राष्ट्रीय मीडिया को वार जोन की तमीज नहीं
समुद्री सुरक्षा को भेदते हुये मुंबई टारगेट को बहुत ही पेशेवराना तरीके से अंजाम दिया गया है। इनकी मंशा चाहे जो भी रही हो, लेकिन हमला का यह अंदाज एक स्पष्ट रणनीति की ओर संकेत कराता है। इनके पास से एक सीडी में बंद मुंबई शहर का पूरा खाका मौजूद था और इनके पास से बरामद राशन पानी से स्पष्ट हो जाता है कि ये लोग फील्ड में अधिक से अधिक समय तक टीक कर हंगामा मचाने के इरादे से लैस थे। इनका एक्शन एरिया पांच किलोमीटर के अंतर था, हालांकि इनके एक्शन एरिया को समेटने के लिए एटीएस ने शानदार तरीके से काम किया। ये लोग एक साथ कई टारगेट को हिट कर रहे थे।
ताज और ओबराय में ए ग्रेट के सिटीजन ही जाते हैं और यहां पर विदेशी आगंतुको का भी भरमार रहता है। यदि ताज से निकलने वाले एक बंदे की बात माने तो ये लोग ये लोग अमेरिकी पासपो्रट धारियों को पकड़ने पर ज्यादा जोर दे रहे थे। वीटी रेल्वे स्टेशन पर इनलोगों ने आम आदमी को टारगेट पर लिया। कोलाबा में उतरने के बाद ये लोग कई टुकडि़यों में बंट गये थे। करकरे,आम्टे और कालस्कर इनके अभियान में इन्हें बोनस के रूप में मिले। अपने इस अभियान के प्रारंभिक दौर में इन्होंने भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बेवकूफियों का भी खूब फायदा उठाया। वारजोन के करीब कैमरा लेकर डटे हुये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों ने अपने कैमरे का मुंह खोलकर ताज और ओबराय के अंदर बैठे इन लौंडों को बाहर की स्थिति से अवगत कराते रहे। टीवी पर चैनल बदलते हुये ये लौंडे बाहर चलने वाली एटीएस की गतिविधियों को देख और समझ रहे थे जबकि एटीएस वाले उस वक्त अपने कमांडर की हत्या के बाद अपने आप को ऑगेनाइज करने की कोशिश कर रहे थे।
ये लौंडे सीमा पार से भी लगातार कम्युनिकेशन में थे और वहां बैठे लोग भी भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कृपा से वार जोन की गतिधियों पर नजर रखते हुये ताज और ओबराय के अंदर बैठे लौडों को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने के लिए हांक रहे थे। इससे एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को वार जोन की रपट करने की तमीज नहीं है। चूंकि वार जोन एक शहरी इलाका था,इस लिहाज से चौगुनी सतकता की स्वाभाविक मांग थी। बाद में एटीएस वालों के कहने पर मीडियावालों को भेजे में बात घुसी, जबकि यह पहले ही घुस जानी चाहिए थी। तब तक काफी नुकसान हो गया था। ताज और ओबराय के अंदर बैठे लौंडे मोबाइल फोन से टीवी वालों को धड़ाधड़ फोन करके अपनी बाते रख रहे थे और टीवी वाले यंत्रवत अनजाने में उनकी बातों को बिना कट के लोगों तक कम्युनिकेट कर रहे थे और तरह से उनके मिशन को आगे बढ़ा रहे थे।
रात भर की लड़ाई के बाद हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं की दैनिक अखबारों ने भी खबरों प्रेषण के दौरान अपने हेडलाइनों में आतंकियों की शब्दावली का ही इस्तेमाल किया। कई अखबारों ने मुंबई पर फिदायीन हमला जैसा हेडलाइन हगाया। भाई यह फिदायीन क्या होता है। कम से कम एक बार इस शब्द के मतलब तो देख लिये होते। कम्मीर से निकलने वाले तमाम अखबारों और वहां पर काम करने वाले तमाम पत्रकारों को आतंकियों ने धमका रखा लै कि उनके लिए मुजाहिदीन और फिदायीन जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाये। अपनी शब्दावली वे जबरदस्ती लोगों के जुबान पर चढ़ा रहे है, और हमारे देश की प्रिंट मीडिया भी उन्हीं की शब्दावली ढोकर उनके मिशन को आगे बढ़ाने