अथातो जूता जिज्ञासा-23
(भाई लोगों ने बड़ी राहत महसूस की होगी कि चलो अब जूता नहीं पड़ेगा. लेकिन नहीं साहब, जूता अभी थका नहीं है. अभी उसकी यात्रा पूरी भी नहीं हुई है. सच तो यह है कि जूता चिंतन जब अपने शवाब की ओर बढ़ ही रहा था, तभी मुझे यानी जूता चिंतक को वक़्त के कुछ जूते बर्दाश्त करने पड़ गए. बस इसीलिए जूता चिंतन को लिपिबद्ध करने की प्रक्रिया ज़रा थम सी गई थी. पर अब मैं फिर मैदान में हाजिर हूं और तब तक हाजिर ही रहूंगा जब तक कि फिर कोई जूता नहीं पड़्ता या चिंतन की प्रक्रिया अपनी चरम परिणति तक नहीं पहुंच जाती.)
जूते बनाने वाला हमेशा सबसे ख़राब जूते ही पहनता है, यह कहावत जितनी पश्चिम में सही है उससे कहीं ज़्यादा सही यह हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में है. ग़ौर करे तो आप पाएंगे कि हमारे भारत महान में तो बहुत दिनों तक जूते बनाने वाले के लिए जूते पहनना ग़ुनाह जैसी बात रही है. यहां जूते पहनने की अनुमति सिर्फ़ उन्हें ही रही है जो जूते चलाना जानते थे. बिलकुल वैसे ही जैसे फ्रांस की वह रानी साहिबा - मैरी अंतोनिएत. पर अब जूते बनाने वाले भी यहां जूते पहनने लगे हैं और यक़ीन मानिए उन्हें भी यह नसीब तभी हुआ है जब उन्होने जूते बनाने के अलावा जूते चलाने भी सीख लिए हैं.
जूते बनाते-बनाते चलाने लग जाने की प्रक्रिया की शुरुआत सच पूछिए तो संत कवि रैदास से शुरू होती है. अव्वल तो क़रीब पांच सौ साल पहले दी हुई उनकी एक कहावत भारतीय लोकमानस आज भी नहीं भूला है - मन चंगा तो कठौती में गंगा. हालंकि रैदास ने जब यह बात कही थी तब उन्होंने कोई कहावत कहने के लिए यह बात नहीं कही थी. असल में तो उन्होंने जूता ही चलाया था, पर ज़रा भिगो कर. या यूं कहें कि शहद में डुबो कर. जैसा कि भाई आलोक, भाटिया जी और इर्दगिर्द मेरे लिए कह चुके हैं. यह जूता उन्होने चलाया था उन कर्मकांडियों और चमत्कारप्रेमियों के मुखारविन्द पर जो धर्म के नाम पर सिर्फ़ कर्मकांडों की लकीर पीटते जाने के अभ्यस्त हो चुके थे. लकीर पीटने के वे इस हद तक अभ्यस्त हो चुके थे कि जिन रीति-रिवाजों के अनुपालन में वे अपना और अपने प्रति विश्वास रखने वालों का अच्छा-ख़ासा समय बरबाद करते थे, उनका निहितार्थ जानने की कभी कोशिश भी नहीं करते थे. बल्कि सच तो यह है कि अगर कोई दूसरा जानने की कोशिश भी करता तो शायद उसे उनका कोपभाजन भी बनना पड़्ता. क्या पता वे कौन सा कैसा शाप दे देते. क्योंकि उनके मूल मे जाने और निहितार्थों की तलाश करने से उनका अपना धन्धा जो चौपट होता था.
न हल चले न चले कुदाली
बैठे भोजन दें मुरारी
वाली उक्ति तो बस तभी तक सम्भव हो सकती थी, जब तक कि कोई इन बातों के निहितार्थ की तलाश न करता. निहितार्थ तलाशने की कोशिश हुई नहीं कि गए काम से. पर रैदास ने इनके निहितार्थ तलाशने की कोशिश की. वैसे जूते उनके पहले भी लोगों ने कर्मकांड पर चलाए. गोरख से लेकर कबीर तक, उनके भी पहले चार्वाक और बुद्ध भी ... जूते ही तो चलाते रहे. पर उन्हें जूते बनाने का अनुभव नहीं था. बस इसीलिए उनके जूते बहुत दिनों तक चल नहीं सके. वे थोड़े दिनों के नारे बन कर रह गए. कबित्त तो बने पर कहावत नहीं बन सके. रैदास की बात लोक की बात बन गई तो इसकी वजह शायद यही थी कि उन्होने चलाना बाद में, बनाना पहले सीखा था.
इसीलिए जब उन्होंने चलाना शुरू किया तो ताबड़्तोड़ चलाया और बड़े-बड़े जूतेबाजों को भी फिर हिम्मत नहीं हुई कि रैदास के सामने पड़ते. क्योंकि वह वही कह रहे थे जो बार-बार योगी कहते आए थे. उत्तमा सहजावस्था, मध्यमा ध्यान धारणा, अधमा तीर्थयात्रा च मूर्तिपूजा धमाधमा. और अपने यह कहने में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आजकल हो रही शर्मनिरपेक्षता का भी कोई ख़याल नहीं किया. साफ़ कहा-
कृस्न करीम राम हरि राघव, जब लगि एक न पेखा.
बेद कितेब कुरान पुरानन, सहज एक नहिं देखा.
जोइ-जोइ पूजिय सोइ-सोइ कांची, सहज भाव सति होई.
कहि रैदास मैं ताहि को पूजूं, जाके ठांव नांव नहिं होई.
