हिटलर,लेनिन और सिफलिसवाद
(गणतंत्र दिवस पर विशेष)
सिफलिस को लेकर इतिहास में खूब खेल खेला गया है, और जबरदस्त तरीके से खेला गया है। विश्व नायकों को भी इसमें लपेटने की कोशिश की गई है-हिटलर और लेनिन भी इससे अछूते नहीं थे। अपने विरोधियों को सिफलिस का मरीज बताना इंटरनेशनल डिप्लोमेसी का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। किसी महानायक को सिफलिस है या नहीं इसको लेकर अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, मनोविज्ञान की दुनिया में इसका इस्तेमाल किया जाये तो और बात है।
वैसे फ्रायड ने एडिपस कांप्लेक्स के नाम पर मनोविज्ञान की दुनिया में जो गंदगी उड़ेली है उसे देखते हुये कहा जा सकता है कि फ्राडय को न तो पुरातन कहानियों की समझ थी और न ही मन और विज्ञान की। एडिपस के सिर पर शुरु से ही दुर्भाग्य मडरा रहा था, इसी के वश में आकर उसने अपने पिता की हत्या कर दी थी और फिर मां के साथ उसकी शादी हुई, जिसे फ्रायड ने एडिपस कांप्लेक्स का नाम देकर पूरी दुनिया को गुमराह किया। फ्रायड की सेक्सुअल थ्योरी की सच्चाई चाहे जो भी रही हो,लेकिन उसने अपने थ्योरी के लिए एक पौराणिक कहानी का गलत तरीके से इस्तेमाल किया। अपने पिता की हत्या के पहले एडिपस अपनी मां से नहीं मिला था। उसे अपनी मां के बारे में गुमान तक नहीं था,फिर एडिपस कांप्लेक्स जैसे शब्द का इस्तेमाल क्यों ? क्या यह फ्राडय की अज्ञानता थी ? या वह जानबूझ कर अपनी बेतरतीब थ्योरी को एक मिथक से जोड़कर हो हल्ला जैसा माहौल क्रिएट कर रहा था? हिटलर और लेनिन को सिफलिश का शिकार बताने वाला मामला भी कुछ इसी तरह का है। यदि हम मान भी लेते हैं कि इन महानयकों को सिफलिस था, तो क्या विश्व इतिहास में इनका महत्व कम हो जाता है?
लेनिन की सिफलिस का लाल क्रांति पर कोई प्रभाव पड़ा- जीरो.
हिटहर की सिफलिस का नाजी मूवमेंट पर कोई प्रभाव पड़ा- जीरो.
फिर इतिहास में सिफलिस की आवश्यकता क्यों? इतिहास को सिफलिसवाद से जोड़ने कौन लोग है? और इस नजरिये का इतिहास में कितना महत्व दिया जाना चाहिये? शायद-जीरो।
सिफलिसवाद को स्थापित करने के लिए मेडिकल रिपोर्टों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है। इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर विश्व नायकों की मानसिकता को भी उकेरने की कोशिश की गई है। हिटलर वेश्याओं से घृणा करता था, इसकी व्यख्या कई रुपो में की जा सकती है, जिसका विश्व को प्रभावित करने वाली घटनाओं से कोई लेना देना नहीं है, वैसे मनोवैज्ञानिक उलझन के लिए दिल बहलाने का ख्याल गालिब अच्छा है।
हिटलर के चरित्र को समझने के लिए प्रथम विश्व युद्ध (1914 से 1918 तक) के दौरान इंग्लैंड के प्रचार तंत्र पर हिटहर के नजरिये को समझना होगा। सीमा पर एक सैनिक के रूप में ब्रिटेन के प्रचार तंत्र की शक्ति को देखकर वह अचंभित रह गया था। किताबों को पढ़ने की कला वह बहुत पहले ही सीख चुका था और इसके प्रति वह एक सुलझी हुई सोच रखता था. दुनिया की नजर में उसकी सोच गलत हो सकती है,अपने तरीके से सोचना का पूरा अधिकार है सिफलिसवादी इतिहासकारों को।
