अथातो जूता जिज्ञासा-22
पिछले दिनों भाई ज्ञानदत्त जी बहुत परेशान हुए कि भरतलाल ने जाने उनकी चटपटी कहां रख दी है. पता नहीं आप कभी ऐसी परेशानी से हलकान हुए या नहीं, पर इस बात से इतना तो तय हुआ कि अभी भी ऐसे लोग हैं जिन्हें चटपटी पहनने का शौक़ है. चूंकि हिन्दुस्तान में चटपटी पहनने के शौक़ीन लोग हैं, लिहाजा यहाँ चटपटी मिलती भी है, अब यह अलग बात है कि ज़रा मुश्किल से मिलती है. वैसे मेरा ख़याल है कि आपको यह जानकर ताज्जुब नहीं होगा कि भारत के अलावा कुछ ऐसे देश भी हैं जहाँ जहाँ चटपटी बड़ी मुश्किल से मिलती है, अलबत्ता यह जानकर ताज्जुब ज़रूर होगा कि अभी भी पश्चिम में कुछ ऐसे देश हैं जहाँ चटपटी मिलती है और कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बड़े शौक़ से उसका इस्तेमाल भी करते हैं. जी हाँ, मैं उसी चटपटी की बात कर रहा हूँ जो खड़ाऊँ जी की छोटी बहन है. आधुनिक भाषा में परिभाषित करना हो तो यूँ समझें कि लकड़ी के सोल पर रबड़ की पट्टी वाली चप्पल.
अंग्रेज लोग इसे यही कहते भी हैं और इसे पहनना बड़ी प्रतिष्ठा की बात मानते हैं. उनकी एक कहावत है : ही इज़ सच अ लायर यू कैन फील इट विद योर वुडेन शूज़. यहँ वुडेन शूज़ का मतलब कुछ और नहीं वही चटपटी है. असल में यह कहावत अंग्रेजी में आई है डच भाषा से. डच में इसे क्लोम्पेन कहते हैं और कहावत का ज़ोर वस्तुत: इसकी दुर्लभता से है. असल में पूरे पश्चिम में अब सिर्फ़ हॉलैंड ही ऐसा देश है जहाँ कुछ ख़ास इलाकों में क्लोम्पेन यानी कि चटपटी मिलती है. अब वहाँ यह चीज़ कबसे मिलती है, यह तो कोई इतिहासवेत्ता ही बता सकता है, लेकिन इतना तो तय है कि सिर्फ़ भारत ही ऐसा देश नहीं है, जहाँ चटपटी मिलती है. दूसरे देशों, और ख़ास तौर से वे देश जहाँ से मिली फ़ालतू की मान्यता को भी हम नोबल प्राइज़ या ऑस्कर एवार्ड की तरह अपने सीने से चिपका कर रखते हैं, में भी इसका प्रचलन है.
डच की ही एक और बड़ी दिलचस्प कहावत है, जिसका अंग्रेजी अनुवाद है : ही हैज़ फॉरगॉटेन हिज़ वॉर्न शूज़. मतलब यह कि वह इतना कृतघ्न है कि अपने फटे हुए जूते भूल गया. पता नहीं उनके यहाँ ऐसे लोग होते हैं या नहीं, पर हमारे हिन्दुस्तान में तो ऐसे लोग बहुत हैं जो अपने फटे हुए जूते भूल जाते हैं. अब यह न सोचने लगिएगा कि उनके लिए अपना मूल जूते के नीचे है, वस्तुत: तो हम सब के लिए ही अपना मूल स्थान 'स्वर्गादपि चिर गरीयसी' होने के बावजूद है तो जूते के नीचे ही, पर वे इसे खुले मन से स्वीकारते हैं और यहाँ वॉर्न शूज़ यानी फटे हुए जूतों का आशय वस्तुत: मूल स्थान से ही है. इस अर्थ में देखें तो हम भारतीयों की तो ख़ूबी यही है कि हम अगर पने फटे हुए जूते भूल नहीं पाते तो उन्हें छिपा देने की पूरी कोशिश करते हैं. हमं टाई लगानी नहीं आती, यह हमारे लिए शर्म की बात है. लेकिन नहीं, इससे भी ज़्यादा हैरतअंगेज़ तथ्य यह है कि धोती या मिर्जई या चौबन्दी पहनना न आने पर हमें फ़ख़्र होता है. यक़ीनन, चुल्लू भर पानी की क्या बिसात कि वह हमें डुबाए. सच तो यह है कि समुन्दर के सामने हम पड़ें तो वह वेचारा हमसे नज़रें मिलाने के पहले ही धंस जाए.
