अथातो जूता जिज्ञासा-18
अब बात जूता शास्त्र या जूतापैथी की नहीं, अपितु समग्र जूताशास्त्रीय परम्परा के अनुशीलन की है तो इसकी शुरुआत हमें आधुनिक भारतीय नियमानुसार पश्चिम से ही करनी होगी. मैं जानता हूँ कि अगर मैं सीधे भारत से ही इस परम्परा का अनुशीलन करने लगा तो चाहे वह कितनी भी महत्वपूर्ण क्यों न होअ, विद्वान (सॉरी मेरा मतलब इंटेलेक्चुल्स से था) लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे. अब देखिए न! हम शेक्सपपीयर को इंग्लैण्ड का कालिदास नहीं, कालिदास को भारत का शेक्सपीयर कहते हैं. मम्मट और विश्वनाथ जैसे आचार्यों के रहते हम कबीर, गोरख, तुलसी और रैदास के काव्य को प्लेटो की कसौटी पर कसते हैं. तो भला इस परम्परा को अगर मैंने केवल भारतीय कहा तो आप कैसे मान लेंगे. अभी देखिए, भाई अरविन्द जी इधर बताने लगे हैं कि भोले बाबा की पूजा बहुत पहले से दूसरे देशों में भी होती रही है. मुझे पक्का यक़ीन है इस बार वे ब्लॉगर भी महाशिवरात्रि पर अभिषेक करने जाएंगे, जो पिछली बार तक नहीं जाते रहे हैं. आख़िर अब मामला ग्लोबल है न भाई!
असल में हम भारतवर्षियों की एक बहुत ही पुरानी आदत ये है कि अपनी जो भी चीज़ें हमें बुरी लगती हैं (चाहे वास्तव में वे कितनी भी अच्छी क्यों न हों) उनके बारे में हम यह मान लेते हैं कि इनका सारा प्रताप केवल भारत में ही है. भला विदेशों में कोई ऐसी बातें मानता है या ऐसे काम करता है, ना-बिलकुल भी नहीं. ख़ास तौर से वे लोग जो अपने जिला मुख्यालय से आगे नहीं गए होते हैं, वे तो यह बात डंके की चोट पर पूरे दावे के साथ कहते हैं कि विदेशों में ऐसा बिलकुल नहीं है. बिलकुल वैसे ही जैसे कुछ विद्वान पंडित लोग पूरे दावे के साथ कह देते हैं कि चार वेद और छः शास्त्र में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि पहले प्रेम विवाह होता था. अब यह अलग बात है कि अगर यह दावा करने वाले विद्वान पंडितों से उसी वक़्त पूछ लिया जाए तो शायद वे चार वेद और छः शास्त्रों के नाम भी न गिना सकें. वेद-शास्त्र का उनका कुल ज्ञान केवल सत्यनारायण व्रत कथा तक सीमित होता है. पर दावा करने में क्या जाता है! सो वे दावा कर देते हैं.
इसके ठीक विपरीत हमारे देश में एक वर्ग उनका भी है जो सच्चे अर्थों में इंडियन लोग हैं. भारत, हिन्दुस्तान और आर्यावर्त के अस्तित्व का उन्हें कोई भान तक नहीं है. वे इंडिया में रहते हैं, इंडिया में जीते हैं, इंडिया में खाते हैं, इंडिया में पीते हैं, इंडिया ही ओढते हैं और इंडिया ही बिछाते हैं. उन्हें हर वह चीज़ बेहद पसन्द होती है, जिसका नाम अंग्रेजी में होता है. और तो और, अगर किसी भारतीय चीज़ का नाम भी अंग्रेजी में कर दिया जाए तो वह उन्हें महत्वपूर्ण एवं उपयोगी लगने लगती है तथा पसन्द आने लगती है. जैसे आप योग को ही देखिए. अभी तक अमेरिका या इंग्लैंड में कोई महापुरुष उनका पेटेंट करा पाया या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि भारत में कुछ महापुरुष योगा के बडे फैन हैं. वे रेगुलर योगा करते हैं और अगर ग़लती से भी कहीं आपने उनसे योग की चर्चा कर दी तो समझिए कि झंझट. वह बिदक जाएंगे.
