नए स्वर में आज की हिंदी कविता
हिन्दी जगत के प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह किताबघर की ओर से आई कवि ने कहा - कविता श्रृंखला की यह समीक्षा युवा रचनाधर्मी विज्ञान भूषण ने की है इकट्ठे दस किताबों पर यह समीक्षात्मक टिप्पणी लम्बी ज़रूर है , पर मेरा ख़याल है की इससे सरासर तौर पर भी होकर गुज़रना आपके लिए भी एक दिलचस्प अनुभव होगा :
हमारी भौतिकतावादी जीवन”ौली और आडंबरों के कपाट में स्वयं को संकुचित रखने की मनोवृत्ति ने हमारी संवेदनाओं को मिटाने का ऐसा कुचक्र रचा है जिससे बचकर निकलना लगभग असंभव सा दिखता है। आज के कठिन समय में आदमी के भीतर का ‘ आदमीपन’ ही कहीं गुम होता जा रहा।है. इससे भी बड़ी हतप्रभ करने वाली बात यह है कि हम अपने भीतर लगातार पिघलते जा रहे आदमीयत को मिटते हुए देख तो रहें हैं पर उसे बचाने के लिए कोई भी सार्थक प्रयास नहीं करते हैं या यद ऐसा कुछ करना ही नहीं चाहते हैं।ऐसे प्रतिकूल समय के ताप से झुलसते आम आदमी की हता”ा होती जा रही जिजीवि’ाा को संरक्षित रखते हुए संघर्’ा में बने रहने की क्षमता सिर्फ साहित्य ही प्रदान कर सकता है। कुछ समय पूर्व किताबघर प्रका”ान ने वर्तमान दौर के कुछ महत्वपूर्ण कवियों की चुनी हुई कविताओं की श्रंखला ‘ कवि ने कहा ’ का प्रका”ान कर इस क्षेत्र में फैल रही निस्तब्धता को दूर करने का सफल प्रयास किया है। प्रस्तुत काव्य श्रंखला के प्रका”ाक के द्वारा चयनित दस रचनाकारों में सम्मिलित एकमात्र कवयित्री ‘ अनामिका ’ का कवि तत्व “ो’ा नौ पुरु’ा कवियों के इस संगमन में भी सर्वथा अलग और वि”िा’ट नजर आता है। कहानियों , उपन्यासों , लेखों और आलोचनाओं के माध्यम से पिछले डेढ़ द”ाक से हिंदी साहित्य में नारी विमर्”ा के स्वर को तीक्ष्णता प्रदान करने वाली रचनाकारों में अनामिका का नाम अगzणी माना जा सकता है। गद्यात्मक रचनाओं में उनकी सघन वैचारिकता और प्रभावी भा’ाा “ौली से पूर्व परिचित पाठकवर्ग, प्रस्तुत काव्य संगzह की कविताओं के माध्यम से उनमें समाई गहरी और बहुअर्थी काव्यात्मकता को देखकर आ”चर्यचकित हो उठता है। बिहार की पृ’ठभूमि से ताल्लुक रखने वाली कवयित्री के भीतरी मन में अव“ाो’िात गँवई और कस्बाई संस्कृतियों का मिश्रित स्वरूप इन कविताओं के द्वारा एक बहुवर्णी रंगोली की तरह हमारे समक्ष प्रकट होता है। वे निर्जीव और अतिसामान्य बिंबों , प्रतीकों के सहारे स्त्रीत्व के स्वर को नई दि”ाा में मोड़कर उसे प्रभावी लोकराग का स्वरूप प्रदान कर देती है। समाज के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग से संबंधित होने के बाद भी स्त्री होने के दं”ा को वे ”िाद्यत से महसूस कर, उसे इस तरह अभिव्यक्त करती हैं कि उनका दर्द समस्त नारी समाज की दारुणगाथा बनकर हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। उनके संगzह की पहली ही कविता ‘ स्त्रियाँ ’ हमे”ाा से पुरु’ाों द्वारा हीन और उपेक्षित समझी जाने वाली नारी मन की अंधेरी वीथियों में कुछ तला”ा करती हुई नजर आती है। “ाब्दों के चयन के मामले में भी अनामिका स्वयं को किसी भी बने बनाए मानकों से प्रतिबंधित नहीं करती हैं । उनके लिए कविता का लक्ष्य और उसकी मारक क्षमता अधिक महत्वपूर्ण है, न कि भा’ाा या क्षेत्रीयता की लक्ष्मणरेखा का अनुपालन करना।