अथातो जूता जिज्ञासा-12
यह तो आप जानते ही हैं कि आजकल अपने देश में ऐसी सभी कलाओं के व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था हो गई है जिनकी कुछ भी उपयोगिता है. वैसे पहले ये कलाएं लोग अपने-आप सीखते थे. या तो प्रकृति प्रदत्त अपनी निजी प्रतिभा के दम पर, या फिर अपने कुल खानदान की परम्परा से या फिर किसी योग्य व्यक्ति को गुरु बना कर. हालांकि यह प्रक्रिया बहुत ही मुश्किल थी. पहली तो मुश्किल इसमें यह आती थी कि यदि किसी योग्य पात्र में स्वयमेव यह प्रतिभा हो तो भी उसे इसका ठीक-ठीक उपयोग करने के लिए पहले कुछ प्रयोग करने पडते थे. इन प्रयोगों के दौरान शुरुआती दौर में बहुत सारी ग़लतियां होती थीं. ख़ुद ही ग़लती कर-कर के आदमी को यह सब सीखना पडता था. इसके बावजूद वह इसमें पूर्ण रूप से निष्णात नहीं हो पाता था. क्योंकि वस्तुत: उन्हें उसकी जानकारी ही सिस्टेमेटिक नहीं हो पाती थी. जो लोग अपनी कुल परम्परा ऐसी महान विद्याएं सीखते थे उन्हें भी पूरी जानकारी इसलिए नहीं हो पाती थी क्योंकि उन्हें दूसरे गणमान्य कुलों के प्रयोगों और अनुप्रयोगों की जानकारी नहीं हो पाती थी. वस्तुत: कुल परम्पराओं के ज्ञान और पर्यवेक्षण की भी सीमा होती है, बिलकुल वैसे ही जैसे व्यक्तियों की सीमा होती थी.
निजी तौर पर किसी को गुरु बना कर सीखने में झंझट यह थी कि उन दिनों न तो असली-नकली गुरुओं की पहचान के लिए कोई डिग्री-डिप्लोमा का इंतजाम होता था और न ही आईएसओ से सर्टिफिकेशन की जैसी कोई व्यवस्था ही थी. अगर बग़ैर गारंटी के ही सही, किसी तरह से किसी गुरु की व्यवस्था बना ही ली गई तो भी इस बात का कोई पुख्ता भरोसा नहीं था कि जिसे आप गुरु चुनें वह आपको भी बतौर शिष्य स्वीकार कर ले. कोई शिष्य के तौर पर किसी को स्वीकार कर ले तो भी वह कुछ सिखा ही दे यह भी उन दिनों कहना मुश्किल था. ये गुरु लोग वास्तव में बडे गुरू टाइप के हुआ करते थे. सब कुछ सिखा कर भी कुछ दाँव तो बचा ही लिया करते थे अपने पास. इस तरह अंतत: फिर लोगों का ज्ञान आधा-अधूरा ही रह जाता था.
जूता संबंधी कलाओं की उपादेयता और इसमें प्रशिक्षण के संकट को देखते हुए आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत की सरकारों ने यह निर्णय लिया कि इस दिशा में व्यवस्थित रूप से काम किया जाए. ऐसी मूल्यवान कला कुछ कुलों या व्यक्तियों तक सीमित न रह कर सर्वव्यापक हो सके और उच्च कोटि की प्रतिभाएं निखर कर समाज के सामने आ सकें इसके लिए ज़रूरी समझा गया कि इस दिशा में व्यावसायिक प्रशिक्षण का इंतजाम बनाया जाए. इस क्रम में सरकारों ने जब इतिहास पर नज़र डाला तो पाया कि परम श्रद्धेय लॉर्ड मैकाले द्वारा दी गई शिक्षा व्यवस्था में इसके मूल तंतु छिपे हुए हैं, ज़रूरत सिर्फ़ उन्हें नए दौर के अनुरूप डेवलप करने भर की है. फिर क्या पूछ्ना था. शुरू हो गए इस दिशा में महत्तर प्रयास.
सबसे पहली व्यवस्था तो यह बनाई गई कि क्लर्क पैदा करने वाली लॉर्ड मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को यथावत जारी रखा गया. लेकिन मूढ तो हर जगह और हर दौर में होते रहे हैं और होते रहेंगे. और वे हमेशा बाधक भी बनते रहे हैं, किसी भी उत्तम प्रयास के प्रसार में. तो वे इसमें भी बाधक बने. इसमें बाधक बने वे लोग जिन पर नई-नई मिली आज़ादी का नशा तारी था. अपने देश की महान परम्परा और संस्कृति के फेर में उन्होने अंग्रेजी पढने से मना कर दिया. दुर्भाग्य से उन दिनों देश में ऐसे मूढों की तादाद बहुत ज़्यादा थी. नतीजा यह हुआ कि व्यवस्था पर चरमराने जैसा संकट मडराता दिखने लगा. लिहाजा हमारे समझदार कर्णधारों ने दूसरी व्यवस्था बनानी शुरू की और वह थी उस समय जैसे-तैसे चल रही अपनी शिक्षा व्यवस्था को अधिकाधिक बेकार बनाने की.
