हरा दीजिए न, प्लीज़!

(डिस्क्लेमर : आज जूता कथा को सिर्फ़ एक बार के लिए कुछ अपरिहार्य कारणों से ब्रेक कर रहा हूँ. आशा है, आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे. आशा है, आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे. कल से फिर अथातो जूता गिज्ञासा जारी हो जाएगी और आप उसकी 19वीं कडी पढ सकेंगे. तब तक आप इसका आनन्द लें. धन्यवाद.)

"अले पापा दादा को गुच्छा आ गया."

"क्या गुच्छा आ गया? कौन से दादा को कौन सा गुच्छा आ गया?"

"अले वो दादा जो टीवी में आते हैं, हल्ला मचाने के बीच, उनको औल वो वाला गुच्छा जो आता है."

"ये कौन  कौन सा गुच्छा है भाई जो आता है. आम का, कि मकोय का, कि अंगूर का या और किसी चीज़ का?"

"ना-ना, ये छब कुछ नईं. वो वाला गुच्छा जो आता है तो लोग श्राब दे देते हैं. वो दादा तब लोपछभा में कहते हैं कि जाओ. तुम छब हाल जाओ."

लीजिए साहब! छोटी पंडित की बात स्पष्ट हो गई. ये उसी दादा की बात कर रहे हैं जिनको लोप, अंहं लोकसभा में गुस्सा आया है. वैसे लोकसभा को चाहे अपनी तोतली भाषा में सही पर उन्होने नाम सही दिया. आख़िर लोक के नाम पर बनी जिस सभा से लोक की चिंता का पूरी तरह लोप ही हो चुका हो, उसे लोपसभा ही तो कहा जाना चाहिए. और उसी दादा को आया है जिन्हें वह कई बार आ चुका है. इसके पहले उनको ग़ुस्सा आने का नोटिस लोग इसलिए नहीं लेते रहे हैं क्योंकि वह उन्हें जब-जब आया उसका कोई ख़ास नतीजा सामने नहीं आया. मतलब यह कि दादा को ग़ुस्सा तो आया, पर उस बेचारे ग़ुस्से का कोई नतीजा नहीं आया. बेचारा उनका ग़ुस्सा भी बस आया और चला गया. किसी सरकारी घोटाले के जांच के लिए आई टीम के दौरे की तरह. जैसे सरकारी घोटालों की सरकारी जांचों कोई निष्कर्ष नहीं निकलता, बिलकुल वैसे ही दादा का ग़ुस्सा भी अनुर्वर साबित हुआ.

यहाँ तक कि दादा को एक बार न्यायपालिका पर ग़ुस्सा पर भी ग़ुस्सा आ गया था. बोल दिया था दादा ने तब कि न्यायपालिका को उसकी सीमाओं में ही रहना चाहिए. मैं बडे सोच में पड गया था तब तो कि भाई आख़िर न्यायपालिका की सीमाएं क्या हैं. मेरे न्यायवादी मित्र सलाहो ने तब मेरे संशय का समाधान किया था कि जहाँ से विधायिका में किसी भी तरह एक बार बैठ गए लोगों के हितों की सीमाएं शुरू हो जाएं, बस वहीं अन्य सभी पालिकाओं की सीमाएं बाई डिफाल्ट ख़त्म समझ लिया करो. तब से मैंने इसे एक सूत्रवाक्य मान लिया. ग़नीमत है कि दादा को अभी तक संविधान पर ग़ुस्सा नहीं आया. वरना क्या पता अचानक बेचारे सविधान को भी वह खुले आम उसकी सीमाएं समझाने लगें. अब तो और डर लगने लगा है, क्या पता श्राब ही दे दें. हे भगवान! तब क्या होगा? मैं तो सोच कर ही डर जाता हूँ. बहरहाल मुझे पूरी उम्मीद है कि ऐसा नहीं होगा. क्योंकि उनके होनहार साथी जिन पर आज उन्होंने ग़ुस्सा किया है, वे अक्सर अपने मन मुताबिक ठोंकपीट उसमें करते रहते हैं और वह चुपचाप सब कुछ बर्दाश्त करता रहता है. मैं समझ नहीं पाता कि इसे उसका बडप्पन मानूं या बेचारगी कि आज तक एक बार भी उसने भूल से भी कभी इस ठोंकपीट पर किसी तरह का एतराज नहीं जताया.

इसका यह मतलब बिलकुल न समझें कि दादा को हमेशा ग़ुस्सा ही आता रहता है. अब देखिए, मन्दी देवी तो अब आई हैं, एक साल पहले. पर पूरे देश की जनता महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है पिछ्ले 5 साल से. पर एक बार भी दादा को इस बात पर ग़ुस्सा नहीं आया. उनकी पार्टी को इस बात पर एक-दो बार ग़ुस्सा ज़रूर आया इस बात पर और पार्टी ने इस बात थोडा हो-हल्ला भी मचाया. पर दादा को एक बार भी इस बात पर ग़ुस्सा नहीं आया. और तो और, पार्टी ने इस बात पर समर्थन तो क्या वमर्थन वापस लेने की बात भी नहीं की. और जब चार साल बीत गए और लगा कि अब तो जनता के बीच जाने का वक़्त निकट आ गया है तो बिन मुद्दे का मुद्दा गढ डाला. एटमी सन्धि के बहाने पूरे का पूरा समर्थन ही वापस ले लिया. पहले से ही जनता के बीच होने की रियाज के लिए.

