मज़ाक का लाइसेंस
डिस्क्लेमर : अथातो जूता जिज्ञासा की सींकड तोड़्ने के लिए आज एक बार फिर क्षमा करें. कल आपको सुबह 6 बजे जूता जिज्ञासा की 20वीं कड़ी मिल जाएगी. आज आप कृपया यह झेल लें. मेरी यह लुक्कड़ई मुख्यत: दो ब्लॉगर बन्धुओं को समर्पित है. किन्हें, यह जानने के लिए आगे बढ़ें और इसे पढ़ें..........
काऊ बेल्ट में एक बात बहुत बढिया हुई है पिछ्ले दो-तीन दशकों में. आप मानें या न मानें लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ. पहले लोग नेता चुनते थे, इस उम्मीद में कि ये हमारी नेतागिरी करेगा. उस पर पूरा भरोसा करते थे, कि जब हम भटकेंगे तब ये हमको रास्ता दिखाएगा. अगर कभी ऐसा हुआ कि हम हिम्मत हारने लगे तब ये हमें हिम्मत बंधाएगा. हमको बोलेगा कि देखो भाई इतनी जल्दी घबराना नहीं चाहिए. तुम सही हो अपने मुद्दे पर, लिहाजा तुम लड़ो और हम तुम्हारे साथ हैं. अगर कोई हमें दबाने की कोशिश करेगा तो यह हमारी ओर से लड़ेगा. हमे हर जगह उभारने की ईमानदार कोशिश करेगा. सुनते हैं कि पहले जब देश को गोरे अंग्रेजों से आज़ादी मिली तब शुरू-शुरू में कुछ दिन ऐसा हुआ भी. दो-चार नेता ग़लती से ऐसे आ गए थे न, इसीलिए.
फिर धीरे-धीरे नेता लोगों ने लोगों की उम्मीदों को ठेंगा दिखाना शुरू किया. पहले लम्बे-चौड़े वादे करके नेता बनते थे फिर बेचारी पब्लिक को पता चलता था कि असली में कर तो ये अपने वादों का ठीक उलटा रहे हैं. नेताजी मुश्किल मौक़ों पर हमें हिम्मत बंधाने के बजाय हर जगह हमारी हिम्मत तोड़ने, रास्ता दिखाने के बजाय और भटकाने, उभारने के बजाय ख़ुद दबाने और हमारी लड़ाई लड़ने के बजाय हमें ही ठिकाने लगाने की साजिश में जुटे हैं. विकास तो बेचारा कहीं हो नहीं रहा, उलटे उसका प्रचार जाने किस आधार पर किया जा रहा है और उसके नाम पर कमीशन भरपूर खाया जा रहा है. ग़रीबी नेताजी ने कही तो थी हमारी मिटाने के लिए, पर मिटाई उन्होंने सिर्फ़ अपनी और चमचों की. अलबत्ता हम और ज़्यादा ग़रीब हो गए. इससे भी बड़ी और भयंकर बात यह है हमारी उत्तरोत्तर ज़्यादा ग़रीब और उनके ज़्यादा अमीर होते जाते जाने की परम्परा लगातार जारी ही है.
अब जनता के सामने यह भेद ख़ुला कि वास्तव में यह नेता नहीं, अभिनेता हैं. अभिनय ये बहुत टॉप क्लास करते हैं, ऐसा झकास कि बड़े-बड़े अभिनेता भी न कर सकें. जो कुछ भी ये कहते हैं वह कोई असली की बात नहीं, बल्कि एक ड्रामे का डायलॉग है, बस. ई मंच पर आते हैं. पहले से स्क्रिप्ट में जो कुछ भी लिखा होता है, वह बोल देते हैं. बात ख़त्म. अगले दिन यह इस स्क्रिप्ट की सारी बात भूल कर नई स्क्रिप्ट के मुताबिक काम शुरू कर देते हैं. फिर न आज वाली जनता से उनका कोई मतलब रह जाता है और न उससे किए हुए वादों से.
