ईश्वर ने दुनिया बनाने से पहले एक सिगरेट सुलगाई होगी
ईश्वर ने दुनिया बनाने से पहले एक सिगरेट सुलगाई होगी..ये बात शायद रसुल ने ही लिखी थी...मैं भूलता बहुत ज्यादा हूं...किसी दिन सांस लेना न भूल जाऊ...वैसे स्वाभाविक क्रियाओं को भूलने से कोई संबंध नहीं है...डर की बात नहीं है, सांस लेना नहीं भूलूंगा...सिगरेट के बारे में एक डायलोग है...अब किसने लिखा है याद नहीं है...कुछ बुझौवल टाइप का है...वह कौन सी चीज है जो खींचने पर छोटी होती है...सिगरेट पर कुछ बेहतरीन फिल्मी गाने भी बने हैं...सबसे प्यारा गाना है...हर फिक्र को धुयें में उड़ता चला गया...एक समय था जब मैं रेलगाड़ी की तरह धुयें उड़ाता था...स्कूल जाने से पहले ही मुहल्ले के आवारा दोस्तों के साथ सिगरेट का कश लगाने लगा था...वो बस्ती ही एसी थी...स्कूल में कई दोस्तों को सिगरेट पीने की आदत डाल दी थी...बुरी लत बचपन में ही लगती है....अच्छा होता लाइफ में
एक टेक मिलता...कई चीजें ठीक कर लेता...
आप पहली-पहली बार किसी लड़की को लव लेटर लिखे...और हिम्मत करके उसे थमा दे...शाम को उसका बाप आपके घर पर आ धमके और आपकी कान खींचते हुये आपके लेटर में से ग्रैमेटिकल गलतियां दिखाये...तो आप क्या करेंगे। और दूसरे दिन से आपके सभी जानने वाले उन ग्रैमेटिकल गलतियों को लेकर आपकी खिल्ली उड़ाते रहे...इस तरह के मंजर में रिटेक कैसे लिया जा सकता है...जिस समय दुनिया यंग्रीमैन अमिताभ बच्चन की दीवानी थी उस वक्त मैं इसी तरह के दौर से गुजर रहा था...दीवार स्टाइल में अपने कुर्ते के नीचे के दो बटन को तोड़कर उसमें गांठ बांधकर स्कूल में उसी तरह से पहुंचा था...मैथेमैटिक्स का मास्टर बहुत मरखंड था...पता नहीं क्यों मैथेमेटिक्स के सारे मास्टर मरखंड क्यों होते हैं....दे धबकिया शुरु कर दिया...सात दिन तक स्कूल के बाहर बैठकर उसे पीटने की योजना बनाता रहा...कभी कमर में साइकिल का चैन लेकर आता, तो कभी मोहल्ले के किसी आवारा दोस्त के पास से चाकू....लेकिन उसके सामने आते ही हिम्मत जवाब दे देती थी...पता नहीं ये सब मैं क्यो लिख रहा हूं...बस यूं ही इच्छा हो रही है....हां तो मामला ये बनता है कि आपकी जो इच्छा करे लिखे...मैं तो आजकल यही कर रहा हूं...देखता हूं कब तक कर पाऊंगा..
एक टेक मिलता...कई चीजें ठीक कर लेता...
आप पहली-पहली बार किसी लड़की को लव लेटर लिखे...और हिम्मत करके उसे थमा दे...शाम को उसका बाप आपके घर पर आ धमके और आपकी कान खींचते हुये आपके लेटर में से ग्रैमेटिकल गलतियां दिखाये...तो आप क्या करेंगे। और दूसरे दिन से आपके सभी जानने वाले उन ग्रैमेटिकल गलतियों को लेकर आपकी खिल्ली उड़ाते रहे...इस तरह के मंजर में रिटेक कैसे लिया जा सकता है...जिस समय दुनिया यंग्रीमैन अमिताभ बच्चन की दीवानी थी उस वक्त मैं इसी तरह के दौर से गुजर रहा था...दीवार स्टाइल में अपने कुर्ते के नीचे के दो बटन को तोड़कर उसमें गांठ बांधकर स्कूल में उसी तरह से पहुंचा था...मैथेमैटिक्स का मास्टर बहुत मरखंड था...पता नहीं क्यों मैथेमेटिक्स के सारे मास्टर मरखंड क्यों होते हैं....दे धबकिया शुरु कर दिया...सात दिन तक स्कूल के बाहर बैठकर उसे पीटने की योजना बनाता रहा...कभी कमर में साइकिल का चैन लेकर आता, तो कभी मोहल्ले के किसी आवारा दोस्त के पास से चाकू....लेकिन उसके सामने आते ही हिम्मत जवाब दे देती थी...पता नहीं ये सब मैं क्यो लिख रहा हूं...बस यूं ही इच्छा हो रही है....हां तो मामला ये बनता है कि आपकी जो इच्छा करे लिखे...मैं तो आजकल यही कर रहा हूं...देखता हूं कब तक कर पाऊंगा..
