अथातो जूता जिज्ञासा-24
जूता चिंतन का यह क्रम संत रैदास पर आकर ठहर गया हो, ऐसा भी नहीं है. इतना ज़रूर है कि उनके बाद उनके ही जैसे जूते चलाने का रिवाज शुरू हो गया. आई मीन शहद में भिगो-भिगो कर जूते चलाने का. जूते सूर ने भी चलाए, लेकिन ज़रा धीरे-धीरे. शहद में भिगो-भिगो कर. हल्के-हल्के. जब वह कह रहे थे 'निर्गुन को को माई-बाप', तब असल में वह जूते ही चला रहे थे, लेकिन शहद में भिगो के, ज़रा हंस-हंस के. ताकि पता न चले. वही मरलस त बकिर पनहिया लाल रहे. वह साफ़ तौर पर यह जूते उन लोगों पर चला रहे थे जो उस ज़माने में एकेश्वरवाद और निर्गुन ब्रह्म को एक कट्टर पंथ के तौर पर स्थापित करने पर तुले हुए थे. अपने समय की सत्ता की शह उन्हें बड़े ज़ोरदार तरीक़े से मिली हुई थी. वह देख रहे थे कि इस तरह वे सामासिकता में यक़ीन करने वाली भारत की बहुलतावादी आस्था पर जूते चला रहे थे. जहां सभी अपने-अपने ढंग से अपने-अपने भगवान बनाने और उसमें विश्वास करने को स्वतंत्र हों, ऐसी खुली मानसिकता वाली संस्कृति का तालिबानीकरण वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे और इसीलिए उन्होंने कृष्ण के उस बालस्वरूप को अपने इष्ट के रूप में स्थापित किया जो सभी तरह के छल-छ्दम और कर्मकांड से दूर था. उन्होंने ऐसा भगवान चुना जिसे सिर्फ़ पूजा ही नहीं जा सकता था, उससे निर्द्वन्द्व दोस्ती की जा सकती थी और वह भी बड़ों की तरह गुणा-भाग वाली स्वार्थपरक दोस्ती नहीं, बच्चों की तरह निर्विकार भाव वाली दोस्ती.
उनसे ही थोड़ा आगे चलकर सेनापति कवि रहीम ने भी जूते पर बड़ा ज़ोरदार चिंतन किया. आप जानते ही हैं जूते का एक पर्याय पनही है. पिछले दिनों भाई अरविन्द मिश्र जी ने हुक्म भी किया था कि अब आप पनही पर प्रकाश डालें. तो साहब पनही पर प्रकाश डालने के लिए रहीम का उद्धरण लेना बहुत ज़रूरी है. हालांकि पनही चिंतन सम्बन्धी उनके दोहे को बाद में हिन्दी के आलोचकों और उनके कुछ प्रतिस्पर्धियों ने थोड़ा भ्रष्ट कर दिया, उसमें मिलावट करके. ग़ौर फ़रमाएं, कविवर रहीम कहते हैं:
रहिमन पनही राखिए, बिन पनही सब सून
पनही गए न ऊबरे, क्या प्राइमरी क्या दून.
बाद में लोगों ने इसमें पनही की जगह पानी कर दिया और जाने कहां से मोती-मानस-चून उठा लाए. अब सोचिए एक ऐसा कवि जो सेनापति रहा हो, वह पानी की बात क्यों करेगा. ख़ास तौर से तब जबकि रहीम के ज़माने में पानी को प्रदूषित करके यह बताने वाले भी नहीं थे कि देखिए जी यह पानी तो प्रदूषित है. पानी बेचने वाली कम्पनियां तो तब पैदा ही नहीं हुई थीं, फिर भला पानी प्रदूषित करने की ज़रूरत तब क्या थी. और जब पानी प्रदूषित करने की ज़रूरत नहीं थी, तब भला पानी राखने की बात करने की क्या ज़रूरत थी? रहीम के ज़माने में तो विज्ञापन कंपनियां भी नहीं थीं कि यह सोचा जाए कि वे उनके लिए काम करते रहे होंगे और इसी क्रम में उन कंपनियों को यह पता रहा हो कि भाई आगे बोतल में बन्द करके पानी बेचने वाली कुछ कंपनियां आएंगी और उन्हें पानी बेचने के लिए स्लोगन की ज़रूरत पड़ेगी. चलो आज बना के या रहीम से ख़रीद के रख लेते हैं और भविष्य में जब ज़रूरत पड़ेगी तो काम आएगा.
