अथातो जूता जिज्ञासा - 2

 

अथातो जूता जिज्ञासा - 1 के लिए लिंक

झलक इसकी कबीर से ही मिलनी शुरू हो जाती है और वह भी बहुत परिपक्व रूप में. तभी तो कभी वह हिन्दुओं को कहते हैं:

दुनिया कैसी बावरी पाथर पूजन जाए.

घर की चाकी कोई न पूजे जाको पीसा खाए.

और कभी मुसलमानों को कहते हैं:

कांकर-पाथर जोडि के मसजिद लई चिनाय.

ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय.

यह सब जब वह कह रहे थे तब वास्तव में कहने के बहाने जूते ही चला रहे थे. यक़ीन न हो तो आज आप अपने तईं यह कह कर देख लीजिए. सिर पर असली के इतने जूते बरसेंगे कि फिर कुछ कहने या लिखने लायक भी नहीं बचेंगे. मैं भी अगर यह कहने की हिम्मत कर पा रहा हूँ तो कबीर के हवाले और बहाने से ही. आज अगर अपने तईं कह दूँ तो पता है कितनी तरह के और कितने जूते मुझे झेलने पडेंगे. अगर पाथर पूजने वाली बात कहूँ तो सिंघल, तोगडिया और शिवसैनिकों के डंडे झेलूँ और मसजिद वाली बात करूँ तो अल कायदा और तालिबान तो बाद में हमारे अगल-बगल की ही धर्मनिरपेक्ष ताक़तें पहले टूट पडें हमारे सिर. और भाई आप तो जानते ही हैं कबीर की 'जो घर जारे आपना' वाली शर्त मानना अपने बूते की बात तो है नहीं. क्योंकि जलाने के लिए मैं अपना घर कहाँ से लाऊँ? दिल्ली में घरों की क़ीमत चाहे कितनी भी सस्ती हो जाए, इतनी सस्ती तो कभी भी नहीं होगी कि एक अदना और खालिस कलमघिस्सू कभी भी अपना घर खरीद सके.

तो साहब कबीर का साथ देने का प्रोग्राम तो मुल्तवी समझिए. आगे बढें तो गोसाईं बाबा मिलते हैं. अरे वही, जिन्हे आप गोस्वामी तुलसीदास के नाम से जानते हैं. यक़ीन मानिए, जूतों के वह भी बडे कायल थे. वह तो जूतों के इतने कायल थे कि उन्होने अपने आराध्य भगवान राम के मुँह से ही जूतों की तारीफ करवाई. पढा ही होगा आपने 'बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति'. आखिर इस 'भय बिनु होइ न प्रीति' का मतलब और क्या है? यही न, कि अरे भाई लछ्मन अब जरा जूता निकालो. ये जो समुन्दर जी हैं न, ये ऐसे नहीं मनेंगे. इन्हें समझाने के लिए समझावन सिंघ का उपयोग करना पडेगा. अगर गांव के पराइमरी इस्कूल में पढे होंगे तो  समझावन सिंघ का मतलब तो आप जानते ही होंगे. समझदार पडीजी और मुंशीजी लोग होनहार विद्यार्थियों से समझावन सिंघ के बगैर बात ही नहीं किया करते थे.

यक़ीन मानिए, समझावन सिंघ का असर इतना असरदार हुआ करता था कि दो दिन का पाठ लोग एके दिन में रट लिया करते थे. अब मैं पछ्ताता हूँ कि संस्कृत नाम का विषय पराइमरी में क्यों नहीं पढाया गया. अगर पढाया जाता रहा होता तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ मेरे जैसे कई होनहार विद्यार्थियों को बालक के रूप की द्वितीया विभक्ति भी याद हो गई होती. इसमें कमी किसी और बात की नहीं सिर्फ समझावन सिंघ की ही है.  तब के बच्चे गुरुजनों के नाम से काँपते थे. अब गुरुजनों की पैंट बच्चों के भय से खराब हो जाती है. वजह और कुछ नहीं, केवल समझावन सिंघ के प्रयोग पर स्कूलों में रोक का लगना है. अब स्कूलों के मैनेजमेंट बच्चों पर समझावन सिंघ का प्रयोग नहीं होने देते. अलबत्ता उनके पैरेंटों की जेबों पर मिस् कुतरनी का प्रयोग निरंतर करते रहते हैं. इससे बच्चों का भविष्य बने न बने पैरेंटों का वर्तमान ज़रूर बिगड जाता है.

अब पलट कर सोचता हूँ कि ये समझावन सिंघ आखिर क्या थे. अपने मूल रूप में जूता ही तो थे. गोसाईं जी पक्के वैष्णव होते हुए भी इनके परम भक्त थे. होते भी क्यों नहीं? खुद उनकी अप्नी जीवनलीला पर समझावन सिंघ का कितना गहरा असर था, यह आप उनके पत्नी प्रेम प्रसंग से लेकर काशी के पंडितों द्वारा उन पर किए गए भांति-भांति के प्रयोगों तक देख सकते हैं. कुछ ऐसे ही प्रयोगों से आजिज आकर उन्होंने कवितावली नामक एक ग्रंथ की रचना की थी. गौर फरमाएं तो पाएंगे यह ग्रंथरूप में 'उस' के अलावा और कुछ नहीं है. आखिर जब वह कह रहे थे:

धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो,  जोलहा कहो कौऊ

काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगारब न सोऊ                                 

........ आदि-आदि.