.उस समय एबीसीडी की शुरुआत छठे क्लास से होती थी...हि इज मोहन, सी इज राधा...इस तरह के छोटे-छोटे सेंटेंस रहते थे...लटकते लुटकते राम भरोसे दसंवी तक पहुंच गया...किताब क्या होता है पता ही नहीं था...इंटर में आने के बाद लड़कियों के एक अंग्रेजी स्कूल में कुछ कार्यक्रम में लफंदरीय करने के लिये पहुंच गया, पूरे गैंग के साथ...एक लड़की ने अंग्रेजी में एसी डांट लगाई कि पूरे गैंग का हाथपांव ठंडा हो गया...सबकोई दूम दबाकर के इधर उधर भाग निकले...लेकिन मुहल्ले के दोस्तों की बहनों को पता चल गया था कि कैसे अपन लोगों की मिट्टी पलीद हुई है...गैंग के सभी लड़कों का बाहर निकलना मुश्किल हो गया था...गंभीर विचार विमर्श के बाद सभी लोगों ने अंग्रेजी सीखने का फैसला किया...एक प्रोफेसर को पकड़ा गया...नाम था आरपी यादव...प्रत्येक लड़कों से महीने में वह एक सौ पच्चीस रुपया लेते थे...और सप्ताह में तीन दिन पढ़ाते थे...उनका पढ़ाने का अंदाज में भी निराला था...एक ही बार में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की डिस्कवरी आफ इंडिया पकड़ा दी....गैंग के लड़कों ने कहा कि सर आप पगला गये हैं का...इहां एबीसीडी भुझाइये नहीं रहा है...और आप एक बार हिमालय पर चढ़ा दिये....गुस्सा उनके आंख, कान, नांक और भौ से फूटते रहता था...थोड़ा सनकी थे...बोले, सालों जो मैं पढ़ाता हूं वह पढ़ो, नहीं तो भागों यहां से...
खैर डिस्कवरी आफ इंडिया में से वह एक पैराग्राफ उठाते थे और बारी बारी करके सभी लौंडो से रीडिंग डलवाते थे, और फिर कहते थे कि इसको घर पर जाकर कम से कम तीस बार पढ़ना...अंग्रेजी सीखाने के मामले में ट्रांसलेशन मैथेड के तो वह पक्के दुश्मन थे और इस मैथेड पर चले वाले अंग्रेजी के सभी उस्तादों को चीख चीख कर के गालियां देते थे...दस दिन में अंग्रेजी पढ़ना सीख गया..पहले टो टो करके पढ़ता था, फिर धड़ल्ले से। लेकिन उसके अर्थ से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था...आरपी यादव ने कह रखा था कि अभी अर्थ समझने की जरूरत भी नहीं है, बस बिना सोचे समझे पढ़ते जाओ...दस दिन बाद उन्होंने सभी लड़कों को दो किताबें खरीदने को कहा, एलेन की इंग्लिश लिविंग स्ट्रक्चर और थामस और मार्टिन की प्रैक्टिकल इंग्लिश एक्सरसाइज बुक...सीधे इन्होंने क्लाउज एक्सरसाइज में ढकेल दिया...नाउन क्लाउज, एडजेक्टिव क्लाउज...और न जाने कौन कौन सा क्लाउज...वह छोटा छोटा मैथेमैटिकल फार्मूला देते थे और कहते थे कि इन क्लाउजों के साथ कुश्ती करो...पांच सेंटेस सामने तोड़वाते थे और दो सौ सेंटेस घर से तोड़कर लाने के लिए कहते थे...घर से तोड़कर नहीं लाने पर गैंग के लौंडों की मां-बहन एक कर देते थे...पढ़ाने के दौरान वह एक बेड पर लेते रहते थे, और गालियां उनके मुंह से टपकती रहती थी...गैंग के सभी लौंडों ने मैदान छोड़ दिया, एक मैं ही बचा रहा...छह महिना के बाद तो मैं जान स्टुअर्ट मिल की आन लिबर्टी को अपने तरीके से पी रहा था, उसी की भाषा में।
एडम स्मिथ ने एक बहुत ही अच्छी बात कही है, किसी भी चीज को सीखने में सात दिन से ज्यादा समय नहीं लगनी चाहिये...हां नई चीज की खोज में आपके साठ साल भी लग सकते हैं...