‘ मरने की फुर्सत ’ कविता में स्त्री होने की मर्मान्तक पीड़ा को उन्होनंे नए ढंग से परिभा’िात किया है। इसके उलट ‘ तुलसी का झोला’ “ाीर्’ाक कविता स्त्री मन की अतल गहराइयों से टकराती है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियों में पति द्वारा त्याग दिए जाने की कसमसाहट नजर आती है लेकिन कविता के अंतिम चरण में वह अधूरेपन का भाव मिट जाता है और वह स्वयं को पुरु’ाावलंबी सोच से मुक्त कर अपने लिए नया आका”ा तला”ाने की दि”ाा में अगzसर हो जाती है । अनामिका के द्वारा चयनित इन कविताओं से गुजरते हुए यह स्प’ट हो जाता है कि समस्याओं और वि’ामताओं को वे एक नए दृ’िटकोंण से देखती हैं। उनके इस दर्”ान में सदियों से दमित की जा रही स्त्री मन की कड़ियाँ खुलती सी नजर आती हैं। म्ंागले”ा डबराल की कविताओं का कैनवास इतना विस्तृत है कि , कई बार उनके लिए बहुआयामी “ाब्द का इस्तेमाल करना भी अधूरा और अपूर्ण सा लगने लगता है । अपनी कविताओं के माध्यम से वे आम आदमी के जीवन की उन विडंबनाओं की भी पड़ताल करते हैं जिन्हें खोजने का जोखिम उठाने से प्राय: हम सभी कतराते हैं। उनकी कविताओं का तेवर और उनसे उद~घाटित होने वाले अंतर्मन के गहरे अर्थ , हमें मुक्तिबोध और “ाम”ोर बहादुर सिंह की रचनात्मकता से जुड़ने का मार्ग प्र”ास्त कराती है। मंगले”ा ने स्वीकार किया है कि बाजारवाद और कट~टरता की मिलीभगत ने हमारे आत्मिक जीवन को, हमारे मनु’य होने को न’ट कर दिया है। ऐसी वि’ाम परिस्थिति में भी वे कविता से ही यह प्र”न पूछते हैं कि - ‘ तुम क्या कर सकती हो ? ’ उनके लिए कविता कोई धारदार हथियार नहीं जिसे लेकर वे अपने अस्तित्व के चारो ओर उग आई छद~म उपलब्धियों की झाड़ियों को काट देना चाहते हैं । बल्कि कविता तो उनकी सहचरी बनकर पग - पग पर, उन्हें प्रतिकूलताओं से जूझने की ताकत प्रदान करती है । कविता उनके लिए वह जीवन राग है जो दुर्बलतम क्षणों में भी अंतर्मन को झंकृत कर मिटती जा रही जिजीवि’ाा को संजीवनी प्रदान कर देती है-‘ कविता दिन भर थकान जैसी थी@ और रात में नींद की तरह@ सुबह पूछती हुई :क्या तुमने खाना खाया रात को ?’ प्रस्तुत संकलन में उनके द्वारा चयनित जिन कविताओं ने अपने विलक्षण अर्थबोध , गहन वैचारिकता और अद~भुत “ाब्द विन्यास के जरिए हमारे समक्ष एक नए रचनासंसार के कपाट खोल दिए हैं , उनमें ‘ ताना”ााह कहता है , सबसे अच्छी तारीख, ताकत की दुनिया, सोने से पहले’ को सम्मिलित किया जा सकता है। इसके साथ ही साथ कुछ कविताएं हमें संवेदनाओं के उस धरातल पर पहुँचा देती हैं जहाँ कवि और उसकी कविता अपने “ाब्दरथ पर सवार होकर कहीं विलुप्त हो जाते हैं और पाठक उससे उपजे बहुस्तरीय अर्थों को देखकर आ”चर्यचकित हुए बिना नहीं रह पाता है। ‘दुख’ “ाीर्’ाक कविता में वे अपना परिचय देते हुए कहते हैं -‘मैं एक विरोधपत्र पर उनके हस्ताक्षर हैं जो अब नहीं हैं@ मैं सहेज कर रखता हूँ उनके नाम आने वाली चिट~ठियाँ@मैं">चिट~ठियाँ@मैं दुख हूँ@मुझमें">हूँ@मुझमें एक धीमी काँपती हुई रौ”ानी है।’ कवि होने का दर्द वे ‘ अधूरी कविता ’ में बयान करते हुए कहते हैं-‘ जो कविताएं लिख ली गयीं@उन्हें">गयीं@उन्हें लिखना आसान था@ अधूरी कविताओं को पूरा करना था कठिन ।’ इसी तरह एक स्त्री के वे”या में रूपान्तरण को पुरु’ा की नजर से देखते हुए उसकी पीड़ा को ‘काWलगर्ल’ कविता में व्यक्त किया है। इसी तर्ज पर ‘छुओ’ कविता में वे हर प्रकार के भैातिक संपर्क और रि”ते को निरर्थक घो’िात करते हुए कहते हैं - ‘छूने के लिए जरूरी नहीं कि कोई बिलकुल पास में बैठा हो@बहुत">हो@बहुत दूर से भी छूना संभव है।’ समीक्ष्य संगzह में वि’णु खरे द्वारा चयनित कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि जिन “ाब्दों को लेकर कवि ने इन कविताओं की रचना की है उनमें समय की क्रूरताओं से टकराने की भरपूर ताकत मौजूद है । यानी ये कविताएं उपदे”ा या नारेबाजी न बनकर आम आदमी की चेतना को नवीन Åर्जा से भर देती हैं। वि’णु खरे की कविताओं के केंदz में, प्राय: अतिसामान्य, गैरजरूरी और परिधि के बाहर रहने वाले लोगों को जगह मिल जाती है। इस नजरिए से ‘वृंदावन की विधवाएं ,लड़कियों के बाप’ और सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा, “ाीर्’ाक कविताओं को “ाामिल कर सकते हैं। यद्यपि इनकी लंबी कविताओं का सबसे चमत्कृत करने वाला तत्व यह है कि उन्हें हम जिस मानसिकता से पढ़ते है , उससे संबंधित बेहिसाब अर्थ हमारे सामंने प्रकट होने लगते हैं। यही वजह है कि उनकी कविताएं सामान्य पाठकों के बीच तो उतनी लोकप्रिय नहीं हो पाती लेकिन साहित्य को”ा की अमूल्य निधि बन जाती हैं। कहना चाहिए कि लगातार मिटते जा रहे जीवन मूल्यों को बचाने के लिए पि’णु खरे की कविता अपना सब कुछ दांव पर लगाने से भी पीछे नहीं हटती। आज की कविता में वे स्वयं जीवन और रि”तों के अन्ंात वैविध्य के प्रति उत्सुकता देखना चाहते हैं । इसी लिए उनकी कविताओं में रि”तों में उलझी जिंदगी के विविध स्वर स्प’ट रूप में सुने जा सकते हैं।संभवत: इसीलिए वि’णु खरे के संबंध में आलोचक नंद कि”ाोर नवल ने कहीें लिखा है- ‘ इनकी कविताएं अधिकां”ा वामपंथी कवियों की तरह सिर्फ जज्बे का इजहार नहीं करतीं, बल्कि अपने साथ सोच को लेकर चलती हैं, जिससे उनमें स्थिति की जटिलता का चित्रण होता है और वे सपाट नहीं रह जाती।’ अपनी कविताओं के माघ्यम से व्यवस्था के प्रति गहरा विरोध दर्ज कराने वाले कवि लीलाधर जगूड़ी , अपने द्वारा ईजाद की गई व्यंग्यात्मक ¼मगर गंभीर ½ “ौली में वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक विदzूपता पर पूरी निर्ममता से चोट करते हैं। हिंदी कविता के क्षेत्र में वे एक ऐसे कवि के रूप में पहचाने जाते हैं जो अपनी बात पूरी तरह स्प’ट करने के लिए किसी प्रकार की “ााब्दिक कृपणता नहीं दिखाते, यानी वे ढेरों वाक्यों के सहारे एक बहुआयामी संसार की रचना करते हैं जहाँ पहुंचकर हमें वस्तुएं, समस्याएं, और