उनके समय में भारत मिशनरियों के सेवा भाव और पुण्य प्रयासों से आक्रांत नहीं था. टीवी चैनलों के ज़रिये अरबों का कारोबार करने वाले परमपूज्य बाबाओं और राम के माध्यम से संसद पर कब्ज़ा करने की एकटक ताक में लगे भक्तों का भी तब कोई अता-पता नहीं था और शर्मनिरपेक्ष लोग तो तब होते ही नहीं थे, वरना यक़ीन मानिए इन्हें भी उन्होंने छोड़ा नहीं होता. बाद में जब गोसाईं बाबा डंके की चोट पर ऐलान कर रहे थे -
धूत कहो अवधूत कहो रजपूत कहो जोलहा कहो कोऊ
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब काहू की जात बिगारब न सोऊ
मांग के खइहौं मसीत में सोइहौं, लेबै को एक न देबै को दोऊ.
तब उनकी हिम्मत का अधिकांश उसी धारा से आ रहा था, जिसकी शुरुआत रैदास ने की थी.
(चरैवेति-चरैवेति)
सुन्दर!
ReplyDeleteकमाल है,
ReplyDeleteइतनी फजीहत के बाद भी जूता जिज्ञासा खत्म नही हुई।
अब जूता जिज्ञासा ले ही आये हैं तो इसे जारी ही रक्खें।
पनही पर भी प्रकाश डाले -बाकी तो आप जूते को सिरमौर बनाने में जुट ही गये हैं ! आज का jootaakhyan भी jordar है !
ReplyDeleteजूता जिज्ञासा का ये अंक भी बही उत्तम है .
ReplyDeleteन हल चले न चले कुदाली
बैठे भोजन दें मुरारी
जय जूता, जय मुरारी
सबमे है प्रभु, तस्वीर तुम्हारी
बहुत बाड़िया... वाकई मे पड़कर आनंद आगय. आप कॉन्सी टूल यूज़ करते हे ?रीसेंट्ली मे यूज़र फ्रेंड्ली टूल केलिए डुंड रहा ता और मूज़े मिला "क्विलपॅड".....आप भी इसीका इस्तीमाल करते हे...?
ReplyDeleteउन मे तो 9 भाषा उपलाबद हे.... और रिच टेक्स्ट एडिटर भी हे... बहुत आसान का टूल हे चाहिए तो ट्राइ कर के देकिये....
www.quillpad.in
भाई मयंक जी
ReplyDeleteआश्वस्त रहें. मामला जारी रहेगा.
भाई अरविन्द जी
पनही पर अगली कड़ियों में ज़रूर टॉर्चलाइट फेंकूंगा. यह महत्वपूर्ण मसला है और विकासक्रम में आएगा. आप अपना स्नेह बनाए रखें.
भाई संतोष जी
ReplyDeleteसुझाव के लिए धन्यवाद. मैं विंडोज़ लाइव राइटर का प्रयोग करता हूं और वही मुझे सिद्ध हो गया है. बहुत तकनीकी आदमी नहीं हूं, इसलिए तकनीकी मामलों में जल्दी रद्धोबदल नहीं करता. चाहें तो आप भी उसका प्रयोग करके देख सकते हैं.
आभार.
are wah!! aapane juta chalana phir shuru kar diya....maja aa gaya..charwak baba ko bhi aap le aaye...unake bare me bahut kuch suna hun...Khatak khatak marate the...lekin juta banane aur chalane ki parmpara Raidas se shuru hota hai...yeh wakai me milestone invention hai...aapake jute chalate rahe
ReplyDeleteइसका नाम ही बदल दें
ReplyDeleteयह तो जूता पुराण है
जूता जिज्ञासा कहां है
सारी आसाएं फलीभूत हो रही हैं
जूता प्राण अब पुराण भए चले
इसे जूता पुराण कहें।
bhai, lagta sabkee juta kee maap lekar hee dam lenge. waise main is vyangya katha kaa murid hun.
ReplyDeleteavinash ji se sahmat hun....inake bat per per gaur kare....yeh juta puran hi hai
ReplyDeleteबहुत उत्कृष्ट एवं गंभीर लेखन ,जूता पुराण पर .आप द्वारा लिखी गईं लोकोक्तियाँ बहुत पसंद आयीं .
ReplyDeleteभक्त रैदास के बारे में अल्प जानकारी होने का अहसास हुआ आपकी पोस्ट पढ़ने के बाद। उनके बारे में और पढ़ने जानने की लालसा उपजी है।
ReplyDeleteपोस्ट के लिये धन्यवाद।
id जी यदि संभव हो और आपको असुविधा न हो तो उद्धृत पंक्तियों के अर्थ पर भी कभी कभार थोड़ा प्रकाश डाल दिया करें तो कृपा होगी . समझने में कठिनाई होती है कि जूता किधर को उड़कर किसके मुखारविंद पर जड़ित हो रहा है .
ReplyDeleteजहाँ तक मेरे भेजे ने ग्रहण किया .. "विचारों को निर्मल रखना ही धर्म है ".सत्ताधारियों और उनके चापलूसों के गठजोड़ द्वारा धर्म कि आड़ में कई कर्मकांडों और पाखंडों का आविष्कार सिर्फ इसलिए किया गया ताकि उनका धंधा चमकता रहे .ये सुनिश्चित किया गया कि लोगों पर अंधविश्वासों कि जकड़ मजबूत बनी रहे ताकि अबोध लोग सत्ता के अंधभक्त बने रहें . कुछ ग्रंथों के पहले पन्ने में तो सीधे अग्रीमेंट होता है कि "आप इसमें लिखी गयी बातों को अक्षरसः माने और कंठस्थ करें तभी आप सच्चे अनुयायी हैं अन्यथा नहीं ".
baba, aapko blog ki dunia me aaj hi khoj paya hu. maja aa gaya. jari rahe.......
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