बात भी ठीक है. ग्लोबल लैंग्वेज तो जो है वो अंग्रेजी है, फिर किसी चीज़ के हिन्दी नाम का क्या मतलब? देखिए अंग्रेजों ने क़रीब दो सौ साल तक हमारे देश पर राज किया. ऐसा वे क्यों कर सके? इसीलिए न कि वे अंग्रेजी जानते थे. अगर अंग्रेजी न जानते होते तो क्या वे ऐसा कर पाते? कभी नहीं. और तो और, अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद तो यह बात और ज़्यादा ज़ोरदार तरीक़े से साबित हो गई. अब देखिए न, आज भी हमारे ऊपर वही लोग राज कर रहे हैं जो अंग्रेजी जानते हैं. बल्कि सरकार में धीरे-धीरे अंग्रेजी जानने वालों का ही वर्चस्व बढता गया है. एक बहुत बडे गिरोह के लोगों ने बाक़ायदा यूरोप से ही अपने लिए सरदार आयात किया है. उन्हें अपने भारतीय सरदारों पर ज़रा भी यक़ीन नहीं हुआ.
हालांकि आज़ादी के तुरंत बाद जो सरकार हमारी बनी थी, शुरुआती दौर में, उस वक़्त सरकार में कुछ दिहाती लोग भी आ गए थे. उनको अंग्रेजी नहीं आती थी. सिर्फ़ हिन्दी आती थी, या तमिल, तेलुगु, बांग्ला, मराठी ... आदि कोई दूसरी भारतीय भाषा आती थी. पर आपको अब कहीं कुछ ऐसा गडबड दिखाई देता है? बिलकुल नहीं. क्यों? क्योंकि इस दिशा में बहुत सोच समझ कर बडे ही क़ायदे से काम किया गया. शुरू से ही हमारी सरकार के जो कर्ता-धर्ता थे उन्होने इस बात का पूरा ख़याल रखा कि जितनी जल्दी हो सके ई धोती बांधने वालों को सरकार के भीतर से दफ़ा करना है. तो चुन-चुन कर ऐसे लोगों को किनारे लगाने की पूरी मुहिम चलाई गई. राजनेताओं की जगह साहब बैठाए गए. तब जाकर इतनी कडी मेहनत के बाद अब हमारे देश में सचमुच शूपात्र लोग सरकार में आ सके हैं.
पिछले साठ सालों में हमारे लोकतंत्र ने इतनी तरक्की की है कि अब देखिए चारों ओर तो देख के ई लगता है कि सचमुच राजा लोग राज कर रहे हैं. धोती तो दूर अब पजामा पहनने वाले भी संसद-विधान सभा जैसी जगहों पर कम ही दिखाई देते हैं. हाँ बाहर यानी देश के भीतर कहीं जनसभा-वभा के लिए निकलने पर ज़रूर कभी इलास्टिक के नाडे वाला पजामा बांध लेते हैं. तब जाकर हम यह गौरव हासिल कर सके हैं कि दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र (जैसा कि दावा किया जाता है) के शीर्ष पर भी किसी व्यक्ति को बैठाने के लिए हमें जनमत की ज़रूरत नहीं, सूट-बूट-टाई और एक व्यक्ति के प्रति आस्था चाहिए होती है. ऐसा कैसे सम्भव हो सका है, जानते हैं? ऐसा सिर्फ़ इसलिए सम्भव हो सका है क्योंकि अब हमारे देश में सिर्फ़ उन्हीं पार्टियों का वर्चस्व रह गया है, जो जन के बजाय जूते से चलती हैं.
अब आपको होने के लिए यह भ्रम भी हो सकता है कि यह जूता तंत्र हमारा अपना है और सिर्फ़ हमारा ही है. अन्य किसी भी देश का इस पर कोई हक़ बिलकुल भी नहीं है. जैसे कई लोगों को यह भ्रम है कि विदेशों मे जितना कुछ भी ज्ञान है, वह सब यहीं से गया है. लेकिन नहीं साहब ऐसा नहीं है. जब आपके यहाँ ऋषि-मुनि बैठ कर वेद-पुराण और मनुस्मृति रचने में लगे थे तो बाक़ी जगहों पर भी लोग कोई घास नहीं छील रहे थे. वह भी कुछ रच रहे थे. जब आपके यहाँ जूते पर काम चल रहा था तभी दूसरे देशों में भी जूते पर काम चल रहा था और इसके ही फलस्वरूप जूते पर उनके यहाँ भी काफ़ी कुछ हुआ मिलता है. तो इससे यह पता चलता है कि जूते को लेकर दूसरे देशों में भी काफ़ी समृद्ध परम्परा है.