इसके बजाय इस बात की संभावना ज़्यादा है कि उन्होंने पानी के बजाय पनही रखने की बात कही हो और क्या पता कि यह बात उन्होंने अपने जहांपनाह अकबर साहब से ही यह बात कही हो. आख़िर वह एक सिपहसालार थे. सिपहसालार का बुनियादी काम जूते चलाना ही होता है. आप जानते ही हैं कि अब तक इस देश पर जिन लोगों ने भी राज किया है, सबने जूते के ही दम पर राज किया है. और हिन्दुस्तान ही क्यों, पृथ्वी नामक इस ग्रह के किसी भी कोने पर अगर किसी ने कभी राज किया है तो जूते के ही दम पर. यह अकारण नहीं है कि अब लोकतंत्र में पब्लिक जूते उठा रही है. असल में बेचारी पब्लिक ने देख लिया है कि उसके नाम पर राज तो वे लोग कर रहे हैं जिन्हें जेलों में होना चाहिए, पर बदनाम वह हो रही है. तो बदनामी से बचने के लिए ज़रूरी हो गया है कि वह राजकाज सचमुच ख़ुद संभाले और राजकाज उसके हाथ में आए इसके लिए अनिवार्य है कि वह जूते उठाए. क्योंकि सिस्टम तो जितने भी बनाए जाएंगे, उनमें ऐसे छेद भी अनिवार्य रूप से बना दिए जाएंगे जिनसे सुपात्र सत्ता से बाहर हो जाएं और शूपात्र सत्ता के भीतर समा जाएं.
माफ़ करिएगा, भावुकता में ज़रा विषयांतर हो गया. और भाई मेरा इरादा किसी पर जूते चलाने या जूते चलाए जाने का समर्थन करना नहीं, बल्कि जूता शास्त्र का ऐतिहासिक अनुशीलन है. बावजूद इसके कि मैं इतिहास का इ भी नहीं जानता. लेकिन क्या करिएगा, इतिहास बेचारे के साथ तो बरोब्बर यही हुआ है. अब देखिए न! अभी हाल-फ़िलहाल का ताज़ा उदाहरण लीजिए, आधुनिक इतिहास का ही. इससे वे सारे लोग बाहर हो गए जिन्होने इसे बनाया- चन्द्रशेखर आज़ाद, बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह, ऊधम सिंह, अशफ़ाक उल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्र नाथ सान्याल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, मंगल पांडे .... आदि-आदि. ये सब बेचारे आदि-आदि में चले गए. इंतज़ाम ऐसा भी बना दिया गया है आगे आने वाली पीढ़ियां अगर ढूंढ-ढूंढ कर जानना चाहें भी कि भारत की आज़ादी की लड़ाई किन लोगों ने लड़ी, तो वे उतनी कसरत करके भी सच्चाई न जान पाएं जितनी कसरत करके इन दीवानों ने अंगरेजों से आज़ादी हासिल कर ली.
