लादेन की कविताई

 

इष्ट देव सांकृत्यायन

हाल ही मेँ मैने एक खबर पढी. आपने भी पढी होगी. महान क्रांतिकारी (जैसा कि वे मानते हैँ) ओसामा बिन लादेन की कविताओँ का एक संग्रह जल्दी ही आने वाला है. यह जानकर मुझे ताज्जुब तो बिलकुल नहीँ हुआ. लेकिन जैसा कि आप जानते ही हैँ, कविता का जन्म कल्पना से होता है. पहले कवि कल्पना करता है और फिर कविता लिखता है. इसके बाद कोई सुधी श्रोता उसे पढता है और फिर उसका भावार्थ समझने के लिए वह भी कल्पनाएँ करता है. तब जाकर कहीँ वह उसे समझता है. अपने ढंग से. मुक्तिबोध ने इसीलिए कविता को यथार्थ की फंतासी कहा है.

वैसे कबीर, तुलसी, रैदास जैसे छोटे-छोटे कवियोँ पर समझने के लिए कल्पना वाली शर्त कम ही लागू होती है. सिर्फ तब जब कोई 'ढोल गंवार.....' या 'पंडित बाद बदंते...' जैसी कविताओँ का अर्थ अपने हिसाब से निकालना चाह्ता है. वरना इन मामूली कवियोँ की मामूली कविताओ का अर्थ तो अपने-आप निकल आता है. और जैसा कि आप जानते ही है, नए ज़माने के काव्यशास्त्र के मुताबिक ऐसी रचनाएँ दो कौडी की होती है, जिनका मतलब कोई आसानी से समझ ले. लिहाजा इस उत्तर आधुनिक दौर के बडे कवि ऐसी कविताएँ नही लिखते जिन्हे कोई आसानी से समझ ले. वे ऐसी कविताएँ लिखते है जो सिर्फ आलोचको की समझ मे आती है. वैसी जैसी कि वे समझना चाहते है और समझते ही वे सम्बन्धित कवि को महान रचनाकार घोषित कर देते है.

रचना और रचनाधर्मिता की इसी महत्ता को देखते हुए हाल के वर्षो मे एक नया जुमला आया है. वह यह कि कविता को समझने के लिए कवि जैसी ही संवेदना और चेतना की ज़रूरत होती है. मतलब यह कि अगर आप कविता को नही समझते तो आपकी संवेदना और चेतना का होना भी खारिज.

बहरहाल, कविता का एक सुधी श्रोता और पाठक होने के नाते मैने लादेन साहब की भावी किताब मे आने वाली कविताओ को समझने के लिए खुद को तैयार करने के क्रम मे कल्पना की उडाने भरनी शुरू कर दी. पहली बात तो यह कि आखिर लादेन साहब की कविताओ को हम वादो के हिसाब से किस कोटि मे रखेंगे. विश्व कविता के क्षेत्र मे इधर रोमांसवाद से लेकर एब्सर्डवाद और पोस्टमाडर्नवाद तक आ और जा चुके है. तो क्या अब लादेन साहब के लिए हमे कोई और वाद तलाशना होगा? क्योंकि अब तक के उपलब्ध वादो के दायरे मे तो उनकी कविताए कही फिट बैठेगी नही. गौर से देखा जाए तो 'अहिंसा परमो धर्मः' की घोषणा करने वाले अधिकतर कवि जिन सियासी पार्टियो से जुडे रहे है, वे सिर्फ बातो मे ही अहिंसक रही है. बातो मे तो वे इतनी अहिंसक रही है कि बुद्ध भी शरमा जाए. काव्य ही नही, गद्य मे भी. भूल से भी उन्होने कभी हिंसा की बात नही की. रही बात व्यवहार की, तो उसका जिक्र नही ही किया जाए तो ठीक.