उस वक्त वह एक सैनिक के रूप में ब्रिटेन की गोलियां झेल रहा था--दन, दना, दन...ठायं, ठायं, ऊपर से ब्रिटेन का कुशल प्रचार तंत्र हमला कर रहा था, जो अन्य जर्मन सैनिकों के साथ-साथ उसके मनोबल को भी तोड़ रहा था। युद्ध का प्रचार तंत्र वह झेले हुये था, वह भी सीमा पर। उसका यह अनुभव उसे विश्व इतिहास में एक स्थापित पद के लिए तैयार कर रहा था, इस बात से दुनिया का कोई भी वाद इन्कार नहीं कर सकता, जो इन्कार करता है वह सिफलिसवाद है और उन्हें भारत का सिफलिस दिखाई नहीं दे रहा है, या फिर देखना ही नहीं चाहते हैं।
लेनिन को लेकर भी सिफलिस के बहुत सारे किस्से हैं, दोनों दो धुव्र थे, दो धारायें थी, जो आपस में टकराती थी, लेकिन दोनों का मैकेनिज्म एक ही था और दोनों के खिलाफ सिफलिसवाद का हमला हुआ, उस तंत्र द्वारा जो दोनों के मध्य में था। सेकेंड वर्लड वार के दौरान दुनिया में दो तरह के मैकेनिज्म थे और तीन तरह के वाद । हिटलरवाद और लाल फिलॉसफी दो अलग-अलग धुव्र थे, जबकि बीच में एक सिफलिसवाद खड़ा था। ये तीनों वाद लोकतंत्र और विश्व कल्याण के नाम पर ही जंग लड़ रहे थे। लोकतंत्र और विश्व कल्याण को लेकर तीनो का अपना-अपना नजरिया था। तंत्र के मामले में हिटलरवाद और लाल फिलॉसफी एक ली जमीन पर खड़े थे, इन दोनों का खत्म करने का सबसे अच्छा रास्ता था कि इन्हें आपस में टकरा दो और एक सोची समझी रणनीति के तहत एसा ही किया गया। सही मायने में दोनों को एक-दूसरे के सामने कर दिया गया और प्रचारतंत्र द्वारा दोनों महारथियों को सिफलिस का शिकार साबित करने के लिए एक लंबा अभियान छेड़ा गया, जैसा कि उस प्रचार तंत्र का परम धर्म था।
एडॉल्फ प्रचार तंत्र को समझता था, साथ में वह एक अच्छा प्रशासक भी था. उसके आइडियोलॉजी चाहे जो भी रहे हो, लेकिन उसका तंत्र अपने समय में बहुत ही असरकारक था। नाजीवादी तंत्र की बनावट शानदार थी, इंटेलिजेंस से लेकर नागरिक तंत्र तक। जर्मनी के संशासधनों का उसने एक लक्ष्य के लिए इस्तेमाल किया, वह था जर्मनी का गौरव, जिसकी नीव बिस्मार्क ने डाली थी। हिटलर बिस्मार्क की अगली कड़ी था,और हालात के थपेड़े उसे इसी काम के लिए तैयार कर रहे थे, और वह खुद इन थपेड़ों पर सवार होकर जर्मनी का भाग्य विधाता बनने का सपना देख रहा था, साथ ही अपने सपनों पर यकीन भी कर रहा था,और धीरे -धीरे आम जर्मन भी उसके सपनों पर यकीन करने लगे थे।
वह अपने दिमाग में मचने वाले उथल पुथल को पूरे आवेग के साथ लोगों के सामने रखता था, वह साबित था, खूब बोलता था। हिटलर अपनी बातों को बेबाक तरीके से होगों के सामने रखता था और उस समय के माहौल में उस जो अच्छा लगता था उस ओर मजबूत कदम बढ़ाता था। मीन कैंफ पर जर्मनी में प्रतिबंध क्यों लगा है? क्योंकि जर्मन जनता उसे फिर से पढ़ कर पागल न हो जाये। वैसे जर्मनी के फिर से एकीकरण की पड़ताल करे ,समझ में आ जाएगा कि बर्लिन के बीच दीवार क्यो खड़ी की गई थी।
लेनिन की सिफलिस का लाल क्रांति पर कोई प्रभाव पड़ा- जीरो.