(कैसे यह जानने के लिए बने रहिए इयत्ता के साथ. बहरहाल अभी हम लेते हैं एक छोटा सा वमर्शियल ब्रेक (ज़्यादा नहीं, सिर्फ़ चौबीस घंटे का) ब्रेक के बाद हम फिर मिलेंगे और आपको बताएंगे कि क्या हैं विदेशों में जूताजी से जुडी महान परम्पराएं. )
अथातो जूता जिज्ञासा-16
दूसरे देशों की परम्परा जानने के लिए बने हुए हैं..शूपैथी पर.
ReplyDeleteबने रहें भाई समीर लाल जी. जल्द ही बडे महत्वपूर्ण तथ्य सामने आने वाले हैं.
ReplyDeleteअब लगा कि सिर्फ जूता बाजार में मंदी क्यों नहीं है. यहां तो लैजूता-दैजूता की श्रृंखला चल रही है.
ReplyDeleteलगता है इस जूता प्रबंध में आप सारे ब्रह्माण्ड को देर सबेर समेट ही लेंगें -चिंतन की विराटता स्वयं सिद्ध है ! बढियां चल रहा है !!
ReplyDeleteइस जूता प्रकरण की लपेट में बहुत सारे विषय आ गये हैं.बढिया.
ReplyDeleteशानदार!!
ReplyDelete"बल्कि सरकार में धीरे-धीरे अंग्रेजी जानने वालों का ही वर्चस्व बढता गया है."
सही कह रहे हैं. सुना है गोविंदा जी को इस बार टिकट नहीं मिलेगा.
जूता खाकर बुश-भैया, सरनाम हो गये।
ReplyDeleteजूता खाकर छुट-भैया, बदनाम हो गये।।
जूते में है जोर बहुत, पर जामाता के।
दिग्गज भी इनके जूतों पर माथा टेके।।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइस आलेख में "इंडिया" के विचित्र जीवियों के बारे में आप ने जो लिखा है, एवं हिन्दुस्तानियों से उनके अंतर को जो उकेरा है, उसका मैं अनुमोदन करता हूँ.
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
अपनी टिपण्णी आपके 'अथातो जूता जिज्ञासा' के ख़त्म होने पर ही दी जा सकती है. क्योकि अभी तो जिज्ञासा बनी हुई है..और अधिक पढने के लिए.
ReplyDeleteपठनीय है..
Wasudhaivkutumbakam,kuch hathdharmi bharatiyataa ko hintaa samajhte hain to kuch sarvsreshthata,meri dristi se dono theek nahi hai.Maana ki humaari sabhyataa kaa udgam shayad sarvpratham hua par jad hokar bhootiyaa dhol pitatey wartamaan aur bhawishya ko kharch kar denaa chaalaaki to kadaapi na hogi. Gulaami ki baaas ke kaaran angareji kuch logon ke liye gras-shalya hai par wideshi waigyaanik aawiskaaron aur khojon ko chupchaap gatakne se koi parhej nahi !!!!.