में लगी है। राष्ट्रीय अखबारों से इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है वे अपनी शब्दावली खुद गढ़े। यदि एसा करने की क्षमता नहीं है तो कम से कम उनकी शब्दावली का तो इस्तेमाल नही करे। बहरहाल जिस तरह से इनलोगों ने पेशेवराना अंदाज में मुंबई में पांच किलोमीटर के दायरे को वार जोन में तब्दील कर दिया, उसे लेकर चिंतित और निराश होने के बजाय की जरूरत नहीं है। चूंकि अभी लड़ाई चल रही है। हर किसी को जो जहां है उन्हें ध्वस्त करने के लिए अपनी पूरी उजा लगानी चाहिए। ताज और ओबराय को तो हमलोग बना लेंगे....लेकिन हमारे शहरों में खेली गई इस खून की होली का, जवाब ठंडे दिमाग से सि्रफ और सिफर् गेस्टापू ही हो सकता है। अपने नेशन को बचाने के लिए हमें भी उसी स्तर पर पेशेवर होना होगा...हो सके तो उनसे भी ज्यादा।
ताज और ओबराय में ए ग्रेट के सिटीजन ही जाते हैं और यहां पर विदेशी आगंतुको का भी भरमार रहता है। यदि ताज से निकलने वाले एक बंदे की बात माने तो ये लोग ये लोग अमेरिकी पासपो्रट धारियों को पकड़ने पर ज्यादा जोर दे रहे थे। वीटी रेल्वे स्टेशन पर इनलोगों ने आम आदमी को टारगेट पर लिया। कोलाबा में उतरने के बाद ये लोग कई टुकडि़यों में बंट गये थे। करकरे,आम्टे और कालस्कर इनके अभियान में इन्हें बोनस के रूप में मिले। अपने इस अभियान के प्रारंभिक दौर में इन्होंने भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बेवकूफियों का भी खूब फायदा उठाया। वारजोन के करीब कैमरा लेकर डटे हुये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों ने अपने कैमरे का मुंह खोलकर ताज और ओबराय के अंदर बैठे इन लौंडों को बाहर की स्थिति से अवगत कराते रहे। टीवी पर चैनल बदलते हुये ये लौंडे बाहर चलने वाली एटीएस की गतिविधियों को देख और समझ रहे थे जबकि एटीएस वाले उस वक्त अपने कमांडर की हत्या के बाद अपने आप को ऑगेनाइज करने की कोशिश कर रहे थे।
ये लौंडे सीमा पार से भी लगातार कम्युनिकेशन में थे और वहां बैठे लोग भी भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कृपा से वार जोन की गतिधियों पर नजर रखते हुये ताज और ओबराय के अंदर बैठे लौडों को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने के लिए हांक रहे थे। इससे एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को वार जोन की रपट करने की तमीज नहीं है। चूंकि वार जोन एक शहरी इलाका था,इस लिहाज से चौगुनी सतकता की स्वाभाविक मांग थी। बाद में एटीएस वालों के कहने पर मीडियावालों को भेजे में बात घुसी, जबकि यह पहले ही घुस जानी चाहिए थी। तब तक काफी नुकसान हो गया था। ताज और ओबराय के अंदर बैठे लौंडे मोबाइल फोन से टीवी वालों को धड़ाधड़ फोन करके अपनी बाते रख रहे थे और टीवी वाले यंत्रवत अनजाने में उनकी बातों को बिना कट के लोगों तक कम्युनिकेट कर रहे थे और तरह से उनके मिशन को आगे बढ़ा रहे थे।
रात भर की लड़ाई के बाद हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं की दैनिक अखबारों ने भी खबरों प्रेषण के दौरान अपने हेडलाइनों में आतंकियों की शब्दावली का ही इस्तेमाल किया। कई अखबारों ने मुंबई पर फिदायीन हमला जैसा हेडलाइन हगाया। भाई यह फिदायीन क्या होता है। कम से कम एक बार इस शब्द के मतलब तो देख लिये होते। कम्मीर से निकलने वाले तमाम अखबारों और वहां पर काम करने वाले तमाम पत्रकारों को आतंकियों ने धमका रखा लै कि उनके लिए मुजाहिदीन और फिदायीन जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाये। अपनी