हिटहर की सिफलिस का नाजी मूवमेंट पर कोई प्रभाव पड़ा- जीरो.
फिर इतिहास में सिफलिस की आवश्यकता क्यों? इतिहास को सिफलिसवाद से जोड़ने कौन लोग है? और इस नजरिये का इतिहास में कितना महत्व दिया जाना चाहिये? शायद-जीरो।
सिफलिसवाद को स्थापित करने के लिए मेडिकल रिपोर्टों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है। इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर विश्व नायकों की मानसिकता को भी उकेरने की कोशिश की गई है। हिटलर वेश्याओं से घृणा करता था, इसकी व्यख्या कई रुपो में की जा सकती है, जिसका विश्व को प्रभावित करने वाली घटनाओं से कोई लेना देना नहीं है, वैसे मनोवैज्ञानिक उलझन के लिए दिल बहलाने का ख्याल गालिब अच्छा है।
हिटलर के चरित्र को समझने के लिए प्रथम विश्व युद्ध (1914 से 1918 तक) के दौरान इंग्लैंड के प्रचार तंत्र पर हिटहर के नजरिये को समझना होगा। सीमा पर एक सैनिक के रूप में ब्रिटेन के प्रचार तंत्र की शक्ति को देखकर वह अचंभित रह गया था। किताबों को पढ़ने की कला वह बहुत पहले ही सीख चुका था और इसके प्रति वह एक सुलझी हुई सोच रखता था. दुनिया की नजर में उसकी सोच गलत हो सकती है,अपने तरीके से सोचना का पूरा अधिकार है सिफलिसवादी इतिहासकारों को।
उस वक्त वह एक सैनिक के रूप में ब्रिटेन की गोलियां झेल रहा था--दन, दना, दन...ठायं, ठायं, ऊपर से ब्रिटेन का कुशल प्रचार तंत्र हमला कर रहा था, जो अन्य जर्मन सैनिकों के साथ-साथ उसके मनोबल को भी तोड़ रहा था। युद्ध का प्रचार तंत्र वह झेले हुये था, वह भी सीमा पर। उसका यह अनुभव उसे विश्व इतिहास में एक स्थापित पद के लिए तैयार कर रहा था, इस बात से दुनिया का कोई भी वाद इन्कार नहीं कर सकता, जो इन्कार करता है वह सिफलिसवाद है और उन्हें भारत का सिफलिस दिखाई नहीं दे रहा है, या फिर देखना ही नहीं चाहते हैं।
लेनिन को लेकर भी सिफलिस के बहुत सारे किस्से हैं, दोनों दो धुव्र थे, दो धारायें थी, जो आपस में टकराती थी, लेकिन दोनों का मैकेनिज्म एक ही था और दोनों के खिलाफ सिफलिसवाद का हमला हुआ, उस तंत्र द्वारा जो दोनों के मध्य में था। सेकेंड वर्लड वार के दौरान दुनिया में दो तरह के मैकेनिज्म थे और तीन तरह के वाद । हिटलरवाद और लाल फिलॉसफी दो अलग-अलग धुव्र थे, जबकि बीच में एक सिफलिसवाद खड़ा था। ये तीनों वाद लोकतंत्र और विश्व कल्याण के नाम पर ही जंग लड़ रहे थे। लोकतंत्र और विश्व कल्याण को लेकर तीनो का अपना-अपना नजरिया था। तंत्र के मामले में हिटलरवाद और लाल फिलॉसफी एक ली जमीन पर खड़े थे, इन दोनों का खत्म करने का सबसे अच्छा रास्ता था कि इन्हें आपस में टकरा दो और एक सोची समझी रणनीति के तहत एसा ही किया गया। सही मायने में दोनों को एक-दूसरे के सामने कर दिया गया और प्रचारतंत्र द्वारा दोनों महारथियों को सिफलिस का शिकार साबित करने के लिए एक लंबा अभियान छेड़ा गया, जैसा कि उस प्रचार तंत्र का परम धर्म था।
