अथातो जूता जिज्ञासा-9
उन मित्र ने यह जो जूता लिया था आठ हज़ार वाला वह कौन से ब्रैंड का था, यह तो मैं भूल गया. वैसे भी मैंने उस जूते की बैंडिंग का कोई अनुबन्ध नहीं लिया है. पर सन ज़रूर याद है. वह सन 2006 था. संयोग से इस त्रासद अनुभव से मैं ख़ुद भी गुज़र चुका हूँ. बल्कि इस मामले में मैं उनसे काफ़ी सीनियर हूँ. इसीलिए मैं उनके चहकने की वजह तो समझ ही सकता था, इस चहकनशीलता का भविष्य भी मुझे पता था. किसी भी ज्योतिषी की तुलना में ज़्यादा ज़ोरदार दावे के साथ मैं तभी कह सकता कि इस चहकनशीलता के अहकनशीलता में बदलते तीन साल से ज़्यादा नहीं लगेंगे. हैरत कि उनकी चहकनशीलता बमुश्किल एक साल के भीतर ही अहकनशीलता में तब्दील हो गई.
मामले की गति इतनी सुपरफास्ट टाइप होगी, ऐसा मैने भी नहीं सोचा था. मैंने तो अपने अनुभव के आधार पर सोचा था, जब पत्नी पहले साल चन्द्रमुखी, दूसरे साल सूरजमुखी और तीसरे साल ज्वालामुखी होती थी. अब समय दूसरा है. केवल 12 वर्षों में समय के इस तरह बदलने पर मुझे हैरत हुई. पर तभी एक हाइटेक मित्र ने बताया कि देखिए 20वीं शताब्दी तक आदमियों की पीढी 27 साल में बदला करती थी. यहाँ दस साल में मोबाइल की चौथी पीढी आ रही है. दोनों के बीच कहीं है कोई तुलना. मुझे मानना पडा कि सचमुच यह भी टेक्नोलॉजी का ही कमाल है.
उन्होने मुझे याद दिलाया, 'ख़ुद अपने समय में तुमने भी पूरे एक हज़ार रुपये के जूते लिए थे और वह भी रंगीन था. पूरे 12 वर्षों में अगर देखो तो उस दौर के हिसाब से तो 4000 बैंक के जमा सूद की दर से हो गए और बाज़ार का पैसा तो दिन दूने रात चौगुने गति से बढता ही है. सो अब इनका जूता आठ हज़ार का है. अब ये है कि तुम आज तक एक हज़ार रुपये से ज़्यादा का जूता लेने के लिए तैयार नहीं हुए, जबकि बाक़ी सारी चीज़ें बढे हुए दाम पर ले रहे हो. चूंकि तुम सारी कटौती सिर्फ़ जूते पर कर रहे हो इसलिए तुम भुगत भी रहे हो. इन्होने वक़्त की नज़ाकत को समझा है और सही तरह का जूता लिया है.'
'और ये चन्द्रमुखी के ज्वालामुखी बनने की प्रक्रिया?'
'अरे भई, वह भी ज़माने की ही रफ़्तार से होगी न! हमारे-तुम्हारे समय में यह बात भारतीय रेल की रफ़्तार से हुई, इनके समय में उस बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से हो गई, जिसे अभी लालू जी लाने वाले हैं.'
हालांकि बाद में मुझे मालूम हुआ कि उनका जूता बहुत ही रंगीन मिज़ाज़ निकला. वह अकसर कहीं न कहीं लेडीज़ सैंडिल के आसपास ही पाया जाता है. यहाँ तक कि ससुराल में भी जब साली ने उनका जूता चुराया और उन्होंने उसका नेग यानी कि उत्कोच चुका दिया उसके बाद भी जूता उन्हें काफ़ी देर तक मिला नहीं. काफ़ी खोजबीन हुई और हो-हल्ला मचा. तब जाकर पता चला कि वह जूता असल में दुलहन की मौसेरी बहन की हाई हिल सैंडिलों के नीचे छुप या दुबक गया था. अभी हाल में उन्होने खुलासा किया कि मंडप में बैठे-बैठे ही जब उन्होने अपनी उस मौसेरी टाइप साली को देखा तो इनके मन में तुरंत यह ख़याल आया कि काश यही मेरी असली साली होती.
अब चाहे आप यह कहें कि ईश्वर ने तुरंत उनकी सुन ली या फिर कुछ और, पर बात तो बन ही गई. उसने जूते चुराए या नहीं, इनको नेग को देना पडा. बल्कि असल बात तो यह कि मेरे मित्र ने बडी ख़ुशी से नेग दिया और उस नेग के साथ ही वह मौसेरी टाइप साली भी उन्हें बतौर असली साली मिल गई. कालांतर में वह अपनी अन्य दोनों मौसेरी बहनों के चलते अपने परमप्रिय जीजाजी के इतने ज़्यादा क़रीब आ गई कि उसके चलते ही मित्र के घर की स्थिति लोकसभा जैसी हो गई. पर ख़ैर, क्या किया जा सकता है? वैसे भी अब हम कोई 20वीं शताब्दी के पिछडे भोजपुरिया गांव में नहीं, 21वीं सदी के ईमेल आईडी वाले हाइटेक दौर में जी रहे हैं.
(आगे-आगे देखिए .....)
बहुत ही मजा आ रहा है. आपने भी बड़े प्रेम से ही लिखा है. अगली पोस्ट कि जानकारी देते रहें, यही हमें सुविधाजनक लगता है.
ReplyDeleteयह जूता है, कहां कहां चले जा रहा है!
ReplyDeleteसैंडिलोन्मुखता हर जूते का चरमोत्कर्ष है! :D