दूसरी तरफ, जो कवि सशस्त्र क्रांति की बाते करते रहे है, व्यवहार मे उनका क्रांति से कुल मतलब केवल विश्वविद्यालयो की पीठो पर जमने और अकादमियो के पेटो मे अपनी जगह बनाने तक सीमित रहा है. जबकि लादेन साहब ने पहले क्रांति (जैसा कि वे मानते है) की है, कविता वे अब लिख रहे है. तो अब कविता मे वह किसी क्रांति या किसी तरह के संघर्ष की बात करेंगे, इसकी उम्मीद कम ही है.

इसकी उम्मीद इसलिए भी बहुत ही कम है क्योंकि अगर शास्त्रकारो की बात मानी जाए तो कविता और कला दोनो एक ही कोटि की चीज़े है और कला के साथ बामियान मे वह जो बर्ताव कर चुके है वह जगजाहिर है. लादेन साहब से बहुत पहले एक बडे दार्शनिक कवियो और पागलो को एक ही कोटि मे रखते हुए यह घोषणा कर चुके है कि उनके रिपब्लिक मे इन दोनो के लिए कोई जगह नही होगी. वैसे दुनिया के सारे कवि चाहे वे किसी भी तरह के क्यो न रहे हो, सबके साथ एक बात ज़रूर रही है और वह यह कि उनकी घोषित विचारधाराए भले ही मनुष्यता के खिलाफ रही हो, पर कविताए उनकी भी कभी मनुष्यता के खिलाफ नही रही है.

कविता मे नए-नए प्रयोग हमेशा पसन्द किए जाते रहे है. चाहे वे कैसे भी क्यो न रहे हो. एब्सर्ड्वाद तक अपनी प्रयोगधर्मिता के नाते ही मान्य हुआ है. कहा भी जाता है - लीक छाँडि तीनो चले शायर सिंघ सपूत. तो लादेन साहब भी लीक तो छोडे ही होंगे. तो छोड कर वे क्या करेंगे? निश्चित रूप से कविता मे अब तक जो एक काम नही हुआ है, यानी मनुष्यता के विरोध का बस वही अब वह करेंगे. हो सकता है कि यह काम वह भी तमाम कवियो की तरह बदले हुए नाम से यानी कि उलटे ढंग से करे. मतलब यह कि उसे नाम मनुष्यतावाद का दे.

एक बात और बचती है उनके तखल्लुस की. जैसा कि आप जानते ही है, दुनिया भर के वीर-जवानो से शेर बनने का आह्वान करने वाले वीर रस के ज़्यादातर कवि हक़ीक़त मे चूहो से डरते है. यह अलग बात है कि सभी अपने तखल्लुस तडाम-भडाम टाइप का कुछ रखते रहे है. तो यही बात शायद लादेन साह्ब के साथ भी होने जा रही है. मुझे पक्का यक़ीन है कि वे अपना तखल्लुस रहमदिल जैसा कुछ रखेंगे और कविताए भी रहमदिली वाली ही लिखेंगे. तो आप भी तैयार हो जाइए लादेन साहब की रहमदिली वाली कविताए पढने के लिए. आमीन.

Comments

  1. छात्र जीवन में की गयी एक तुकबंदी मुझे याद आ गयी :-
    ''कवि ने किया शोध
    कलम से निकाला खोंट
    और चल पड़ा बाजार में बेचने
    मुफ्त में जो मिला था
    सरकारी कंडोम निरोध।''

    ReplyDelete
  2. हम भी आशोक पाण्डेय जी से सहमत है.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  3. हम भी पढ़ने को तैयार बैठे हैं । हो सकता है वे अपना सारा विष कविताओं मे उलेढ़ दें और मनुष्यों को भविष्य में बक्श दें । कितनी मधुर कल्पना है !
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  4. कविता करेंगे लादेन?! मतलब लदने के दिन आ गये!

    ReplyDelete
  5. कविता में शायद दशम रस देखने को मिले, आने तो दीजिए।

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का