एडॉल्फ प्रचार तंत्र को समझता था, साथ में वह एक अच्छा प्रशासक भी था. उसके आइडियोलॉजी चाहे जो भी रहे हो, लेकिन उसका तंत्र अपने समय में बहुत ही असरकारक था। नाजीवादी तंत्र की बनावट शानदार थी, इंटेलिजेंस से लेकर नागरिक तंत्र तक। जर्मनी के संशासधनों का उसने एक लक्ष्य के लिए इस्तेमाल किया, वह था जर्मनी का गौरव, जिसकी नीव बिस्मार्क ने डाली थी। हिटलर बिस्मार्क की अगली कड़ी था,और हालात के थपेड़े उसे इसी काम के लिए तैयार कर रहे थे, और वह खुद इन थपेड़ों पर सवार होकर जर्मनी का भाग्य विधाता बनने का सपना देख रहा था, साथ ही अपने सपनों पर यकीन भी कर रहा था,और धीरे -धीरे आम जर्मन भी उसके सपनों पर यकीन करने लगे थे।
वह अपने दिमाग में मचने वाले उथल पुथल को पूरे आवेग के साथ लोगों के सामने रखता था, वह साबित था, खूब बोलता था। हिटलर अपनी बातों को बेबाक तरीके से होगों के सामने रखता था और उस समय के माहौल में उस जो अच्छा लगता था उस ओर मजबूत कदम बढ़ाता था। मीन कैंफ पर जर्मनी में प्रतिबंध क्यों लगा है? क्योंकि जर्मन जनता उसे फिर से पढ़ कर पागल न हो जाये। वैसे जर्मनी के फिर से एकीकरण की पड़ताल करे ,समझ में आ जाएगा कि बर्लिन के बीच दीवार क्यो खड़ी की गई थी।
हिटलर लाल सेना को एक बंकर में मरा हुआ मिला था, उसके विरोधी उसे जिंदा पाने के लिए तरस गये थे। वह एक बहादुर सैनिक की तरह अंत तक अपने मोर्चे पर डटा रहा था, चाहे मोर्चा कितना भी क्यों न सिकुड़ती गई। हिटलर एक सैनिक की मौत की मरा था, (चंद्रशेखर आजाद जैसी मौत थी हिटलर की। ) इससे सिफलिसवादी इन्कार नहीं कर सकते। दुनिया भर में किसी भी सैनिक से पूछ कर देख ले, बंकर में हिटलर की मौत के लिए कोई भी सैनिक हजारों बार जनम लेना चाहेगा। बर्लिन चारों तरफ से घिरी हुई थी और वह एमा ब्राउन से शादी कर रहा था, अपनी जानी हुई मौत के ठीक पहले.एसा कोई कलाकर ही कर सकता था, रोमांटिसिज्म की यह परकाष्ठा थी! इतना कलात्मक मौत तो अच्छे-अच्छे सेना नायकों को भी नसीब नहीं हुई है। उस वक्त पूरी दुनिया रणभूमि बनी हुई थी और हिटलर केंद्र में था। क्या विश्व इतिहास में समय इतना देर किसी नायक पर टिका है ? उसके समय का कांटा उसी पर टिका हुआ था, एक साथ वह अनगिनित घटनाओं के केंद्र में था।
हिटलर के समय जर्मनी में लोहे की खपत बढ़ गई थी, और यदि लोहे की खपत किसी देश के विकास का पैमाना हो सकता है, तो जर्मनी निश्चित रूप से अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर था। हिटलर के समय जर्मनी लोहा खाने वाले देशों में अग्रणी था। उसकी योजना जर्मनी के हर व्यक्ति तक कार पहुंचाने की थी। युद्ध के दौरान वह बर्लिन में एक शानदार स्टेडियम बनाने के लिए खुद नक्शे पर घंटों काम करता था, क्योंकि उसे यकीन था इस युद्ध में सिर्फ और सिर्फ जर्मनी की जीत होगी। और जीत का जश्न इसी स्टेडियम में मनाया जाएगा। उसे नहीं पता था कि वह प्रकृति के हाथों मार खाने वाला है, नेपोलियन बोनापार्ट की तरह। पूर्वी फ्रंट को पूरी तरह से तहस-नहस करने के बाद इस्टर्न फ्रंट की तरफ उसके मूव को लेकर चाहे जो बहसबाजी हो, पूर्वी फ्रंट पर हमले की योजना उसने बहुत पहले बना ली थी,स्टालिन से हाथ मिलाने के बहुत पहले।
