अथातो जूता जिज्ञासा- 4
अब तक आपने पढा
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अब साहब युवराज तो ठहरे युवराज. रोटी वे जैसे चाहें खाएं. कोई उनका क्या बिगाड लेगा. पर एक बात तो तय है. वह यह कि पादुका शासन की वह परम्परा आज तक चली आ रही है. चाहे तो आप युवराज के ही मामले में देख लें. अभी उन्हें बाली उमर के नाते शासन के लायक नहीं समझा गया और राजमाता ख़ुद ठहरीं राजमाता. भला राजमाता बने रहना जितना सुरक्षित है, सीधे शासन करना वैसा सुरक्षित कहाँ हो सकता है. लिहाजा वही कथा एक बार फिर से दुहरा दी गई. थोडा हेरफेर के साथ, नए ढंग से. अब जब तक युवराज ख़ुद शासन के योग्य न हो जाएं, तब तक के लिए राजगद्दी सुरक्षित.
हालांकि इस बार यह कथा जैसे दुहराई गई है अगर उस पर नज़र डालें और ऐतिहासिक सन्दर्भों के साथ पूरे प्रकरण को देखें तो पता चलता है कि यह कथा हमारे पूरे भारतीय इतिहास में कई बार दुहराई जा चुकी है. अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि कालांतर में वही पादुका दंड के रूप में बदल गई. उसे नाम दिया गया राजदंड.
वैसे दंड का मतलब होता है लाठी और लाठी की प्रशस्ति में हिन्दी के एक महान कवि पहले ही कह गए हैं :
लाठी में गुन बहुत हैं
सदा राखिए साथ
इस बात को सबसे सही तरीक़े से समझा है पुलिस वालों ने. लाठी उनके जीवन का वैसे ही अनिवार्य अंग है जैसे राजनेताओं के लिए शर्मनिरपेक्षता. वे खाकी के बग़ैर तो दिख सकते हैं, पर लाठी के बग़ैर नहीं. बिलकुल इसी तरह एक ख़ास किस्म के संतों के लिए भी लाठी अनिवार्य समझी जाती है. यही नहीं, पुराने ज़माने में राजा के हाथ में राजदंड थमाने का काम भी संतों की कोटि के लोग करते थे. उन दिनों उन्हें राजगुरु कहा जाता था. राजा के सिर पर मुकुट हो न हो, पर राजदंड अवश्य होता था.
बाद में जब भारत में अंग्रेज आए तो उन्होंने एक कानून बनाया और उसी कानून के तहत राजदंड को दो हिस्सों बाँट दिया. बिलकुल वैसे ही जैसे भारत की जनता को कई हिस्सों में बाँट दिया. उसका एक हिस्सा तो उन्होंने थमाया न्यायपालिका को, जिसे ठोंक कर न्यायमूर्ति लोग ऑर्डर-ऑर्डर कहा करते थे और दूसरा पुलिस को. एक के जिम्मे उन्होंने कानून की व्याख्या का काम सौंपा और दूसरे के जिम्मे उसके अनुपालन का. अब दंड के हाथ में रहते न तो एक की व्याख्या को कोई ग़लत ठहरा सकता और न दूसरे के अनुपालन के तरीक़े को.
अब कहने को अंग्रेज भले चले गए, लेकिन किसी के भी द्वारा शुरू की गई उदात्त परम्पराओं के निरंतर निर्वाह की अपनी उदात्त परम्परा के तहत हमने उस परम्परा को भी छोडा नहीं. हमारे स्वतंत्र भारत के स्वच्छन्द शासकों ने लाठी के शाश्वत मूल्य को समझते हुए उसे ज्यों का त्यों अपना लिया. इसीलिए लाठी के शाश्वत मूल्यों के निर्वाह की वह उदात्त परम्परा आज भी तथावत और निरंतर प्रवहमान है तथा हमारे तंत्र के वे दोंनों अनिवार्य अंग आज भी बिलकुल वैसे ही उन मूल्यों का निर्वाह करते चले आ रहे हैं. देश की योग्य जनता तो एक लम्बे अरसे से इन परम्पराओं के निर्वाह की आदी है ही, लिहाजा वह बिलकुल उसी तरह इस परम्परा के निर्वाह में अपना पूरा सहयोग भी देती आ रही है.
(शेष कल)
जूते की इज्जत अफ़जाई मे एक शेर पेशे खिदमत है नोश फ़रमाये -
ReplyDeleteन्यू कट जूता पहनिये इसकी उंची शान
तुरंत हाथ मे आ जाये बना दे बिगडे काम
:)
अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि कालांतर में वही पादुका दंड के रूप में बदल गई. उसे नाम दिया गया राजदंड.
ReplyDelete-----
यह तो शब्दों का सफर छाप चीज हो गयी! अजित वडनेरकर जैसे शुरू करते हैं मय सभ्यता के प्रस्तर खण्डों से और ला लपेटते हैं रेशमी दुपट्टे में!
आगे यह जूता बरास्ते राजदण्ड एके-४७ में तब्दील न हो जाये! :)
आगे यह जूता बरास्ते राजदण्ड एके-४७ में तब्दील न हो जाये! :)
ReplyDeleteअरे भ्राता श्री आप इतने जल्दी कलाइमेक्स पर क्यों पहुंचा दे रहे हैं! :)
पंगेबाज साहब!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद. आगे आपका शेर इनकलूद किया जाएगा.
ओहो...यानी इस पोस्ट की मार्फत ज्ञानदा को हम याद आ गए...यानी हम भी शब्दों का सफर की मार्फत ही.....
ReplyDelete:)))
अच्छी चल रही है जूता गाथा...शेष कल पढ़ेंगे।
जै जै