अथातो जूता जिज्ञासा-17
यूँ तो चिकित्सा पक्ष को 16वें अध्याय में ही सम्पूर्ण मान लेने का मेरा इरादा था, लेकिन कुछ चिट्ठाकार साथियों की टिप्पणियों के ज़रिए जो आदेश आए उसके मुताबिक मुझे इसे विस्तार देना ज़रूरी लगा. इधर व्यस्तता का आलम कुछ ऐसा रहा कि लिखना सम्भव नहीं रहा, इसलिए समय से मैं पोस्ट नहीं कर सका. व्यस्तता आज भी कुछ ऐसी ही रही और रात को क़रीब साढे 11 बजे लौट कर लिखने का इरादा तो बिलकुल भी नहीं था. पर अब तो धन्यवाद ही कहना पडेगा उन सर्वथा अपरिचित पडोसी महोदय-महोदया को, जिनके यहाँ शायद शादी है और फिल्मी-ग़ैर फिल्मी गाने इतनी ऊंची आवाज़ में बजाए जा रहे हैं कि बेचारे कान के सही-सलामत होने पर अफ़सोस हो रहा है. मुझे याद आ रहा है, काफ़ी पहले मैंने एक फिल्म देखी थी- 'अग्निसाक्षी'. उसमें नाना पाटेकर हीरो थे और उनके कोई बगलगीर अपना जन्मदिन मना रहे थे. देर रात तक वे भी ऐसा कानफाडू शोर मचाए हुए थे. काफ़ी देर तक बर्दाश्त करने के बाद जब नाना साहब से नहीं रहा गया तो उन्होने अपनी बन्दूक उठाई और पहुंच गए उनके तम्बू-कनात में. चलाने लगे दनादन गोलियां. उनका डायलॉग ठीक-ठीक तो याद नहीं, पर उसका लब्बोलुआब यह था कि साले तुमने पैदा होकर दुनिया पर कौन सा एहसान किया है जो पूरी दुनिया तुम्हारे पैदा होने की ख़ुशी में अपनी नींद ख़राब करे और चैन गंवा दे. बहरहाल, इसके साथ ही उनकी ख़ुशी का पटाक्षेप हो गया.
मन तो मेरा भी यही कर रहा है कि कुछ ऐसा ही करूँ, लेकिन मजबूरी यह है कि मेरे पास बन्दूक नहीं है. और अगर हो भी तो गोलियां इतनी महंगी हो गई हैं कि अब सिर्फ़ फिल्मों में ही चलाई जा सकती हैं. पर साहब जूते तो चलाए ही जा सकते हैं! अगर पूरा मोहल्ला साथ दे. पर यहाँ कौन साथ देगा. पहली तो वजह यह कि सभी यही करते हैं और दूसरी यह कि यहाँ ग़ुनाह ग़ुनाह नहीं है, ग़ुनाह है ग़ुनाह के ख़िलाफ़ खडे होना. एक दिन जूता चलाइए और पूरी ज़िन्दगी कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाते फिरिए.
जूता जी का उपयोग किया जा सकता है, बशर्ते साथ देने के लिए पूरा समूह हो और समूह यहाँ किसी अच्छे काम के लिए नहीं बन पाता है. संघे शक्ति तो है कलियुगे, लेकिन संघ यहाँ दुर्भाग्य से चोर-उचक्कों के ही बन पाते हैं. असामाजिक, अमानवीय और अराजक तत्वों के ही बन पाते हैं. बेचारा शरीफ़ आदमी अपने बीवी-बच्चों की परवाह करे, नौकरी-व्यापार या खेती करे, ब्लॉग लिखे या कि संघ बनाए! वैसे ऐसी आज़ादी, जिसमें खेत बढने के लिए आज़ाद हो या न हो, पर गधा चरने के लिए ज़रूर आज़ाद है, है सिर्फ़ हमारे ही देश में. दूसरे देशों में ऐसी आज़ादी सर्वथा अनुपलब्ध है. क्योंकि भीख में आज़ादी (जैसा कि इतिहास की किताबों में हमें पढाया गया है) सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत वर्ष को ही मिली है. ऐसे देश में कोई संघ बनाने का क्या मतलब जहाँ आज़ादी तो आज़ादी, आज़ादी की लडाई ही हाइजैक हो गई.
(लीजिए, शायद उन्हें भनक लग गई कि मैं जूता शास्त्र लिखने बैठ गया हूँ. शोर तो बन्द हो गया, पर अब मैं थमने वाला नहीं हूँ. ये है न जूतापैथी का असर!)
पीछे एक पोस्ट में भाई राज भाटिया और एनॉनिमस जी ने ध्यान दिलाया था मन्दिर से जूते चोरी होने का. यह त्रासदी मैंने भी भुगती है और मुझे लगता है कि सिर्फ़ हमारा-आपका ही नहीं, भारत के हर आम आदमी का जूता ही हाइजैक हो गया है. उसे अब अपने लिए नए सिरे से जूते गढने होंगे. पर मुश्किल यह है कि वह अपने लिए जूते गढने के बजाय उन्ही तत्वों के लिए जूते गढने में व्यस्त है जिन पर उसे जूते चलाने चाहिए. अगर एक बार वह ऐसे तत्वों के लिए जूते गढने छोड कर ख़ुद अपने लिए जूते बनाने शुरू कर दे तो देश के बहुत सारे रोगों का इलाज हो जाएगा. सिर्फ़ कायिक रोग ही नहीं, मानसिक और आत्मिक रोगों का निदान भी इस पैथी में है.
