अथातो जूता जिज्ञासा-25
तो साहब कविवर रहीम ने पनही ही कहा था. उन्होंने पानी नहीं कहा था. मेरा ख़याल है कि यह बात अब तक आप समझ गए होंगे. वैसे हिन्दी के हतबुद्धि और कठकरेजी आलोचकों की तरह इतने साफ़-साफ़ तर्कों के बावजूद अगर आप न ही समझना चाहें तो भी मेरे पास आपको समझाने का एक उपाय है. और वह भी कविवर रहीम के ही शब्दों में. ग़ौर फ़रमाइए:
खीरा सिर ते काटिए, मलियत नमक मिलाय
रहिमन ओछे जनन को चहियत इहे सजाय.
ज़रा सोचिए, इतना कड़ा प्रावधान करने वाले महाकवि रहीम भला पानी की बात क्यों करेंगे? पानी रखने का नतीजा क्या होता है, इसका सबक उन्होंने इतिहास से ले लिया था. ध्यान रहे, वह सिर्फ़ फ़ौजी थे. फ़ौजी शासक नहीं थे. इसलिए पूरे निष्ठुर नहीं हो सकते थे. अगर शासक रहे होते तब तो कवि होकर भी निष्ठुर हो सकते थे. राजनीतिक कवि तो वही होता है जो जब पूरे देश के नौजवान आत्मदाह कर रहे हों, तब अपनी कुर्सी बचाने के जोड़-तोड़ में व्यस्त होता है. पर रहीम ऐसे नहीं थे. वे तो उनमें से थे जो अपना सारा कुछ लुटा कर कहते थे : देनहार कोउ और है, ताते नीचे नैन. अगर राजनीतिक होते हो बात जस्ट उलटी होती. जनता के पैसे से ऐश करते और जनता पर एहसान लादते कि देख बे! धन्य महसूस कर अपने-आपको कि हमने तेरे पैसे से ऐश किया. लेकिन नहीं साहब, वह राजनीतिक नहीं थे और इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें भी एक समय अपने घर से ही निकाल दिया गया.
मैंने देखा तो नहीं, पर सुना है कि एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें चित्रकूट में एक भड़्भूजे के यहां मजदूरी करनी पड़ी. उन्हीं दिनों उनके किसी परिचित ने भाड़ झोंकते हुए उन्हें पहचान लिया और उसने पूछा कि अरे यह क्या? क्या से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण मसला तो यह था कि कैसे? और उसका जवाब दिया कवि रहीम ने :
चित्रकूट में फिरि रहे, रहिमन राम रमेश
जा पर बिपदा परत है, सोइ आवे एहि देश.
बहुत सारे विद्वान कहते हैं कि रहीम ने यहां चालाकी की है. उन्होने अपनी विपत्ति को राम और रमेश यानी भोलेनाथ तक कि विपत्ति से जोड़ दिया है. बिलकुल वैसे ही जैसे कि आजकल के कवि अपनी विपत्ति को आम जनता की विपत्ति बताने की कोशिश करते हैं. लेकिन मुझे लगता नहीं कि रहीम ने यहां कोई कविसुलभ चालाकी की है. भोलेनाथ के बारे में तो मुझे बिलकुल नहीं पता कि वह चित्रकूट कैसे पहुंचे, लेकिन कविवर रहीम कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे. मेरे जैसे पल्लवग्राही पंडितों की तुलना में पुराणों की उनकी जानकारी निश्चित रूप से बेहतर रही होगी. लिहाजा उनको चाइलेंज करने का दमखम तो मुझमें नहीं है.
रही बात राम की तो वो तो आप भी जानते हैं कि किन परिस्थितियों में वह चित्रकूट पहुंचे थे. आप जानते ही हैं कि वह सिर्फ़ इसीलिए चित्रकूट पहुंचे थे कि उन्होने पनही के बजाय पानी रखा था. उन्होंने पानी रखा था सौतेली मां की जिद और पिता के आदेश का. अगर उस वक़्त उन्होंने पानी रखने के बजाय पनही निकाल लिया होता तो आप समझ सकते हैं कि इतिहास क्या होता? उन्हें वनवासी बनकर चित्रकूट जाने के बजाय अयोध्या का राज मिला होता. पर पता नहीं क्या सोच कर उन्होंने राज नहीं लिया, वनवासी बन गए. शायद वह पानी बचाने में लग गए और पनही भी ख़र्च नहीं करना चाहा उन्होंने. हालांकि पनही भी आख़िरकार उनकी बची नहीं. आपने देखा ही, बाद में किस तरह भरत भाई उनकी पनही भी मांग ले गए. कि दीजिए इसको. अपने तो चले आए, बड़े दिलदार बन के और साथ-साथ पनहियो लिए चले आए. अरे खाली गद्दी छोड़ देने से थोड़े न गद्दी संभाली जाती है. गद्दी संभालने के लिए पनही चाहिए होती है जी. ऊ आप हमको दे के जाइए.
और भले भए कि उन्होंने दे भी दी भरत भाई को अपनी पनही. इसके बाद भरत भाई तो चले गए राजकाज चलाने पनही लेकर और बेचारे रामचन्द्र जी, लक्ष्मण जी और सीता जी तीनों जने घूमते रहे जंगल-जंगल. नंगे पैर कुस-कांटा सब बर्दाश्त करते हुए. यूपी, बिहार, एमपी और छत्तीसगढ़ की जनता की तरह. इसी बीच जंगल में ही एक विश्वसुन्दरी आईं और लक्ष्मण भाई को मीका बना गईं. इसके बाद आप जानते ही हैं, मानवाधिकारवादियों का कार्यक्रम शुरू होना ही था और उसी कार्यक्रम के तहत रावण द ग्रेट सीता जी को किड्नैप कर ले गए. ओहोहो! माफ़ करिएगा. फिर विषयांतर हो गया. हम रामकथा सुनाने थोड़े न यहां आए थे. उसके लिए तो कई ठो परमपूजनीय बापू लोग हइए हैं.