असल में आधुनिक भारत में नेतागिरी की परम्परा ही अभिनेतागिरी से शुरू हुई है. कुछ लोग इस बात को शुरू में ही समझ गए और कुछ नहीं समझ सके. जो नहीं समझ सके थे, उनमें कुछ तो थोडे दिनों बाद समझ गए और कुछ ठोकर खा-खा कर भी नहीं समझ सके. जो नहीं समझ सके उनकी छोड़िए. पर जो समझ गए वो सचमुच बड़े आदमी बन गए. वे किसी बात की चिंता नहीं करते हैं. चिंता करने का सिर्फ़ अभिनय करते हैं. अभिनय भी ऐसा कि वाह क्या ज़ोरदार. एकदम हक़ीक़त टाइप लगे. बल्कि हक़ीक़त फेल हो जाए और उनका अभिनय चल निकले. हम ऐसे एक जन को जानते हैं जो बहुत चिंता करते हैं. उनकी चिंता का आलम ये है कि घुरहू की भैंस मरे तो चिंता, लफ्टन साहब का कुक्कुर मर जाए तो चिंता. भले घुरहू की भैंस लफ्टन साहब के कुक्कुर साहब द्वारा काटे जाने के कारण ही मरी हो. ऐसे कई और उदाहरण हैं. हम कहाँ तक गिनाएं. आप तो ख़ुद ही समझदार हैं. समझ जाइए. उनकी चिंता की हालत यह थी कि शहर के बाहरी इलाके में ज़रा सी हवा चली नहीं कि वे आंधी आने की आशंका से चिंतित हो उठते थे और तुरंत अखबार के दफ्तर में पहुंच जाते थे विज्ञप्ति लेकर. अगर कोई सुझा देता था कि आप प्रशासन से मांग करिए कि वह आंधी-तूफान को आने से रोकने की व्यवस्था करे, तो उनको कभी कोई संकोच नहीं होता था. वह तुरंत मांग कर देते थे. लोकल अखबारों में छपी उनकी विज्ञप्तियों के ज़रिये बना इतिहास इस बात का गवाह है कि पानी को बरसने और सूखे को आने से रोकने तक की मांग वह कई बार कर चुके थे.
असल में भारतवर्ष में चिंता, मांग और उसे मनवाने के तौर-तरीक़े से वह भरपूर वाकिफ़ थे. अगर उनकी मांग नहीं मानी जाती थी दो-तीन बार करने के बाद भी, तब वह अनशन पर बैठ जाते थे. थोड़े दिन बैठे रहते थे तो पहले तो कोई तहसीलदार साहब आ जाते थे. उनको समझा-बुझा देते थे. पब्ल्कि को लगता था कि अब हमारी समस्या हल हो जाएगी और वह चल देते थे. उनका अनशन टूट जाता था. फिर पब्लिक को उनकी पहुंच पर थोड़ा शक़ होने लगा और उनको भी लगा कि बार-बार ये तहसीलदार ही आ रहा है. इससे हमारा रोब पब्लिक पर थोड़ा कम हो रहा है. तब वह सीधे डीएम को संबोधित करके मांग करने लगे. अनशन की अवधि थोड़ी बढ़ा दी. पत्रकार भाइयों को चाय पिलाने के अलावा बोतल भी पहुंचाने लगे. अब उनकी अनशन सभाओं में डीएम आने लगे.
बेचारी जनता पर इस बात का बड़ा गम्भीर असर हुआ. आख़िरकार जनता ने उनको अपने क्षेत्र की बागडोर सौंप दी. इसके बाद वे ऐसे नदारद हुए कि अगले पांच साल तक उनको देखने की कौन कहे, आवाज तक लोगों ने नहीं सुनी. बस अख़बारों में लोग उनकी विज्ञप्तियां और कान-फरेंस की ख़बरें ही पढ़ती रही. इस बीच जनता ने पूरा मन बना लिया कि अब जब आएंगे नेताजी तो वो मज़ा चखाएंगे कि वह भी क्या याद करेंगे. पर बाद में जब आए तो ऐसा भौकाल बनाया नेताजी ने कि बेचारी पब्लिकवे सुन्न हो गई. कुर्ते के कॉलर से लेकर पजामे का नाड़ा तक पसीने से तर-बतर था नेताजी का. दिया उन्होने ब्योरा कि पब्लिक की भलाई के लिए उन्होने क्या-क्या किया. ये मंत्री, वो संत्री, ये नेता, वो ओता, ये अफसर, वो वफसर... रोज न जाने कितने लोगों से मिलते रहे. कई-कई दिन तो खाना तक नहीं खा पाते बेचारे.