आरपी यादव का थोबड़ा बनैले सुअर की तरह था, और आंखे छोटी-छोटी अंदर की ओर धंसी हुई, जिनमें अक्सर किंची लगा होता था...। एक कान हाथी की तरह बड़े थे, और दूसरा चमगादड़ की तरह छोटा...जब उसका हाथ उसके छोटे कान पर जाता था तो वह बौखला जाता था...बोलता था, मेरे इस कान को एक ब्राह्मण ने मरोड़ दिया था, बच्चा में मैं उसकी खाट पर बैठ गया था...अब कोई ब्राह्मण मेरी कान को मरोड़ कर दिखा दे, एसा घूंसा मारुंगा कि पाताल लोक में चला जाएगा...पता नहीं इन बातो का सेंस है या नहीं...
एडम स्मिथ ने एक बहुत ही अच्छी बात कही है, किसी भी चीज को सीखने में सात दिन से ज्यादा समय नहीं लगनी चाहिये...हां नई चीज की खोज में आपके साठ साल भी लग सकते हैं...
आरपी यादव का थोबड़ा बनैले सुअर की तरह था, और आंखे छोटी-छोटी अंदर की ओर धंसी हुई, जिनमें अक्सर किंची लगा होता था...। एक कान हाथी की तरह बड़े थे, और दूसरा चमगादड़ की तरह छोटा...जब उसका हाथ उसके छोटे कान पर जाता था तो वह बौखला जाता था...बोलता था, मेरे इस कान को एक ब्राह्मण ने मरोड़ दिया था, बच्चा में मैं उसकी खाट पर बैठ गया था...अब कोई ब्राह्मण मेरी कान को मरोड़ कर दिखा दे, एसा घूंसा मारुंगा कि पाताल लोक में चला जाएगा...पता नहीं इन बातो का सेंस है या नहीं...
बहुत बढ़िया , ये भी खुब रहा
ReplyDelete"हां एबीसीडी भुझाइये नहीं रहा है...और आप एक बार हिमालय पर चढ़ा दिये."
आपने अपने गुरुदेव यानी आरपी यादव का जो गुणगान किया वह तो काबिले-तारीफ़ है. सिगरेट सुलगाने वाली बात है तो रसूल हम्ज़ातोव की ही और वह है कुछ इस तरह :
ReplyDeleteमेरे ख़याल से तो यार-दोस्तों को कोई दिलचस्प किस्सा सुनाने (और आप भी यही कर रहे हैं) या नया उपदेश देने के पहले ख़ुद अल्लह भी सिगरेट जलाता होगा, लंबे-लंबे कश खींचता और कुछ सोचता-विचारता होगा.
एक और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने भी कही है : सिगरेट के सिरे पर आग और दूसरे सिरे पर एक मूर्ख होता है. (ये अलग बात है कि उसके दूसरे सिरे पर मौजूद होने का अनुभव मैं भी कई बार ले चुका हूं. चूंकि प्रीतिकर नहीं लगा लिहाजा वहाँ से हटना ही ठीक समझा)
सीधे इन्होंने क्लाउज एक्सरसाइज में ढकेल दिया...नाउन क्लाउज, एडजेक्टिव क्लाउज...और न जाने कौन कौन सा क्लाउज...वह छोटा छोटा मैथेमैटिकल फार्मूला देते थे और कहते थे कि इन क्लाउजों के साथ कुश्ती करो...
ReplyDeleteभाई साहब ये ‘क्लाउज’ तो अभिओ नहीं बुझा रहा है। यह clause है क्या जिसे मेरे गुरूजी ने क्लॉज़ पढ़ना सिखाया था।
बड़ी मस्त पोस्ट लिख मारी है आपने। बधाई।
भाई आप का लेख पढ कर तो बल्ले ही बल्ले हो जाती है, खुब मस्त
ReplyDeleteधन्यवाद
सिद्धार्थ भाई जी, यह वही क्लौज है, आर पी यादव इसे क्लाउज कहते थे, इसलिये मैं उन्ही के उच्चारण को कवर कर लिया ..धन्यवाद इयता पर आते रहिये..
ReplyDeleteआलोक भाई जी आप तो मेरे हम नाम है...कहीं हमलोग कुंभ के मेले मे बिछड़े हुये भाई तो नहीं है...देखिये आपके बाये गाल पर कोई तिल है कि नहीं...
ईष्टदेव जी आपने तो सिगरेट के डामेंशन में चार चांद लगा दिया...आपके जूता कथा क्यों बंद हो गया...यदि जूते कम पड़ गये हों तो यहां तो मुंबई के चोर बाजार से कुछ भिजवा दे...
भाटिया पाजी, आपके कामेंट्स तो गुदगुदा देते हैं, और फिर मन करता है और लिखूं...
kya baat hai, koi n koi teacher aisa hota hi hai jo apni chhap chhod deta hai.
ReplyDeleteये आर पी यादव कोई केंद्रीय विद्यालय के शिक्षक तो नहीं ? :-)
ReplyDeleteसिगरेट के टुर्रे को मैंने भी कई बार आजमाने की कोशिश की ,पर अंततः मै धुम्रपान के लिए अयोग्य सिद्ध हुआ
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