अब आप पिछले दिनों उठे प्रेम रोग के ज्वार का ही मसला लें. दिल्ली में ही कुछ ऐसी जगहें हैं, जहाँ लोग सिर्फ़ तभी जाना पसन्द करते हैं जब वे अकेले हों या साथ मे कोई ऐसा या ऐसी ही हो .... अगर बच्चों के साथ जाना हो तो उनके लिए मुसीबत हो जाए. मैं एक ऐसे सज्जन को जानता हूँ जो दिल्ली की प्रेम वाटिकाओं में जाना ख़ूब पसन्द करते थे. संयोग से विवाहोपरांत उन्हें किसी पार्क में जाने का उनका मन हुआ. बहुत तलाशते-तलाशते एक पार्क में ऐसी जगह मिली जिसे उन्होने थोडी देर बैठने लायक उपयुक्त समझा. लेकिन उनके वहाँ बैठने के थोडी ही देर बाद वहाँ वेलेंटाइन छाप एक प्रेमी जोडा आ धमका और उसने जो आलाप शुरू किया, वह उनके लिए थोडी ही देर में घबराहट का कारण बन गया. हद हो गई जब बच्चा पूछ बैठा, 'पापा ये लोग कौन हैं?' बेचारे पापा क्या बताते! उन प्रगतिशील पापा ने बताया, 'बेटा ये लोग भाई बहन हैं.'
'अच्छा! ये लोग क्या कर रहे हैं?" इस सवाल का पापा के पास कोई जवाब नहीं था. मम्मी ने जवाब दिया, 'वे लोग प्यार कर रहे हैं'.
'ओह! हम भी बडे होकर अपनी बहन से ऐसे ही प्यार करेंगे.' बेटे की यह इच्छा जाहिर होते ही वे वहाँ से चल पडे और पूरे रास्ते वेलेंटाइनवादी प्रेमियों को गरियाते ही रहे. महीनों गरियाते रहे. सबसे ज़्यादा अफ़सोस इस बात पर था उन्हें कि दिल्ली में कोई ऐसी जगह नहीं रही जहाँ थोडी देर परिवार समेत जाकर बैठा जा सके. बाद में उनके जो लेक्चर सुनने को मिले, अगर मैं टीवी का पत्रकार या बुद्धिजीवी होता तो निश्चित रूप से उन्हें तालिबानी या अलक़ायदावादी घोषित कर देता. पर अफ़सोस मैं ऐसा नहीं कर सकता. बहरहाल कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो हमारी-आपकी तरह कुढते नहीं रहते हैं. वे जूता लेकर निकल आते हैं और इलाज शुरू कर देते हैं.
यह इलाज इंजेक्शन और सर्जरी से भी ज़्यादा कारगर साबित होता है. मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो पहले धन्धेबाजों के टुकडों पर जूते चलाते हैं और फिर गुलाबी चड्ढियों के साथ फोटो भी खिचवाते हैं. पहले विरोध करके अपना और कम्पनी का प्रचार और फिर अपने विरोध का प्रदर्शन करके दुहरा प्रचार. यानी दोनों हाथ में लड्डू. समझदार लोग, जो समर्थकों और विरोधियों दोनों का ठीक-ठीक मंतव्य समझते हैं, चड्ढी के बदले लंगोटांदोलन चला देते हैं. यह भी एक तरह का जूता ही है, भिगोया हुआ जूता. असल में जूतापैथी के साथ भी एक बडी दिक्कत यह है कि यहाँ भी अलग-अलग रोगों के लिए अलग-अलग क़्वालिटी के जूते की और भी अलग-अलग मात्रा में ज़रूरत होती है. जैसे होमियोपैथी में होता है- मदरटिंचर से लेकर टेन थाउज़ैंड एक्स तक की हर दवाई आती है और शायद एक लाख पॉवर तक की दवाएं भी आती हैं. सब एक से एक कारगर. पर दिक्कत वही है, रोग को समझ कर इलाज होता है और वह भी एक्सपर्ट डॉक्टर द्वारा. एक बार अगर कायदे से हम इनका इस्तेमाल सीख जाएं तो भाई योगेन्द्र मौद्गिल वाली चिंता से मुक्त हो जाएंगे. यह बात सिर्फ़ होमियोपैथी में ही नहीं, उस एलोपैथी में भी है, जो इलाज से पहले चेक पर ही मरीज के हज़ारों रुपये ख़र्च करा देती है और आयुर्वेद में भी. जूतापैथी से विभिन्न रोगों के इलाज के तरीक़े अगर आप जानना चाहते हैं, तो थोडा धैर्य रखें और जैसे किसी एलोपैथ डॉक़्टर के यहाँ जाने के बाद आप सिर्फ़ रोग जानने के लिए हज़ारों रुपये ख़र्च कर देते हैं, ठीक वैसे जूतापैथी से विभिन्न रोगों का इलाज कैसे किया जाए, यह ठीक-ठीक जानने के लिए आपको पहले जूतापैथी की पूरी परम्परा से वाकिफ़ होना पडेगा और यह जानने के लिए कृपया बने रहें हमारे साथ अगले वमर्शियल ब्रेक तक.