फिर क्या था! पब्लिक ने फिर से उनको मान लिया अपना नेता. भेज दिया फिर लखनऊ से भी आगे, अबकी दिल्ली के लिए. बस. बहुत दिन बाद पब्लिक की समझ में आया कि ये कोई हक़ीक़त नहीं है. नेताजी जो कुछ भी करते हैं वह सब फ़साना है, लिहाजा अब नेताजी को ही फंसाना है. नेताजी पब्लिक की किसी परेशानी से चिंतित नहीं होते हैं, बल्कि चिंतित होने का अभिनय करते हैं. जो इसको समझ लेता है उसके साथ वह थोड़ा उससे आगे बढ़कर कुछ कर देते हैं. ये समझिए कि वही काम जो गांव की नाच में लबार यानी कि जोकर करता है. मतलब मज़ाक. बस, और कुछ नहीं.
एक दिन एक संत जी बता रहे थे कि ये ज़िन्दगी क्या है. ये दुनिया क्या है. दुनिया एक मंच है और हर आदमी अभिनेता. सभी अपना-अपना रोल खेल रहे हैं और चले जा रहे हैं. हमारे गांव के घुरहू ने तब निष्कर्ष निकाला कि असल में नेता जी ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है. घुरहू की अक़्ल असल में संत जी के उलट थी. घुरहू मानते थे कि ज़िन्दगी सच है, लिहाजा ज़िन्दगी की घटनाएं भी सच हैं और उस सच का अभिनय है सच के साथ एक्सपेरीमेंट. असल में नेताजी यही कर रहे हैं. एक्सपेरीमेंट. पब्लिक को अब सच के साथ यह एक्सपेरीमेंट बर्दाश्त नहीं करना चाहिए. इससे वह छली जाती है.
इसके पहले कि अपना निष्कर्ष घुरहू सबको बता पाते और यह बात दूर-दूर तक फैलती, नेताजी को पता चल गई. उन्होने तुरंत इंतज़ाम बनाया. ख़ुद बैठ गए और अपने सामने आए बहुत बडे कद्दावर नेताजी के सामने एक अभिनेता जी को उतार दिए. अभिनेता जी ने क्या कमाल किया. कद्दवर नेताजी की तो उन्होने धोती ही ढीली कर दी. पब्लिक ने सोचा था कि अभिनेता जी जैसे फिल्मों में दिखाते हैं कलाबाजी, वैसे ही दिखाएंगे असल ज़मीन पर भी. एक फैट मारेंगे और एके 47 वाले धरती पकड लेंगे. अभिनेता जी जब पर्चा भर के निकले न कचहरी से, तो लड़की लोगों ने अपनी चुनरी बिछा दी उनके स्वागत में. लेकिन देर नहीं लगी. थोड़े ही दिन में उनको पता चल गया कि संसद के सेट पर उनसे भी बड़े-बड़े सुपर स्टार जमे हुए हैं. भाग खड़े हुए मैदान से. इधर पब्लिक ने ये भी देख लिया कि सिनेमा में बहुत ख़ुद्दार दिखने वाले अभिनेता जी जो हैं, ऊ हमारे गांव के नचनिए से ज़्यादा हिम्मतवर नहीं हैं. ज़रा सा झटका लगते ही तेल बेचने चल देते हैं. तो उस बेचारी का भरोसा थोड़ा और डगमगाया. उसने कुछ जगह अभिनेता लोगों को भाव देना बन्द कर दिया.