इसके तहत सबसे पहले तो उन्होने ऐसे स्कूलों की डिग्रियों को फालतू बनाया. फिर वहाँ शिक्षा के स्तर को अधिकाधिक गिराया. लगभग नष्ट ही कर दिया. इसके बाद भी जो लोग उसके भूत से चिपके रहे उनके मन में हर देसी चीज़ के प्रति हिकारत और विदेशी ख़ास तौर से अंग्रेजी चीज़ों के प्रति उच्चता की भावना भरनी शुरू की. अति सुरक्षा की चाह रखने वाली देश की आम जनता के मन में यह बात बैठाई कि दुनिया में जीने का एक ही माध्यम है और वह है नौकरी तथा नौकरी हासिल करने का एक ही उपाय है और वह है अंग्रेजी. ऊपर वालों की कृपा से वे इसमें सफल रहे और कालांतर में देश में चतुर्दिक अंग्रेजी शिक्षा का ही बोलबाला नए सिरे से स्थापित हो गया. अब यह शिक्षा यहाँ कोई शौक़ या चॉयस की बात नहीं रह गई है, बल्कि हर ज़िम्मेदार भारतीय नागरिक की ज़रूरत और ज़रूरत से ज़्यादा मजबूरी बन चुकी है. ग़ुलाम भारत में हो सकता है कि आप अंग्रेजी पढे बग़ैर जी लेते होते, पर साहब आज़ाद भारत में आप जीना चाहें और अंग्रेजी न पढें, विरोधाभास अलंकार का इससे उत्तम उदाहरण मिलना मुश्किल है.
अब तो वह इस क़दर जड पकड चुका है कि अगर लॉर्ड मैकाले की आत्मा स्वर्ग या नरक से यह सब देखती होगी तो उसे ही हैरत होती होगी के यह व्यवस्था भारतवर्ष के लिए मैंने दी थी या महान भारतीय नागरिकों से ख़ुद मैंने ही सीखी थी. अब न केवल उन्हें, बल्कि उनके आकाओं को भी इस बात का पक्का यक़ीन हो गया होगा कि उन्होने अच्छा ही किया जो भारत छोड कर चले गए. ख़ुद यहाँ रहते हुए अभी कई सौ सालों शायद वे इतनी अच्छी तरह से अंग्रेजी भाषा-संस्कृति को स्थापित न कर पाते, जितनी अच्छी तरह उनके खडाऊँ को अपने सिर पर रख कर यहाँ राज करने वाले महान लोकतांत्रिक राजनेताओं ने स्थापित कर दिया. अब उन्हें इस बात का पूरा विश्वास हो गया होगा कि खडाऊँ शासन में हमारी कितनी आस्था है और हम इसमें कितने माहिर हैं.
(चरैवेति-चरैवेति....)
अभी अभी आप का लेख पढा, बहुत मजा आ गया, हां देर तो बहुत हो गई है, लेकिन इतनी देर भी नही कि हम अब भी ना चेते, अगर अब भी हम चेत जाये तो इसे कहेगे सुबह का भुला शाम को वापिस आ गया, मेकाले या उस के साथी तो नरक मै भगडा डाल रहे होगे, कि देखो गुलामो का पेड कितना फ़ल फ़ूल रहा है, बिन पानी, बिन खाद.
ReplyDeleteजय हो जुता महाराज की
आप का धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
मज़ेदार, सशक्त लेखन!
ReplyDeleteभारत में आप जीना चाहें और अंग्रेजी न पढें, विरोधाभास अलंकार का इससे उत्तम उदाहरण मिलना मुश्किल है.
ReplyDelete-कचोटता हुआ सत्य वचन, महाराज!
बहुत रोचक श्रृखला है आपकी जिसमें आपने जूते के साथ साथ कितने और विषयों पर भी प्रकाश डाला है...
ReplyDeleteनीरज
यह जूता दर्शन विश्वव्यापी है। जो इसे समझ गया, समझो वह दुनिया को समझ गया।
ReplyDeleteसही कहा न।
मैकाले महन्त का जूता राज कर रहा है! :)
ReplyDelete"अब तो वह इस क़दर जड पकड चुका है कि अगर लॉर्ड मैकाले की आत्मा स्वर्ग या नरक से यह सब देखती होगी तो उसे ही हैरत होती होगी के यह व्यवस्था भारतवर्ष के लिए मैंने दी थी या महान भारतीय नागरिकों से ख़ुद मैंने ही सीखी थी."
ReplyDeleteइस पूरे आलेख में जो सशक्त विश्लेषण है मैं उसकी तारीफ करता हूँ.
विषयवस्तु के लिये मेरा अनुमोदन भी स्वीकार करें!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- बूंद बूंद से घट भरे. आज आपकी एक छोटी सी टिप्पणी, एक छोटा सा प्रोत्साहन, कल हिन्दीजगत को एक बडा सागर बना सकता है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!
जूतों की ऐसी कथा व्यथा न पहले देखी और न पहले पढी। सचमुच ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और ठिठोली करती हुई।
ReplyDeleteaapka joota darshan to bahut rochak yatharth hai apki kalam ki daad deti hoon
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