स्वयं हम भी बिल्कुल नए से नजर आते हैं। दरअसल वे हमारे Åपर लदे दोहरेपन के तमाम आवरणों की चीरफाड़ करने से कभी नहीं हिचकते। लंबी कविताओं के जरिए अपनी पहचान स्थापित करने वाले लीलाधर जगूड़ी द्वारा चयनित इस श्रंखला ¼कवि ने कहा ½ में ‘ बलदेव खटिक ’ और ‘मंदिर लेन’ जैसी महत्वपूर्ण कविताओं का न होना पाठकों को निरा”ा करता है। लेकिन पुस्तक की भूमिका में ही उन्होने स्प’ट कर दिया है कि - ‘ अपने में से अपने को चुनने के लिए ज्ञानात्मक समीक्षा दृ’िट और संयम आव”यक है, जिसका अभाव इस मौके पर भी मुझे काफी परे”ाान किये रहा। क्या अपनी ये चुनी हुई कविताएं ही मेरा सम्यक अभी’ट है ? “ाायद हां , “ाायद नहीं ।’ कहना न होगा वे स्वयं अपने इस चयन से पूरी तरह संतु’ट नहीं दिखते। इसके बावजूद उन्होने जिन कविताओं को इस संचयन में जगह दी है, वे भी अपनी मारक क्षमता के चलते कहीं से भी कमजोर नहीं नजर आती हैं। मानवीय अंतर्मन की गुत्थियों को सुलझाने की को”िा”ा हो या समय की खुरदरी सचाइयों को अपनी जुबान से बयां करने की जिद , किसी भी मानक पर उनकी कविता हता”ा नहीं होती। एक तरफ उनकी कविताओं में ‘ खाली होते जा रहे जंगलों में बढ़ते जंगलीपन’ के प्रति गहरी चिंता का भाव नजर आता है तो दूसरी तरफ बचाने की तमाम को”िा”ाों के बाद भी स्वयं को खो देने का दर्द भी साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है-‘ हमने सब कुछ खो दिया है अपना गांव , अपना झोला, अपना सिर।’ उदय प्रका”ा को वर्तमान हिंदी साहित्य में स”ाक्त कथाकार के रूप में जाना जाता है। जबकि सच ये है कि उनकी सृजनात्मक यात्रा कविता लिखने से ही प्रारंभ हुई। यानी वे स्वयं को मूल रूप से कवि ही मानते हैं। उदय प्रका”ा की नजर में कवि होना एक असामान्य घटना है। इसीलिए कवि होने के उनके अपने वि”िा’ट मानक हैं। जैसे - ‘कवि का “ारीर रात में चंदzमा की तरह चमकना चाहिए, अपने दुखों और निर्वासन में कैद होने के बावजूद उसकी निगाहें एक अपराजेय समzाट की तरह आका”ा की ओर लगी रहनी चाहिए , उसकी ”िाराओं में काल और संसार, दzव की तरह प्रवाहित होना चाहिए।’ जाहिर है उनके द्वारा लिखी गई कविताओं में इन सभी मानकों का यथासंभव पालन किया जाता है। एक और वि”िा’टता जो इनकी कविताओं में दिखती है वह है इनमें उपस्थित किस्सागोई का अंदाज। उदय की कविताओं को न तो पूरी तरह वि’ााक्त कहा जा सकता है और न ही उसे अमृत का प्याला माना जा सकता है। दरअसल उदय प्रका”ा की कविताओं का जन्म, बाहरी जगत की विडंबनाओं और उनके अंतर्मन में उपस्थित नैतिक मूल्यों के मंथन से होता है। इसलिए किसी एक मिजाज की कविता का तमगा लगाना उनकी गहन रचनात्मकता के साथ अन्याय होगा। जाहिर है उनकी कविताओं का मूल्यांकन करने के लिए बने बनाए या पूर्व निर्मित मानक अनुपयुक्त लगते हैं। कहना चाहिए की उनकी कविताएं अपनी समीक्षा के लिए सर्वथा नए मानकों की मांग करती हैं। किसी भी रचना और रचनाकार की यह सबसे बड़ी और वि”िा’ट उपलब्धि होती है जब उनके मूल्यांकन के लिए आलोचकों को नए प्रतिमान गढ़ने पड़ते हैं। प्रस्तुत संगzह