शब्दावली वे जबरदस्ती लोगों के जुबान पर चढ़ा रहे है, और हमारे देश की प्रिंट मीडिया भी उन्हीं की शब्दावली ढोकर उनके मिशन को आगे बढ़ाने में लगी है। राष्ट्रीय अखबारों से इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है वे अपनी शब्दावली खुद गढ़े। यदि एसा करने की क्षमता नहीं है तो कम से कम उनकी शब्दावली का तो इस्तेमाल नही करे। बहरहाल जिस तरह से इनलोगों ने पेशेवराना अंदाज में मुंबई में पांच किलोमीटर के दायरे को वार जोन में तब्दील कर दिया, उसे लेकर चिंतित और निराश होने के बजाय की जरूरत नहीं है। चूंकि अभी लड़ाई चल रही है। हर किसी को जो जहां है उन्हें ध्वस्त करने के लिए अपनी पूरी उजा लगानी चाहिए। ताज और ओबराय को तो हमलोग बना लेंगे....लेकिन हमारे शहरों में खेली गई इस खून की होली का, जवाब ठंडे दिमाग से सि्रफ और सिफर् गेस्टापू ही हो सकता है। अपने नेशन को बचाने के लिए हमें भी उसी स्तर पर पेशेवर होना होगा...हो सके तो उनसे भी ज्यादा।
हमारे एटीएस के चीफ हेमन्त करकरे खुद सामने आकर इन टीवी वालों को बढ़ावा दे रहे थे. उनके सामने हेलमैट पहनने के लिये पोज दे रहे थे,उन्हें टीवी पर ही बुलेट प्रूफ जाकेट पहनाई जा रही थी और ...
ReplyDeleteजब अक्षम लोगों को ऊंचे पद दे दिये जाते हैं तो यही होता है.
इस सारे मामले में इंडिया टीवी ने जैसी नासमझ दिखायी इसे देशद्रोह तक कहा जा सकता है.
मीडिया राष्ट्रीय एकता को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुँचा रहा है!
ReplyDeleteअब मीडिया को नकेल की आवश्यकता है।
ReplyDeletehi,
ReplyDeletean excellent blog post.i salute ur sincerity and conviction.
thanks
हर बात सही और सच है,रास्ट्रीय अखबारों को अपनी शब्दावली ख़ुद गढ़ना चाहिए,...लेकिन एक दुसरे से आगे बढ़ जाने की होड़ और बेतमीजी की अधिकाँश रिपोर्टिंग ने आग मैं घी का काम किया, यहाँ यदि माफ़ कर भी दिया जाय तो ..दूसरी जगहों पर देखें,और हर चेनल सिर्फ apnaa gun gaan karne main lagaa huaa hai .good
ReplyDeleteबार जोन का मतलब तक नही जानते ये लोग। इनके दिलाए वीडियो आतकवादी अंदर देखकर अपनी रणनीति बनाते रहे। जिसके जो जी में आ रहा था , नई जानकारी देने के नाम पर बके जा रहा था। सबेरे से एक चैनल के एंकर एवं रिपोर्टर चीख चीखकर कर रहे थे। अधकारियों के हाथ अंतकवादियों का एक मोबाइल हाथ लगा है। इस पर विदेश से लगातार फोन आ रहे है।
ReplyDeleteयह कहकर आप क्या बताना चाहते हैं क्यां फोन करने वालो को सचेत नही कर रहे। कि फोन पुलिस पर है अब कुद मत कहो
Its pathetic. There is no nationalism among these TV reporters and their owners. They are helping by reporting live videos to terrorists. When will they realize that their greed to become famous. That lady Barakha dutt wants to get award to show that she always report from ground zero. Shame on her. A journalist like her should show way to other journalists rather than getting cheap publicity by reporting from there.
ReplyDeleteChaurasia was showing different different poses by lying, bending, jumping etc. etc. Shame on him. We don't want to see live. We want to know the news. Don't give publicity to terrorists.
Major setback came when journalists(TV) mobbed to comandos and army folks when they came out of Nariman house. This is too much. Government should throw them out from one kilometer of the range.