दादा ने लेकिन तब पार्टी छोड दी लेकिन हस्तिनापुर का वह सिंहासन नहीं छोडा जिसकी रक्षा का वचन वह शायद राजमाता को दे चुके थे. आप को जो मानना हो मान सकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि दादा ने तब ठीक ही किया. आख़िर जब दोनो तरफ़ कौरव ही हों तो किसका साथ दिया जा सकता है? जब तय हो कि किसी भी स्थिति में हस्तिनापुर तो नहीं ही बचना है, तो किसका साथ दिया जा सकता है. बेहतर होगा कि फिर हस्तिनापुर के सिंहासन की ही रक्षा की जाए. लिहाजा दादा ने भी किसी भी समझदार आदमी की तरह यही किया.

लेकिन दादा इस बार चुप नहीं रह पाए. कैसे रह सकते थे? उन्होने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया है कि इस तरह हल्ला मचाने वाले जनप्रतिनिधि सिर्फ़ अपना, अपने स्वार्थों और अपने अहं का ही प्रतिनिधित्व कर सकते हैं. जन से उनका कोई मतलब रह ही नहीं गया है. मैं समझ सकता हूँ, दादा को इस बार ग़ुस्सा बहुत ज़ोर का आया है. इतनी ज़ोर का कि बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया. लेकिन बेचारे वे आख़िर कर भी क्या सकते थे. भाई उम्र भी तो हो गई है. और जब कुछ नहीं किया जाता तो एक ही बात होती है.

मुझे अपने गांव की हरदेई बुआ याद आ गईं. बुढापे में उठ भी नहीं पाती थीं, पर ग़ुस्सा तो उन्हें आता था. तो सुबह से शुरू हो जाती थीं, अपने इकलौते नालायक बेटे पर. कुछ और तो कर नहीं सकती थीं, लिहाजा उसे शाप ही देती थीं. हमारे गांव में उन्हें दुर्वासा ऋषि का अवतार माना जाता था.  और हाँ, दुर्वासा ऋषि भी आख़िर क्या कर सकते थे. न तो वे राजा थे, न सेनापति, न मंत्री और कोई राजपुरोहित ही. कोई और रुतबा तो उनके हाथ में था नहीं जो किसी का कुछ बिगाड लेते. पर उन्हें गुस्सा तो आता था. लिहाजा वे घूम-घूम कर शाप ही दिया करते थे. मुझे लगता है कि कुछ ऐसा ही मामला दादा के साथ भी हो लिया है. अब दादा हैं कि ग़ुस्सा करके शाप दे रहे हैं और अपने इम्तिहान वाले कौशल भाई हैं कि इस ग़ुस्से पर भी बहस कराना चाहते हैं. अरे भाई ग़ुस्सा है तो बस ग़ुस्सा है, अब उस पर बहस कैसी. क्या पूरे देश को आपने वकील समझ रक्खा है, जो बात-बेबात बहस ही करने पर तुली रहे.

जा जनता बहस नहीं करेगी. यह बात दादा भी जानते हैं. दादा जानते हैं कि जब वामपंथियों के एक धडे ने हिटलरशाही को अनुशासन पर्व बताया था, तब भी जनता ने जनार्दन को मज़ा चखाया था. लिहाजा उन्हें पूरी उम्मीद है कि इस बार भी वह अपने हितों से खेलने वाले महान लोकनायकों को मज़ा चखा देगी. तभी तो उम्मीद से शाप दिया है, "जाओ तुम सब हार जाओगे. ये जो पब्लिक है, ये सब जानती है." अब देखिए, दादा तो जो कर सकते थे, वह तो उन्होने कर दिया. गेंद उन्होने आपके पाले में डाल दी है.  अब यह आप पर है कि आप उसके साथ क्या सलूक करें.

लेकिन भाई, दादा के शाप के साथ-साथ आपसे यह बिनती है. दादा जो भी हों और जैसे भी हों तथा अब तक उन्होने जो भी और जिसलिए भी किया हो, प्लीज़ वह सब आप लोग भूल जाइए. बस एक बात याद रखिए. वह यह कि आपके महान लोकनायकों दिया गया उनका यह शाप शायद आपके लिए वरदान साबित हो सकता है.  तो इस देश के लोकतंत्र पर दादा की आस्था की रक्षा के लिए मेरी एक बात मान जाइए न! अपने ऐसे महान लोकनायकों को, जिन्हें लोक की कोई परवाह ही न हो, इस बार हरा दीजिए न, प्लीज़!

Comments

  1. फ़ालो करें और नयी सरकारी नौकरियों की जानकारी प्राप्त करें:
    सरकारी नौकरियाँ

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  2. 'दादा जी' ने ये क्या किया? जिन जननायकों की रक्षा के लिए इन्होने न्यायपालिका को खदेड़ दिया था अब उन्हें ही श्राप काहे दे रहे हैं? असल में दादा जी भले ही संसद में सालों से बैठें हों, लेकिन इनका हिसाब-किताब टपोरी टाइप ही है.

    बेचारे समय-समय पर किसी न किसी के ऊपर चढ़े रहते हैं.

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  3. सत्य वचन जी शिवजी. अपने राम भी यही सोचते हैं.

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  4. सब ओर महान लोकनयकै तो बैठे हैं! किस किस को हरायें। एक को हराते हैं तो दूसरा जो जीतता है वह भी महान लोकनायक ही निकलता है।
    कोई जानदार विकल्प कैसे लाया जाये!

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  5. बतिया तो आपकी बिलकुल सही है भैया, लेकिन कोई रस्तवा तो निकालना पडेगा न! ऐसे कितने दिन काम चलेगा?

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  6. बिन जूते के दर्द भरा है जीवन !! इसे वाकई उन लोगों को पहुंचा देना चाहिये जो इसकी अर्हता रखते हैं!!

    सस्नेह -- शास्त्री

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  7. आप की बात दादा तक पहुँच गई और उन्होंने पलट बयान जारी कर दिया है. अब सब जीत जायेंगे. :)

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