और इतना ही क्यों सरकार जिसकी भी आती है, वह अपने ढंग से इतिहास बना देता है. गोया इतिहास न हुआ डीएम या एसएसपी की कुर्सी हो गई. जब जिस पार्टी की सरकार बने वह अपने पसन्द वाले आईएएस के कान पकड़े और कहे कि चल बे बैठ तू. और पिछली सरकार द्वारा वहां बैठाए गए घोंचू का कान पकड़ कर कहे कि बहुत दिन कर ली तूने डीएमगिरी, अब चल चिलांटू संस्थान का कार्यकारी निदेशक बन के बैठ. ज़्यादा ग़ुस्सा आ गया तो वेटिंग में भी डाल दिया. जिसके जैसे जी में आता है वह वैसहीं इतिहास लिखने लगता है. कब इतिहास में क्या लिखा जाएगा, यह सरकार तय करती है और सरकारे के कुछ पालतू इतिहासकार. नतीजा? साफ़ है. वे होनहार पुत्र जिन्होंने अपने पिताओं को जेल में सड़ने के लिए डाल दिया, आज उनके ही नाम पर इंडिया गेट के आसपास की कई सड़कें हैं. शायद यह बताने के लिए कि सत्ता का रास्ता ऐसा ही होता है. भारत माता के होनहार सपूतों, इनके चरित्र को अपनाओ और सत्ता में आओ. अपने देश, अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा और अपनी मेधा पर थूको और सत्ता हासिल करो. अपने गौरवशाली इतिहास पर जितनी हो सके ज़्यादती करो और सत्ता में आओ. जब आधुनिक इतिहास के साथ ही इतना कुछ हुआ है तो भला मध्यकालीन और प्राचीन इतिहास के साथ तो जितने भी सितम हुए हों, कम ही कहे जाएंगे. ख़ास तौर से भारत के प्राचीन इतिहास को तो नष्ट करने में इसके मध्यकालीन शासकों ने कोई कसर ही नहीं छोड़ी और जो बचा भी था उसे बाद में आए भारत को आधुनिकता का पाठ पढाने वाले शासकों ने भ्रष्ट कर दिया.
यह सब बेचारे इतिहसवे के साथ क्यों होता है? जाहिर है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उसके पास जूता नहीं है. अगर बेचारे इतिहास के पास जूता होता और वह उस जूते का इस्तेमाल कर पाता तो क्या ऐसा होता? शायद कभी नहीं. यह जो ऐतिहासिक अनुशीलन की हिम्मत मैं जुटा पाया हूं, उसके मूल में भी बात दरअसल यही है. मैं जानता हूं, इतिहास मेरा कुछ बिगाड नहीं पाएगा, लिहाजा ऐतिहासिक अनुशीलन कर रहा हूं.
इतिहास की इस विवशता को कविवर रहीम ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया. आख़िर उनके पिता बैरम ख़ान के साथ जो कुछ हुआ था, उसे वह कैसे भूल सकते थे. और अगर वह भूल भी जाते तो भी पानी से भला एक सेनापति का क्या काम? लेकिन पनही से उसका सम्बन्ध बड़े निकट का है. आप जानते ही हैं, अंगरेज बहादुर के ज़माने में सूरज अस्त नहीं होता था. क्यों? क्या इसकी वजह भी आपको मालूम है? नहीं न! अपने भाई आलोक नन्दन के मुताबिक इसकी एक ही वजह है और वह है जूता. अंग्रेजी फ़ौज के जूते इतने मजबूत होते थे कि उन्हें कहीं भी किसी भी तरह से आने-जाने में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होती थी. उनके प्रतिद्वन्द्वी राजाओं के सिपाहियों के पास जूते बड़े कमज़ोर किस्म के थे. लिहाजा वे उन्हें पहन कर बहुत दूर तक न तो दौड़ लगा सकते थे और न मार ही कर सकते थे. नतीजा यह हुआ कि बाक़ी लोग हारते गए और अंग्रेज बहादुर जीतता गया. अब आप ही बताइए, ये अलग बात है कि हम आज तक अंग्रेज बहादुर को बहादुर कहते आ रहे हैं, लेकिन वास्तव में बहादुर भला कौन है? अंग्रेज या कि जूता? वैसे विचारणीय यह प्रश्न भी है कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से निहायत अवैज्ञानिक होने के बावजूद अगर आज तक अंग्रेजी हमारे सिर चढ़ी हुई है तो इसमें बहादुरी किसकी है, इस भाषा की या कि उन जूतों की जो इसकी तरफ़दारी में हमारी ही देसी सरकारों की ओर से हम पर चलाए जाते रहे हैं? हिन्दी अपनी सारी वैज्ञानिकता और पूरे देश में प्रचलित होने के बावजूद अगर आज तक सरकारी कामकाज की भाषा नहीं बन सकी और कारपोरेट जगत में तो घुसने ही नहीं पाई, तो इसकी वजह क्या है? बतौर भाषा इसकी कोई कमज़ोरी या कि इसकी जूताविहीनता?