ReplyDeleteAaj wishwa ek gaaon ban chukaa hai aur hum ek doosare par nirbhar ho chukey hain,sabhi sabhyataaon ke dharoharon kaa samman aur rakshan karte huye humey wibhinn sabhyataaon ko jorney kaa prayas karna chahiye naa ki unpar atikraman yaa unke prithakikaran kaa.Darwin par bharosaa kar kalpanaa karen to,(humey maaf karen darwin ke kritiyon kaa bharatiya bhasha-anuwaad to widyamaan hai parantu wyakti-anuwaad ke liye us vaigyaanik ke samtulya koi bhaaratiya vaigyaanik naa milaa!),….ha to hum manushyaa yadi paashwik(ab ye naa kahe koi ki sirf joote ke tale kaa hi jiwan paashwik hotaa hai balki jootaa bal ke atishay prayog se bhi jiwan kabhi-kabhi paashwik ho jaataa hai) widhi se jiwan jiye to koi ek aguwai karne waali shaktishaali sabhyataa kaa warchaswa hogaa aur sthitiaanukool pariwartansheel aur sangharshsheel sabhyaataayein hi astitwa me bani rahengi.Yaa sabhi sabhyataayen mar-katkar dinosaur ki bhaanti loopt ho jaayengi.Aur to aur rang-bhed ya kahen sabhyata bhed ke aadhaar par wichhedan ya prithakikaran hi saashan kaa ek maatr sootra rehaa to maje ki baat ye hai ki bhawishya me manushya ki nayi nayi prajaatiyaan bhi dristmaan hongi. Ishwar naa kare par yadi aisa ho to ho saktaa hai ki kaale-gorey me bhed barhkar gadahey –ghorey ke bhed samaan ho jaaye aur antarmahaadwipiya wiwaah prajananshakti se rahit khachharon sa koi jeew prasoot kare.Sukra hai Sristirachaita ke nazar me saare manushya aanuwaanshik dristikon se aaj bhi ek hi praani hai.
Jootey se sirf thopaa hi jaa saktaa hai aur thopi hui cheez aksar agrahya aur apmaanjanak prateet hoti hai,tabhi to hamne thopi hui angarezi sweekaar nahi ki balki usey khud grahan kiyaa!Aur isme koi buri baat nahi hai kyuki bharatiya arthwyawastha ki aaj sabse badi shakti yahi hai aur chini arthwyawasthaa ki kamzori.Apni sabhyataa ki baahari sabhyataa se tulnaa yaa paaramparik wiraasat aur dharohar ke upayogi anshon kaa paraspar aadaan-pradaan hitkaari hi hai.Par hume door ke suhaawan dholon par poorntaya mantramugdh na hotey huye apni sabhyataa ke dharoharon ko bhi sanjonaa chahiye pataa nahi in khajaano me se kon se moti ki aawashyaktaa kab pad jaaye?. Waishwik gyannidhi itani wrihat hai ki ek wyakti ke derh kilo ke mastisk me samaa na sake isiliye saamoohik yogdaan aawashyak hai alag-alag gyandhaaraaon ko prawaahit rakhne ke liye.
0)hume binaa gyan apni sanskriti ki nindaa yaa uspar tikaa-tippani nahi karnaa chahiye balki use jiwit rekh unme se kaam ki cheezon ko dhoondhnaa chahiye.
1)Humaari raajneeti to chaupat hai hi,2)pehnaawaa-orhaawaa apni sahajtaa ke anusaar theek hai ,3)ab sardaar aayaatit huye hain yaa baahar se aakar yahin ke ho gaye hain wiwechanaa kaa wisay hai ,4)jitney gaye gujrey bhrast gulaami maansiktaa waale giroh ke log hai utane hi gaye gujre maanav wibhed ki raajniti karne waale sankirn aur rudhiwaadi maansiktaa waale giroh ke (inke giroh ne haal hi me apratyaasit haar ke baad maansik santulan kho diyaa hai.).5)humey shresth bananaa hai to itihaasi dhol bajaana chorkar pehle vartamaan shaktishaali aguon se haath milaakar unke samkaksh aanaa hogaa tatpashchaat unse aage nikal jaanaa hogaa.
Thanku :)
बहुत शानदार टिप्पणी है भाई एनॉनिमस जी. हम-आप एक ही तरह से सोचने वाले जंतु मालूम होते हैं. केवल एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा (और यह सफ़ाई नहीं है), वह यह कि मेरा विरोध अंग्रेजी से कतई नहीं है, सिर्फ़ उस मानसिकता से है जो अपनी भाषा-संस्कृति को हीनतर मानती है. मेरा अनुभव है कि थोडा-बहुत तरीक़े का भेद भले हो, पर बात दुनिया की सारी संस्कृतियां एक ही करती हैं. इसलिए सभी संस्कृतियां समान रूप से सम्मान्य हैं. कोई किसी से सुपीरियर या इनफीरियर नहीं है. मेरा व्यंग्य उन पर है जो किसी को सुपीरियर या इनफीरियर मानते हैं.
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