काम करने वाली उसकी मशनरी शानदार थी, जो वह सोचता था वही जमीन पर दिखाई देता था, सैंकड़ों हाथ उसकी योजनाओं को संभालने के लिए लग जाते थे। मानवीय श्रंखला का उसने शानदार इस्तेमाल किया था, ठीक लेनिन की मशीनरी की तरह।
हिटलर ने जर्मनी में एक सफल क्रांति को अंजाम दिया था, वह भी डेमोक्रेटिक तरीके से। वाइमर रिपब्लिक को कंट्रोल करते हुये एक मजबूत तंत्र की स्थापना की थी। कभी-कभी जनता की इच्छा और कभी कभी जनता की दुर्बलता सैनिक तानाशाली का मार्ग प्रशस्त करती है। हिटलर की तानाशाही का आधार जनता की इच्छा थी। समय की मांग वहां की जनता को सैनिक तानाशाह की ओर आकर्षित कर रहा था और इतिहास में इस तरह के मोड़ विरले ही देखने को मिलते हैं। अपने आप को क्रांतिपुत्र कहने वाला नेपोलियन ने फ्रांस के ताज को जनता की इच्छा को देखते हुये ही अपने सिर पर रखा था। हिटलर के संदर्भ में कई बातें हैं, जिन्हें परत दर परत खोलने और टटोलने की जरूरत है।
सिफलिसवाद से इतर हटकर क्या हम हिटलर और लेनिन जैसे महानयकों को भारतीय नजरिये से परखने की स्थिति में हैं ? क्या हम सिफलिसवादी प्रचार तंत्र के प्रभाव से मुक्त हैं ? भारत को अपनी पूरी मौलिकता के साथ विश्व इतिहास के नायकों को उलट-पलटकर ठोक बजाकर परखना होगा, तभी हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सही डग भर सकेंगे। भारत की अपनी जमीन है, अपने तौर तरीके है अपना मिजाज है। यदि हिटहर और लेनिन भारत की मनस्थिति के अनुकूल नहीं है तो निसंदेह उन्हें अरब सागर में फेंक दिया जाना चाहिये, लेकिन इसके लिए निरपेक्ष मूल्यांकन की जरूरत है। यह तभी संभव है जब भारत सिफलिसवाद से मुक्त हो जाएगा।
व्यक्तिगत जीवन में भले ही लेनिन सिफलिस का शिकार रहा हो, क्या हम इस बात से इनकार कर सकते हैं कि उसने रूस में लाल क्रांति का सफल नेतृत्व किया और दुनिया के आर्थिक इतिहास में पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात किया। इतिहास की तारीखों में लेनिन के नाम कई महान घटनाये दर्ज हैं, भले ही इन घटनाओं में हजारों लोगों की लाशे भी शामिल हो। समय जब करवट लेता है तो लोगों की बलि चढ़ती ही है। प्रश्न है भारत किस मोड़ पर खड़ा है। एक बार इसकी जमीन पकड़ ले, फिर मंजिल खुद ब खुद मिल जाएगी।
हिटलर के समय जर्मनी में लोहे की खपत बढ़ गई थी, और यदि लोहे की खपत किसी देश के विकास का पैमाना हो सकता है, तो जर्मनी निश्चित रूप से अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर था। हिटलर के समय जर्मनी लोहा खाने वाले देशों में अग्रणी था। उसकी योजना जर्मनी के हर व्यक्ति तक कार पहुंचाने की थी। युद्ध के दौरान वह बर्लिन में एक शानदार स्टेडियम बनाने के लिए खुद नक्शे पर घंटों काम करता था, क्योंकि उसे यकीन था इस युद्ध में सिर्फ और सिर्फ जर्मनी की जीत होगी। और जीत का जश्न इसी स्टेडियम में मनाया जाएगा। उसे नहीं पता था कि वह प्रकृति के हाथों मार खाने वाला है, नेपोलियन बोनापार्ट की तरह। पूर्वी फ्रंट को पूरी तरह से तहस-नहस करने के बाद इस्टर्न फ्रंट की तरफ उसके मूव को लेकर चाहे जो बहसबाजी हो, पूर्वी फ्रंट पर हमले की योजना उसने बहुत पहले बना ली थी,स्टालिन से हाथ मिलाने के बहुत पहले।
