अथातो जूता जिज्ञासा - 3
अब यह जो जार्ज पंचम का प्रशस्ति गान हम लम्बे समय से गाते चले आ रहे हैं, उसके पीछे भी वास्तव में जूता पूजन की हमारी लम्बी और गरिमापूर्ण परम्परा ही है. दरसल जूता पूजन की जो परम्परा हम गोसाईं के यहाँ देखते हैं, वह कोई शुरुआत नहीं है. सच तो यह है कि उन्होने उस परम्परा के महत्व को समझते हुए ही उसे उद्घाटित भर किया था. सच तो यह है कि जूता पूजन की परम्परा गोसाईं बाबा के भी बहुत पहले, ऋषियों के समय से ही चली आ रही है. हमारे आदि कवि वाल्मीकि ने ही जूते का पूजन करवा दिया था भगवान राम के अनुज भरत जी से. आप जानते ही होंगे भगवान राम के वनगमन के बाद जब भरत जी का राज्याभिषेक हुआ तो उन्होने राजकाज सम्भालने से साफ मना कर दिया. भगवान राम को वह मनाने गए तो उन्होने लौटने से मना कर दिया. आखिरकार अंत मैं उन्होने भगवान राम से कहा कि तो ठीक है. आप ऐसा करिए कि खुद न चलिए, पर अपनी चरणपादुका यानी खडाऊँ दे दीजिए. अब यह तो आप जानते ही हैं कि खडाऊँ और कुछ नहीं, उस जमाने का जूता ही है. सो उन्होने भगवान राम का खडाऊँ यानी कि जूता ले लिया.
बुरा न मानिए, लेकिन सच यही है कि भरत ने राजकाज सम्भालने में आनाकानी कोई भ्रातृप्रेम के कारण नहीं, बल्कि वस्तुत: इसीलिए की थी क्योंकि उनके पास ढंग का जूता नहीं था. वरना क्या कारण था कि वे जंगल में जाकर भगवान राम के जूते ले आते. यह बात वह अच्छी तरह से जानते थे कि जूते के बगैर और चाहे कोई भी काम हो जाए, पर राजकाज चलाने जैसा गम्भीर कार्य जूतों बगैर नहीं किया जा सकता. जूता जिज्ञासा के पहले खंड पर टिप्पणी करते हुए भाई नीरज जी ने बताया कि जूता ज़मीन से जुडी चीज़ है. आगे ज्ञानदत्त जी ने भी इसका समर्थन किया. अब मुझे लगता है कि भरत भाई ने यह बात पहले ही जान ली थी.
अगर नहीं जाना होता तो उन्हें भगवान राम के जूते की ज़रूरत क्यों महसूस होती. उन्हें पता था कि उनका तो पालन-पोषण लगातार राजमहल में ही हुआ था. वे कभी राजमहल से बाहर निकले ही नहीं. इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी ही तरह उनके जूतों को भी राजमहल से बाहर की दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं हो सकी है. जबकि भगवान राम और भाई लक्षमण बचपन में ही ऋषि विश्वामित्र के साथ जा कर महल से बाहर की दुनिया देख कर आ चुके है. इसलिए उनके जूतों को महल से बाहर की दुनिया भी पता चल चुकी है. उनके जूतों की ब्रैंडिग महल से बाहर की दुनिया के लिए भी हो चुकी है. लिहाजा उन जूतों का इस्तेमाल शासन के लिए किया जा सकता है.
दूसरी बात यह भी उन्हें पता रही होगी कि ज़मीन से सीधे जुडने में जूते बडे आदमियों के लिए बाधक होते हैं. बिलकुल चमचों की तरह. जबकि भगवान राम का वन गमन वस्तुत: ज़मीन से जुडाव के लिए ही था. सो उन्होने भगवान का जूता भी मांग लिया. अब भगवान श्री राम जूतों के न होने से सीधे अपने पैरों से ही ज़मीन के अनुभव ले सकते थे. भला सोचिए, अगर भगवान के पैरों में जूते रह गए होते तो कैसे अहिल्या पत्थर से स्त्री बन पातीं और कैसे भगवान शबरी के जूठे बेर खा पाते. अब तो युवराज कलावती के घर में साफ खाना भी खाने जाते हैं तो जूते पहन कर जाते हैं और शायद इसीलिए लौटकर नहाते भी हैं विदेशी साबुन से. क्या पता रोटी वे डिटोल से धोकर खाते हैं, या ऐसे ही खा लेते हैं.
(आज इतना ही, बाक़ी कल)
युवराज की सोच है कि डेटॉल माफिक ही एन्टी बेक्टेरिया का काम स्कॉच कर देती है..उसी से काम चला लेते हैं.
ReplyDeleteजूता जिज्ञासा के तहत कभी काफी पहले दर्ज किया था:
http://udantashtari.blogspot.com/2007/04/blog-post.html
मौका जब कभी लगे, नजर मार दिजियेगा. :)
ज़रूर नज़र मारेंगे सर. आज ही शाम को.
ReplyDeleteलगता है भरत चाहता था कि खडावु तो ले ही लें ताकि रामजी को जंगल में नंगे पैर चलवा कर पूरी ऐसी तैसी कर लें. व्यंग अच्छा लगा.
ReplyDeleteअब देखिये हमने प्रभावित हो कर पोस्ट पढ़ने के दौरान अपने जूते उतार दिये। सही समझ के लिये जूता पहनना भी शायद बाधक है! :)
ReplyDeleteआप जूता जिज्ञासा जगाये रहें - यह कामना है।
भईया शायद जुते कीमती हो, भरत भईया भी तो सयाने थे, अगर फ़िकर होती भाई की तो उन्हे बाटा के नये जुते भी साथ दे देता....
ReplyDeleteचलिये हमे क्या यह उन का निजी मामला है.
धन्यवाद
ज्ञान भैया
ReplyDeleteलगता है आप के इरादे नेक नहीं है. आख़िर किसके लिए निकाले हैं आपने जूते?
सही चल रहा है पंडितजी....कहीं पे निगाहें , कहीं पे निशाना...
ReplyDeleteगुडजी...