कवि ने कहा में उनके द्वारा चयनित ‘ राज्यसत्ता , ताना”ााह की खोज और चौथा “ोर ’ जैसी कविताएं राजनीति के कुत्सित चेहरे पर से नकाब उतार फेंकती हैं। विभिन्न प्रकार के तंत्रात्मक संजाल में उलझा आम आदमी स्वयं को निरीह और बेचारा समझने के लिए विव”ा हो जाता है , जब उसे यह ज्ञात होता है कि उसके संरक्षक ही उसके उबसे बड़े भक्षक हैं । इसी व्यथा को स्वर देती कविता ‘ दो हाथियों की लड़ाई ’ में वे लिखते हैं कि -‘ दो हाथियों की लड़ाई में @ सबसे ज्यादा कुचली जाती है@ घास , जिसका@ हाथियों के समूचे कुनबे से @ कुछ भी लेना देना नही।’ एक स्त्री को अपने दैनिक जीवन में किस तरह के बाहरी संघर्’ा और कितने स्तरों पर अंतद्र्वंद से जूझना पड़ता है , इसका मार्मिक चित्र ‘ औरतें ’ “ाीर्’ाक कविता में उकेरने का प्रयास किया है। उदय की कविताओं की सबसे बड़ी वि”ो’ाता यह है कि वह बड़ी ही सहजता से आम आदमी के संघर्’ा से जुड़ जाती है। प्रस्तुत काव्य श्रंखला का प्रका”ान उस दौर में किया गया है जब यह दु’प्रचारित किया जा रहा है कि साहित्य ¼ और वि”ो’ा रूप से कविता ½ पढ़ने वालों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। कम से कम समय में बिना श्रम किए अधिक से अधिक बटोरने की मानसिकता और आपाधापी भरी हमारी जीवन”ैाली में साहित्य को एक गैरजरूरी तत्व बनाकर हा”िाए पर धकेला जा रहा है। इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि ‘ कवि ने कहा ’ श्रंखला के माध्यम से वर्तमान दौर के दस महत्वपूर्ण और चर्चित कवियों की चुनी हुई कविताओं के इस प्रका”ान ने जहाँ एक ओर यह प्रमाणित कर दिया है कि , किसी भी विधा में लिखे गए अच्छे साहित्य को अपने पाठक की तला”ा में भटकना नहीं पड़ता है बल्कि पाठकवर्ग स्वयं भी ऐसी रचनाओं का स्वागत करने के लिए तत्पर दिखता है। वहीं दूसरी ओर श्रंखला प्रका”ाक के इस साहसिक प्रयास ने अन्य दूसरे प्रका”ाकों केा भी भवि’य में इसी तरह के ‘ साहित्यिक जोखिम ’ उठाने के लिए प्रेरणासzोत का कार्य किया है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होगा पाठक, साहित्यकार और साहित्य के लिए भी । इन सभी कवियों की भा’ाा “ैाली में कुछ भिन्नता को महसूस किया जा सकता है, चीजों और समस्याओं को देखने और महसूस करने का उनका दृ’िटकोंण भी अलग नजर आता है इसके बावजूद इन सभी रचनाकारों की कविताओं का सरोकार एकसमान है। परिस्थितियों की जटिलताओं से जूझते मनु’य के भीतर की मनु’यता को बचाने के लिए सभी एक पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार उपजा इन कवियों का समवेत स्वर हिन्दी काव्य धारा को नई दि”ाा देने में पूर्णत: समर्थ है , इसमें संदेह नहीं.
पुस्तक - कवि ने कहा (दस कवियों की चुनी हुई कविताएं, दस खंडों में)
मूल्य - 150 रु , प्रत्येक
प्रकाशक- किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
लेख की रीडेबिलिटी सुधारने की जरूरत है।
ReplyDeletehan, gyan dutt ji sahi kah rahe hai..maja kirkira ho raha hai.
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