बताइए. भला यह भी कोई कविता हुई. असल में तो यह वही है, जो उन्होंने अपने समय के पूरे समाज के मुँह पर दे मारा था. कुछ लोगों के मुँह पर तो वह ऐसा लगा कि उन्होंने तुलसी बाबा को संत ही मानने से इनकार कर दिया. ठीक भी है. आखिर ऐसे आदमी को संत कैसे माना जा सकता है जिसका सीकरी से कोई काम हो. तुलसी ने तो कुछ जूते सीकरी की ओर भी उछाल दिए थे. यक़ीन न हो तो देखिए :

खेती न किसान को, बनिक को बनिज नहिं

भिखारी को न भीख बलि चाकर को न चाकरी

जीविकाविहीन लोग सीद्यमान सोच बस

कहैं एक एकन सों कहाँ जाइ का करीं

जी हाँ साहब. यह उनके समय के महान शासक अकबर महान के शासन की खूबियाँ हैं जो उन्होंने अपने ढंग से गिनाई हैं. वैसे आप तो जानते ही हैं, आज भी ऐसे इतिहासकारों की कोई कमी नहीं है, जो अकबर के शासनकाल की खूबियाँ गिनाते और पब्लिक से उनके प्रेम का बखान करते नहीं थकते. यक़ीन मानिए, आने वाले दिनों हमारे लोकप्रिय जननायकों के बारे में इतिहास में ऐसा ही लिखा जाएगा. जार्ज पंचम का प्रशस्तिगान तो हम पूरी श्रद्धा भाव के साथ अभी ही गाने लगे हैं.

(भाई, आज यहीं तक. बाक़ी कल, अगली किस्त में.....)
 

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Comments

  1. बहुत शोधपूर्ण रचना..इस विषय पर पी.एच.डी की मानद डिग्री से आप को नवाजा जाए तो सबसे पहले ताली बजाने में मेरा नाम प्रथम होगा...बहुत ही अच्छा लिखा है भाई...
    नीरज

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  2. बहुत ही सुंदर लिखा है. कबीर और तुलसीदास जी भी आज के माहौल में रहे होते तो वे सब ना कहते. फिर तो उनकी कूटनीति कुछ और ही होती. आभार.

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  3. राम जूता चलाने को लखनलाल को डेलीगेट करते थे। यह बड़े भाई की थोड़ी स्नॉबरी लगती है।
    जूता चलाने और डक करने में आत्मनिर्भरता जरूरी है।

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  4. जूता शास्त्र लिखने की आपकी कल्पना अनोखी है। और जिस अंदाज में आप लिख रहे हैं, जरा संभल के रहिएगा क्योंकि यहां जूते चलाने वालों की कमी नहीं है। जूते का दायरा बहुत बड़ा है, यदि आप इसे संपूर्णता में पकड़ लेगें तो निसंदेह आने वाले समय में आपको जूतों के हार से नवाजा जाएगा। जूतों को लेकर बहुत सारे गाने भी हैं जैसे बाबा बलेसर का गाने का बोल तो याद नहीं आ रहा लेकिन उसका लब्बोलुआब था मंदिर में आप जाते हैं तो हाथ भगवान के सामने जोड़ते है लेकिन ध्यान जूता पर होता है। प्रत्येक मंदिर में जूतों को संभालने वाली एक रोचक मशीनरी काम करती है। हो सके तो इस बिंदु पर ध्यान दिजीएगा। जूतों पर बहुत सारे कहावत भी है जैसे भिगा कर जूते मारना,जो आप कर रहे हैं। फ्रांसीसी रानी मेरी अनतेनियोत अपने दरबारियों पर जूते चलाती थी, उसकी जूतों में हीरे जड़े होते थे। जिस पर जूता चलता था जूता उसी को हो जाता था। हिन्दी फिल्मों में राजकुमार का ओपनिंग सीन उसके चमकते हुये जूतों से ही शुरु होता था। कई बार तो फिल्म के स्क्रीप्ट के केंद्र में जूते होते थे जैसे यादों की बारात। इस फिल्म का खलनायक अजीत अपने दोनों पैर में अलग-अलग नंबर का जूता पहनता था और यही उसकी पहचान थी। इन अलग-अलग नंबरो को देखकर ही धमेंद्र को पता चलता है कि उसका बाप का कातिल अजीत है। बाकी आप जूतों के मामलों में खुद ज्ञानी है, इस नये शास्त्र को पढ़ना अच्छा लग रहा है...कबीर से लेकर तुलसी तक की धारा बह रही है...लाजवाब

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  5. भाई नीरज जी

    धन्यवाद. आप्ने कह दिय और मैने मान लिय कि मुझे मिल गई पीएचडी.

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  6. बडे भाई गज्ञान दत्त जी!
    आपने बिलकुल सही बात कही. बडे भाई लोगों की स्नॉबरी हमारे देश में हज़ारों साल से चली आ रही है. अब देखिए न, आप लोगों ने भी जूता चलाने के लिए मुझे डेलीगेट कर दिया. ख़ैर छोटा होने के नाते मेरी मजबूरी है आप लोंगों का आदेश सिर-आंखों पर रख कर इस पुनीत कार्य में जुट जाऊँ, सो जुट गया.

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