(चरैवेति-चरिवेति)
* यहाँ ग़ुनाह ग़ुनाह नहीं है, ग़ुनाह है ग़ुनाह के ख़िलाफ़ खडे होना. -ब्रह्म वाक्य
ReplyDelete* आजकल संघ याने अंग्रेजी में एसोसियेशन नहीं बल्कि गैंग.
* जूतापैथी की पूरी परम्परा से वाकिफ़ होने के लिए इन्तजार कर रहे हैं अगले वमर्शियल ब्रेक तक.
अच्छा है जूता चलाना, मगर पहले यह देखलो जूता िकस पर चला रहे हो, हो सकता है वह कोई बुश हो तो उस पर जूता चलाना उसका सम्मान और जूते का अपमान होगा।
ReplyDeleteहाँ, सो तो है बड़े भाई. पर किया क्या जाए. न चलाएं तो पूरी सृष्टि का अपमाना होगा. और भाई उड़न तश्तरी जी! हम आपकी चाहतों पर ज़रूर खरे उतरेंगे.
ReplyDeleteआपकी पोस्टें ट्यूब लाइटें जला रही है। लंगोटान्दोलन भी एक किसिम का जूता है।
ReplyDeleteएक छोरा छोरी एक सॉफ्टी को दो ओर से खा रहे हों और तत्वजज्ञान यह हो कि एक जूते को दो अलग कोणॊं से चाट रहे हैं।
जूत अनन्त तस कथा अनन्ता!
लंगोट-चड्डी ..जूता-न जाने कितने आंदोलन चल रहे है भाई ...ओर इश्तेहार भी खूब है इन दिनों ...आपकी जिज्ञासा ने हमारी जिज्ञासा भी बढ़ा दी है
ReplyDeleteईष्टदेव जी, क्या श्रंखला संजोयी आपने............ पूरा शोरूम खोल कर रख दिया........... जय हो...
ReplyDeleteKisi kaa muh band karnaa ho to sabse accha tariqa hai ki yaa to uskaa muh tod diya jaye yaa uska muh chipaa diya jaye.Doosraa tariqa kaafi sastaa aur ahinsak hai.
ReplyDeletePub sanskriti ke samarthan ke liye nahi parantu motaallik jaison ke wirodh ke liye gulaabi chaddi abhiyaan(diluted joota) kaa jaroor samarthan karoonga.
Mahilaaon ki gulaabi chaddi me itnaa paourush chipaa ho sakta hai ki motaallik jaise daityon ko chutki me kaabu me kar le ,dekhkar aascharya hotaa hai.Ab aise log muh chupaayenge yaa kuch chillane se pehle paanch baar sochenge.
Mere khayaal se auraton ko murdaa bhogyaawastu samjhne waale taalibaani manorogiyon ko bhi wishwabhar se aisi hi kooch dawa dene ki jaroorat hai.
आपका जूता थेरेपी तो कमल का है और इसका असर तो और भी कमला का कि केवल इसका ख्याल भर आने से सारा शोर बंद हो जाता है. अथातो जूता जिज्ञासा का जो सीरीज़ चलाया है वो काबिल-ऐ-तारीफ है.
ReplyDeleteमैं भी आपकी ही पेशे का आदमी हूँ और इस कुएं में मैं अभी इसी महीने कूदा हूँ और व्यस्तता के कारण अक्सर चुक हो जाती है.
जूता महिमा अनन्त है। अब जूता पुराण लिखने का समय आ गया है। और यह शुभ कार्य आपके ही वश की बात है।
ReplyDeleteभाई अवाम जी!
ReplyDeleteइस दुनिया में आप अभी-अभी कूदे हैं तो भी अच्छी बात है.आपका स्वागत है और हम चाहेंगे कि अकसर ब्लॉग पर आपसे मुलाक़ात हो.
और भाई साइंस ब्लॉगर जी
आपने ठीक कहा. जूता पुराण का समय तो काफ़ी पहले आ गया था, असल में हमसे ही देर हो गई. ख़ैर, मेरा ख़याल है कि देर आयद तो भी दुरुस्त आयद तो है ही.
achchhi baat kahi hain.
ReplyDelete"'ओह! हम भी बडे होकर अपनी बहन से ऐसे ही प्यार करेंगे.' "
ReplyDeleteहंसी से पेट में बल पड गये!!
सस्नेह -- शास्त्री
kyo bhaiya jooteriamedica adhyayanmagn ho gaye kya? ,yahaan desh malignant bhrastoma se pidit hai ..
ReplyDeleteuska ilaaj bhi jootariya medica me diya jaega anonymous ji. hamaare sath bane rahie, shastr kaa paarayan sampann hone tak.
ReplyDeletejee jaroor
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