नेताजी ने यह बात फिर समझ ली. तो लीजिए अबकी बार ऊ सीधे गांव के नाच से ही लेकर आए हैं. बहुत टॉप क्लास का लबार. अरे वही लबार जिसकी एक-एक बात पर हंसते-हंसते आप लोग लोटपोट हो जाते हैं. घंटों खाना-पीना छोड़ के टीवी से चिपटे रहते हैं. अब उसको आपकी नुमाइंदगी के लिए भेजा जा रहा है. संसद के स्टूडियो में जाके अब ऊ आपके हितों पर लड़ने का अभिनय करेगा. हे भाई देखिए, जैसे सभी नेता जी लोग करते हैं चुनावी महाभारत में उन बेचारे को भी आपसे वादे तो करने ही पड़ेंगे. ये उसकी दस्तूर है न, इसीलिए. लेकिन एक बात का ध्यान रखिएगा कि आप कहीं उस वादे को दिल से न लगा लीजिएगा. भूल के भी अगर अइसा करेंगे न, तो पछताइएगा. क्योंकि मज़ाक करना उनका पेशा है. ऊ परदे से लेके चुनावी मंच तक आपके साथ मज़ाक करेंगे. संसद, देश के संविधान, जनता यानी कि आप के हितों और लोकतंत्र के साथ तो मज़ाक यहाँ होइए रहा है, बहुत दिनों से. पर अभी तक जो यह सब होता थ न, वह सब तनी संकोच के साथ होता था. समझ लीजिए कि अब वह संकोच नहीं बचेगा. जो भी होगा खुले आम होगा. संसद और संसदीय मर्यादाओं, जनता और जनता के हितों, लोक और लोकतंत्र, देश और देश के संविधान ...... और जो कुछ भी आप सोच सकते हैं, उस सबके साथ, मज़ाक का सीधा लाइसेंस अब जारी हो गया है. आगे जैसा आपको रुचे. समझ गए न ज्ञान भैया और भाई सिद्धार्थ जी बुझाएल कि ना कुछू?
लुक्कड़ई, :)
ReplyDeleteसर आप किस अछांश और देशांतर में अवतरित हुए थे , ये लुक्कड़ई शब्द कुछ ज्यादा ही जाना पहिचाना लग रहा था इसलिए पूछ लिया, कृपया मार्गदर्शन करे.
भाई प्रमोद जी
ReplyDeleteमैं अक्षांश 26:45 N और देशांतर 83:23E पर अवतरित हुआ था. अपने बारे में बताना पसन्द करेंगे क्या? वहाँ इस शब्द का बेतहाशा इस्तेमाल होता है.
पर इस पोस्ट की पिनक्वा में जूतवा त हेरायिल गयिलस हो ! कौने ठौंवा जुतवा हेरायल हो रामा गुईयां ज्ञान जी की गलियाँ !
ReplyDeleteना-ना अरविन्द जी! हेरायल ना हौ. ऊ बिलकुल सही सलमत हौ. बस बिहानि ठेलत हईं, एगो और जूता.
ReplyDeleteवाह भाई वाह! प्रयाग की पुण्य भूमि पर होने वाले चुनावी मजाक की गाथा तो बड़ी रोचक है लेकिन इसे हमे समर्पित करने का मर्म समझ में नहीं आया।
ReplyDelete...वैसे मुझे तो इस चुनावी लोकतंत्र से निराशा होने लगी है। यदि हम ऐसे ही प्रतिनिधि चुनने को अभिशप्त हैं तो मेरी भावना शायद इस पुर्विहा कहावत में झलकती है:
“सुकसुकहा सोहाग से राँणे निम्मन”
ख़ुद्दार दिखने वाले अभिनेता जी जो हैं, ऊ हमारे गांव के नचनिए से ज़्यादा हिम्मतवर नहीं हैं.
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सच्ची, वह सब जो चमकता है, सोना नहीं होता।
बहुत चमकने वाला जूता भी होता है!
भाई आप की यह अमर गाथा बहुत प्यारी लगी.धन्यवाद
ReplyDelete“सुकसुकहा सोहाग से राँणे निम्मन”
ReplyDeleteग़ज़ब कहावत ह ले भाई.
आ आप लोगन के समर्पित एह नाते कइले रहलीं जा, आगे ई नेताजी के आपै लोगन के झेले के हौ.