चरैवेति-चरैवेति.....
ये सिलसिला इतना लंबा निकल आया ... मैं अपनी व्यर्थ की व्यस्तताओं में उलझा रहा....अभी श्नैः-श्नैः सब पढ़ता हूँ।
ReplyDelete"क्या प्राइमरी क्या दून..." वाले जुमले पर सलाम सर
और सर यह बिलकुल ओरिजिनल दोहा है रहीम जी का. अलबत्ता इसके पहले जो कुछ हम लोग सुनते रहे हैं वही मिलावटी था.
ReplyDeleteअच्छा प्रकाश डाला है ,बधाई .
ReplyDeleteइतनी लंबा अन्तराल रहा भारत यात्रा के दौरान कि अब लाईन में आने भी समय लगेगा...एक के एक बाद शुरु होता हूँ.
ReplyDeleteजूता चिंतन में पगे क्या रहीम-रैदास...
ReplyDeleteईष्टदेव जी खूब है जूतों का इतिहास..
अब यह जूता पुराण उरूज पर है उतार पर कब आयेगा !
ReplyDeleteक्या बताऊं? हर रोज़ सोचता हूं कि अंतिम किस्त लिख रहा हूं. पर हर किस्त में से एक कौंचा निकल आता है और यह बढ़ता ही चला जाता है हनुमान जी की पूंछ की तरह.
ReplyDeleteजे बात ...हम कब से सोच रहे थे ऐसा कौन सा तुरुप था अंग्रेजो के पास की सूरज को बस में कर रखा था....
ReplyDeleteहिन्दी अपनी सारी वैज्ञानिकता और पूरे देश में प्रचलित होने के बावजूद अगर आज तक सरकारी कामकाज की भाषा नहीं बन सकी और कारपोरेट जगत में तो घुसने ही नहीं पाई, तो इसकी वजह क्या है? बतौर भाषा इसकी कोई कमज़ोरी या कि इसकी जूताविहीनता?
ReplyDeleteaapaka yeh juta satak satak se kin kin logong ke muh per lag raha hai abhi kah pana mushkil hai...itihas ki jutawadi wakhaya adbhut hai....Juta maharaj ki jay ho ! Istdev ji ki jay ho!!!Is mahan katha yatra ke liye ek din aapako juton ke har se nawaja jayega...mujhe lagata hai ki aapaka asali samman yahi hona chahiye...yadi koi gustakhi kar diya hun to maph karenge...
आजकल तो जूतों का
ReplyDeleteचप्पलों का खड़ाऊं का
वर्तमान
इतिहास से अधिक
देदीप्यमान हो रहा है।
यह इतिहास वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में ही है बन्धु. और आगे इनका वर्तमान ही आने वाला है. इसके बाद भविष्य के निर्माण में इनकी उपादेयता पर ही टॉर्चलैट डाला जाएगा.
ReplyDeleteआलोक भाई! मैं तो जनता जनार्दन हूं ही, आपको भी जनता जनार्दन ही मानता हूं. और जनता जनार्दन जो भी सम्मान दे, वह मुझे ख़ुशी से शिरोधार्य है. आप दीजिए, जो भी सम्मान देना हो. हर सम्मान के लिए आपको धन्यवाद.
ReplyDeleteरहीम के जमाने में दून था - यह ट्यूबलाऐट जलाने के लिये पर्याप्त है। उनके जमाने में फिर बाटा और रेड चीफ के जूते भी थे। हम जैसे गरीब टाइप के लोग उस समय संदक के जूते पहना करते थे।
ReplyDeleteउस समय के जूता गौरवमय इतिहास के साथ पानी और चूना मिलाने की साजिश निश्चय ही कालान्तर के प्रमिला थापर छाप सोच वालों ने की होगी। अडवानी जी को प्राचीन गौरव रिस्टोर करने की बात मेनीफेस्टो में डालनी चाहिये। अभी भी समय है।