अथातो जूता जिज्ञासा-6
अजीत के अलग-अलग नाप वाले जूतों की बात पर मुझे याद आया मेरे एक धर्माग्रज विष्णु त्रिपाठी ने काफ़ी पहले जूतों पर एक कविता लिखी थी. पूरी कविता तो याद नहीं, लेकिन उसकी शुरुआती पंक्तियां कुछ इस तरह हैं : जूते भी आपस में बातें करते हैं. इसमें वह बताते हैं कि आंकडों के तौर पर एक ही नम्बर के दो जूते भी मामूली से छोटे-बडे होते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे दो जुड्वां भाइयों में बहुत सी समानताओं के होते हुए भी थोडा सा फ़र्क़ होता है. वह बताते हैं कि जूते आपस में बातें करते हुए एक दूसरे से शिकायतें भी करते हैं और ख़ास तौर से बाएं पैर के जूते को दाएं पैर के आभिजात्य से वैसा ही परहेज होता है जैसा धूमिल के शब्दों में दाएं और बाएं हाथ के बीच होता है.
आपको इस कविता की वैज्ञानिकता पर सन्देह हो सकता है, लेकिन भाई मुझे कोई सन्देह नहीं है. भला बताइए, जब जड होकर पेड तक बातें कर सकते हैं (और यह बात वैज्ञानिक रूप से सही साबित हो चुकी है) तो भला चेतन होकर जूते बातें क्यों नहीं कर सकते? वैसे करने को तो आप जूतों के चैतन्य पर भी सन्देह कर सकते हैं, लेकिन ज़रा सोचिए जूते अगर चेतन न होते तो चलते कैसे? कम से कम जूतों के चलने पर तो आपको कोई सन्देह नहीं होगा. हक़ीक़त तो यह है कि जूतों के बग़ैर आप ख़ुद नहीं चल सकते. अगर इसके बावज़ूद आपको जूतों के चलने पर सन्देह हो तो आप किसी महत्वपूर्ण मसले पर चलने वाली संसद की कार्यवाही देख सकते हैं.
इस तरह यह साबित हुआ कि जूते चेतन हैं और जब वे चेतन हैं तो उनके बातें करने पर कोई सन्देह किया ही नहीं जा सकता. बल्कि विष्णु जी तो केवल जूतों के आपस में बातें करने की बात करते हैं, पर मेरा तो मानना यह है जूते मनुष्यों से भी बातें करते हैं. भला बताइए, अगर ऐसा न होता तो कुछ लोग ऐसा कैसे कहते कि अब तो लगता है कि जूतों से ही बातें करनी पडेंगी. जी हाँ हुज़ूर! जूतों से बातें करना हमारे समाज में एक लोकप्रिय मुहावरे के रूप में प्रतिष्ठित है. यह तो आप जानते ही हैं कि मुहावरे कोई ऐसी-वैसी चीज़ नहीं, बल्कि इनमें हमारे लोक का साझा और संचित अनुभव छिपा होता है.
इस मुहावरे पर क़ायदे से ग़ौर करें तो ऐसा लगता है कि जूता कोई ऐरा-गैरा नहीं, बल्कि बडा साहब है. क्योंकि आम तौर पर लोग जूते से बात करने की तभी सोचते हैं जब आसानी से कोई काम नहीं होता है. अकसर यह पाया गया है कि आदरणीय श्री जूता सर से बात करते ही कई मुश्किल काम भी आसानी से हो जाते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे बडे-बडे साहबों से बातें करने पर असम्भव लगने वाले काम भी चुटकी बजाते हो जाते हैं. हालांकि मुझे ऐसा लगता है कि यह मुहावरा बहुत पुराना नहीं है. क्योंकि अगर यह कबीर के ज़माने में रहा होता तो उन्होंने साहब से सब होत है लिखने की ग़लती न की होती. छन्द की दृष्टि से जितनी मात्राएं साहब शब्द में हैं, जूता या जूती शब्द में भी उतनी ही मात्राएं हैं.
यह भी हो सकता है कि जूते की यह अलौकिक क्षमता इधर ही पता चली हो. अब तो यह देखा जाता है कि कुछ लोग सिर्फ़ जूतों से ही बातें करने के आदी हो गए हैं. यह भी पाया जाता है कि उनके सारे काम चुटकी बजाते हो जाते हैं. अडियल से अडियल अफसर भी उनकी फाइल रोकने की ग़लती कभी नहीं करता और यहाँ तक कि छोटी-मोटी कमियों की खानापूरी तो ख़ुद कर देता है. यह अलग बात है कि बरास्ता या मार्फ़त जूता किसी से बात करना सबके बस की बात नहीं है. अगर कोई मामूली हैसियत में पैदा हुआ हो और वह इस लायक बनना चाहे कि वह जूते से बातें कर सके तो यह लायकियत हासिल करने में ही उसे बहुत सारे जूते खाने पड जाते हैं. इसीलिए कुछ मामलों में जूते खाना भी काबिलीयत का एक पैमाना है.
राजनीतिक पार्टियां भी टिकट देते वक़्त इस बात का पूरा ख़याल रखती हैं कि कौन से कैंडीडेट के जूते कितने मजबूत और चलेबल हैं. जनता का वोट भी आम तौर पर उन्हीं महापुरुषों की झोली में जाता है जिनके जूतों में ज़्यादा मजबूती और चमक तथा ज़बर्दस्त रफ़्तार होती है. अब अगर कुछ जगहों से कमज़ोर जूतों वाले जनप्रतिनिधि चुन कर आने लगे हैं तो उसके पीछे भी सच पूछिए तो चुनाव आयोग के जूते का ही प्रताप होता है. यही क्यों, ग़ौर करें तो आप पाएंगे कि टीएन शेषन से पहले चुनाव आयोग को जानता ही कौन था! और टीएन शेषन के समय से अगर इस आयोग को जाना जाने लगा तो क्यों? भाई बात साफ़ है, शेषन के मजबूत, चमकदार और तेज़ रफ़्तार जूतों तथा उन्हें चलाने की उनकी प्रबल सुरुचि के कारण.
(शेष कल)
वाह बंधुवर... जूत पुराण के छटे अध्याय से अभिभूत हूं... जय हो..
ReplyDeleteअच्छा है....आश्चर्य इस बात का कि अभी और भी बाकी है....कितना लिखा जा सकता है जूत्ते पर...
ReplyDeleteवाह, बहुत खूब जूता पुराण् इस पर तो शोध भी किया जा सकता है.
ReplyDeleteसंगीता जी आपने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान दिलाया था. पहली ही पोस्ट पर और वह अभी बकाया ही है. भला जिस दुनिया में जूता ही व्यवस्था का मूलाधार हो, वहां जूते पर कितना भी लिखा जाए, वह तो कम ही पड़ेगा.
ReplyDeleteचक्र पूरा चल चुका है, सिर जूते पर झुका है!
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