाता था –‘कंठी-बजवा’. तभी तो हम उसे इसी नाम से जानने लगे थे. यह या तो उसकी कहानियो का कोई नायक होगा या उसका ही कोई प्रतिनिधि ..जो हर आने -जाने वाले को मानो हाथ पकड़ कर खींच लाता था. इलाहाबाद के नामी अमरूद हों या छील -काट कर बेंचे जाने वाले कच्चे कटहल की सब्जी, कच्ची अमियाँ और नीबू हो या पके दशहरी आम और केले. बदले सामान के साथ न तो उसका स्थान बदला, न ही स्टाइल और न ही खरीदारों की जमघट ....
...उसकी उम्र भी शायद रुक गई थी .चार -चार बेटियों की शादी ,बेटों की पढ़ाई और सड़क के किनारे पक्का मकान सब कुछ उसने इसी ठेले से कर लिया ."लड़के तो जवान हो गए ,अब यह पसीना क्यों बहाते हो दादा?”, पूछने पर उसने कैफियत दी- "यही तो हमरी ‘लच्छमी’ है बाबूजी !"
सुन्दर लेखन...सही ही कहा "यही तो हमरी ‘लच्छमी’ है बाबूजी !"
ReplyDeleteकंठी-बजवा ने बात तो ठीक कही. हम उनकी इस स्पिरिट की दाद देते हैं.
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