फटे हुए जूतों की बात पर याद आया, जूते घिसना या फटना सिर्फ़ हमारे देश के लोगों की ही मजबूरी नहीं है. कुछ दूसरे देश भी हैं, जहाँ इसे न केवल अनुभव बल्कि कड़ी मेहनत और मशक्कत का प्रमाण माना जाता है. इटैलियन की कहावत है : बिट्वीन सेइंग ऐंड डूइंग, मेनी अ पेयर ऑफ शूज़ इज़ वॉर्न आउट. और साहब अंग्रेजी की ही एक और कहावत है : द कॉब्लर आल्वेज़ वियर्स द वर्स्ट शूज़. जूते बनाने वाला हमेशा सबसे ख़राब जूते ही पहनता है. समझ रहे हैं न!
(चरैवेति-चरैवेति...)
मारते चलिए भिगा भिगा कर जूतियाँ -मगर उस चटपटी -खडाऊं का नमन भी करिये जो श्रद्धा और विश्वास की प्रतिमूर्ति बन गयी !
ReplyDeleteहम भी हमारी चटपटियाँ छिप जाने से परेशान हो जाते हैं कभी कभी।
ReplyDeleteबहुत खूब आपने सही कहा हमें अब टाई न लगा पाने में शर्म आती है और धोती न लगा पाने में गर्व की अनुभूति होती है
ReplyDeleteजोहार
ReplyDeleteएकदम सत्य लिखा आपने "हम अगर अपने फटे हुए जूते भूल नहीं पाते तो उन्हें छिपा देने की पूरी कोशिश करते हैं."
किसी फिल्म का संवाद था की "आदमी की औकात उसके जूतों से पता चलती है ".
उम्दा जानकारी देने के लिए धन्यवाद
कोशिश करें इस सीरिज को किताब की शक्ल में लाने की। पसंद आया।
ReplyDeleteaapaka sujhav achछ्aa laga anshumaalee jee. dhanyavaad. ham pooree koshish karenge.
ReplyDeleteओह, भरतलाल नें स्टोर से खड़ाऊं भी निकाल दिया और चट्टी (आगे पट्टी वाली लकड़ी की चप्पल) भी। अब नजारा यह है कि सागौन की लकड़ी की खड़ाऊं लाने वाले हैं हमारे एक मित्र हमारे लिये होली के बाद।
ReplyDeleteयह सब जूता जिज्ञासा का प्रताप है!
अब आया मजा, बीच में पारो न जाने कहां से आ गयी थी डिस्टर्ब करने।
ReplyDeleteदेखिए निकल गया न! मैं पहले ही कह रहा था कि
ReplyDeleteजूते से सब होत है बातन से कुछ नाहिं
.अरे पारो का भी अपना महत्व है साइंस ब्लॉगर भाई. जैसे सलीमा में फाइट होता है, एक्सन होता है त गानो न होता है आ तनी रोमांस-ओमांस वाला सीन होता है त तनी सिखावन-उखावन भी होता है. यही लिए ताकि आप लोग एक्के बात से उबें नहीं.
ReplyDeleteचटपटी पर काफी रिसर्च कर ली आपने. सुना है लालूजी भी पहनते हैं इसे.
ReplyDelete"यक़ीनन, चुल्लू भर पानी की क्या बिसात कि वह हमें डुबाए. सच तो यह है कि समुन्दर के सामने हम पड़ें तो वह वेचारा हमसे नज़रें मिलाने के पहले ही धंस जाए. "
ReplyDeleteवाह्! क्या बात है........यहां तो भिगोने की भी जरूरत नहीं दिखाई दे रही, बिना भिगोए ही धना धन जूतियां मारी जा रही हैं.
वैसे एक बात है कि, कहा आपने बिल्कुल दुरूस्त है.......लगे रहिए.....अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी.
मुझे लगता है पारो जरुर गन्ने के खेत मै चटपटी पहन कर ही गई हो गी,(राजाई का क्या काम इतनी गर्मी मै) फ़िर उस की चटपटी किसी जड मै फ़ंस गई होगी, ओर जोर लगाने से टुट गई होगी, फ़िर तो पारो का पारा चढगया होगा ओर देवदास से लड कर वहा से आ गई होगी कमबखत बुलाना ही है तो नहर वाले पुल पर बुला तो, टुयुबल पर बोला लो, कुय़ॆं पर बुला, पागल गन्ने के खेत मै ... अब मेरी चटपटी सिलवा, नही तो मै नही बोलती, ओर चटपटई देव दास के ऊपर मार कर पारो घर आ गई होगी..... बाकी कहानी सब को पता है
ReplyDeleteधन्यवाद