काम करने वाली उसकी मशनरी शानदार थी, जो वह सोचता था वही जमीन पर दिखाई देता था, सैंकड़ों हाथ उसकी योजनाओं को संभालने के लिए लग जाते थे। मानवीय श्रंखला का उसने शानदार इस्तेमाल किया था, ठीक लेनिन की मशीनरी की तरह।
हिटलर ने जर्मनी में एक सफल क्रांति को अंजाम दिया था, वह भी डेमोक्रेटिक तरीके से। वाइमर रिपब्लिक को कंट्रोल करते हुये एक मजबूत तंत्र की स्थापना की थी। कभी-कभी जनता की इच्छा और कभी कभी जनता की दुर्बलता सैनिक तानाशाली का मार्ग प्रशस्त करती है। हिटलर की तानाशाही का आधार जनता की इच्छा थी। समय की मांग वहां की जनता को सैनिक तानाशाह की ओर आकर्षित कर रहा था और इतिहास में इस तरह के मोड़ विरले ही देखने को मिलते हैं। अपने आप को क्रांतिपुत्र कहने वाला नेपोलियन ने फ्रांस के ताज को जनता की इच्छा को देखते हुये ही अपने सिर पर रखा था। हिटलर के संदर्भ में कई बातें हैं, जिन्हें परत दर परत खोलने और टटोलने की जरूरत है।
सिफलिसवाद से इतर हटकर क्या हम हिटलर और लेनिन जैसे महानयकों को भारतीय नजरिये से परखने की स्थिति में हैं ? क्या हम सिफलिसवादी प्रचार तंत्र के प्रभाव से मुक्त हैं ? भारत को अपनी पूरी मौलिकता के साथ विश्व इतिहास के नायकों को उलट-पलटकर ठोक बजाकर परखना होगा, तभी हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सही डग भर सकेंगे। भारत की अपनी जमीन है, अपने तौर तरीके है अपना मिजाज है। यदि हिटहर और लेनिन भारत की मनस्थिति के अनुकूल नहीं है तो निसंदेह उन्हें अरब सागर में फेंक दिया जाना चाहिये, लेकिन इसके लिए निरपेक्ष मूल्यांकन की जरूरत है। यह तभी संभव है जब भारत सिफलिसवाद से मुक्त हो जाएगा।
व्यक्तिगत जीवन में भले ही लेनिन सिफलिस का शिकार रहा हो, क्या हम इस बात से इनकार कर सकते हैं कि उसने रूस में लाल क्रांति का सफल नेतृत्व किया और दुनिया के आर्थिक इतिहास में पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात किया। इतिहास की तारीखों में लेनिन के नाम कई महान घटनाये दर्ज हैं, भले ही इन घटनाओं में हजारों लोगों की लाशे भी शामिल हो। समय जब करवट लेता है तो लोगों की बलि चढ़ती ही है। प्रश्न है भारत किस मोड़ पर खड़ा है। एक बार इसकी जमीन पकड़ ले, फिर मंजिल खुद ब खुद मिल जाएगी।
सुन्दर ब्लॉग...सुन्दर रचना...बधाई !!
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60 वें गणतंत्र दिवस के पावन-पर्व पर आपको ढेरों शुभकामनायें !! ''शब्द-शिखर'' पर ''लोक चेतना में स्वाधीनता की लय" के माध्यम से इसे महसूस करें और अपनी राय दें !!!
इन नायकों से असहमत हो सकते हैं, पर इनके नयकत्व को नकारना तभी उचित है जब हम खुद टावरिंग पर्सनालिटी बन जायें!
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