बहरहाल, हमारा अभीष्ट तो सिर्फ़ जूता शास्त्र का ऐतिहासिक अनुशीलन है और इतिहास का अनुभव यह कहता है कि पनही छोड़ कर भगवान राम ने अच्छा नहीं किया. क्योंकि पनही छोड़ने के बाद उस ज़माने से लेकर इस ज़माने तक उन्हें कहीं चैन नहीं मिला. अब देखिए न, अगर उन्होंने पनही न छोड़ी होती तो क्या किसी को यह हिम्मत होती कि उनके नाम पर राजनीति करता? लेकिन नहीं आज उनके नाम पर राजनीति हो रही है. भाई लोग सत्ता हासिल कर रहे हैं, ऊहो राम के नाम पर रावण वाला कर्म करके. और जैसे ही सत्ता में आ जा रहे हैं, तो फिर कौन राम और कैसे राम. प्रधानमंत्री की कुर्सी मिलते ही भगवान राम आया राम गया राम भी नहीं रह जाते, वह बेचारे राम हो जाते हैं. अपने राम की तरह.
ज़रा सोचिए, अगर उन्होंने अपनी पनही भरत भाई को न दी होती और उसे गाहे-बगाहे चलाने के प्रेक्टिस बनाए रहे होते तो आज उनकी और उनके ग़ैर राजनीतिक भक्तों की यह दुर्दशा होती क्या? नहीं न! कविवर रहीम ने इस बात को महसूस किया था. और यक़ीन मानिए, अगर चित्रकूट की दशा देखिएगा तो आपको उनकी बात पर यक़ीन हो जाएगा कि 'जाको बिपदा धरत है, सोइ बसत यहि देस'. गांव तो क्या, कस्बे तक की स्थिति यह है कि न पीने का पानी, न बिजली, न सड़क, न ढंग के स्कूल, न रोज़गार के साधन..... अजी हुज़ूर आम तौर पर लोग बस जिए जा रहे हैं ज़िन्दगी, मौत के इंतज़ार में. जाहिर है, यहां वही आएगा और वही रहेगा..........
ठीक बताया आपने जूते का इतिहास।
ReplyDeleteजूता दिवस मनायेंगे सबको है विश्वास।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
रचते रहिये पनही का भविष्य पुराण !
ReplyDeleteलिखने के लिये सिर्फ जूता ही रह गया है ?
ReplyDeleteवैसे पनही को अस्त्र बनाने के लिया उसे पानी पिलाया जाता है.
ReplyDeleteपनही छोड़ कर भगवान राम ने अच्छा नहीं किया. क्योंकि पनही छोड़ने के बाद उस ज़माने से लेकर इस ज़माने तक उन्हें कहीं चैन नहीं मिला. अब देखिए न, अगर उन्होंने पनही न छोड़ी होती तो क्या किसी को यह हिम्मत होती कि उनके नाम पर राजनीति करता?------------
ReplyDeleteसच में, तभी दास कबीर कहते हैं - जो पनही छोड़े आपनो, सो चले हमारे साथ!
भाई महाशक्ति जी! बाक़ी किसी चीज़ पर लिखने का अब कोई असर तो रह नहीं गया है और जूते का असर हम बुश से लेकर अडवाणी जी तक पर देख चुके हैं. अभी और जाने कितनों पर देखना शेष है. सो मैंने सोचा कि जब हमारे राजनेताओं के लिए प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत यही है तो इस पर ही मेहनत की जाए.
ReplyDeleteलगे रहिये.....बस विषय से बहुत भटकते है बीच ब्बेच में (वैसे इ आदत हमको बहुत पसंद है -यार फटीचर तू इतना इमोशनल क्यों है की याद दिलाती है )....
ReplyDeletekal raat me ek bar phir gabbar singh ki film Sholey dekh raha tha....usame thakur ke nukile jute bahut hi sahandar lag rahe the....gabbar ke dono hath ko voh nukile jute se hi khalas kar deta hai...aapake jute bhi bahut nukile ho gaye hai....bahut khoob!!!
ReplyDeleteसचमुच राम ने अपनी पनही न त्यागा होता तो आज की ६० सालों से बनवास का कष्ट झेल रही जनता के आदर्शों में त्याग के अलावा कुछ और ही होता ,परिणामतः देश की दुर्गति आज जैसी न होती.
ReplyDeleteभारत में राजीव के समय ही जनकल्याण पर किया जाने वाले खर्च के एक रुपये में से १५ पैसे ही अपने निर्धारित स्थान तक पहुँचते थे और बाकी ८५ पैसे गायब .अब न जाने क्या हालत होंगे ?!
आप ही जरा सोचें ७० प्रतिशत जनता १५ प्रतिशत में काम चलाये और ३० प्रतिशत जनता के हिस्से में ८५ प्रतिशत धन !
जरा आगे चलकर आने वाली आर्थिक विषमता के खाई के गहराई के बारे में सोच कर देखें .लगता है ७०-८० प्रतिशत जनता के लिए भीख माँगने का कटोरा ही एक मात्र संपत्ति रह जायेगा .