अथातो जूता जिज्ञासा-26
यह तो आप जानते ही हैं कि भरत भाई ने भगवान राम की पनही यानी कि खड़ाऊं यहीं मांग ली थी. यह कह कर आपके नाम पर ही राजकाज चलाएंगे. भगवान राम ने उन्हें अपनी खड़ाऊं उतार के दे दी और फिर पूछा तक नहीं कि भाई भरत क्या कर रहे हो तुम मेरे खड़ाऊं का? अगर वह आज के ज़माने के लोकतांत्रिक सम्राट होते तो ज़रा सोचिए कि क्या वे कभी ऐसा कर सकते थे? नहीं न! तब तो वे ऐसा करते कि अपने जब चलते वन के लिए तभी अपने किसी भरोसेमन्द अफ़सर या पार्टी कार्यकर्ता को प्रधानमंत्री बना देते. छांट-छूंट के किसी ऐसे अफ़सर को जो ख़ुद को कभी इस लायक ही नहीं समझता कि वह देश चलाए. आख़िर तक यही कहता रहता कि भाई देखो! देश चलाने का मौक़ा मेरे हाथ लगा तो यह साहब की कृपा है.
वह निरंतर महाराज और युवराज के प्रति वफ़ादार अफ़सर की तरह सरकार और राजकाज चलाता रहता. अगर कभी विपक्ष या देशी-विदेशी मीडिया का दबाव पड़्ता तो वनवासी साहब के निर्देशानुसार कह देता कि भाई देखो! ऐसा कुछ नहीं है कि मैं कठपुतली हूं. बस तुम यह जान लो कि मैं सरकार अपने ढंग से चला रहा हूं और अपनी मर्ज़ी से भी. यह अलग बात है कि किसी भी मौक़े पर वह सम्राट और युवराज के प्रति अपनी वफ़ादारी जताने से चूकता भी नहीं. क्योंकि यह तो उसे मालूम ही होता कि खड़ाऊं उसके पैर में नहीं, सिर पर है और उसकी चाभी उसके पास नहीं बल्कि साहब के पास है. इसके बाद जैसे ही उसे आदेश मिलता प्रधानमंत्री की कुर्सी ख़ाली करके चल देता एक किनारे. क्योंकि यह तो उसे पता ही है - साहब से सब होत है, बन्दे ते कछु नाहिं. साहब जब चाहेंगे उसे किसी संस्थान का चेयरमैन बना देंगे और उसके खाने-पीने और रुतबे का जुगाड़ बना रहेगा ऐसे ही.
पर भगवान राम चूक गए. उन्होने राजकाज एक योग्य व्यक्ति को सौंप दिया और वह भी पूरे 14 साल के लिए. नतीजा क्या हुआ? इसके बाद पूरे 14 साल तक वह सिर्फ राजसत्ता ही नहीं, खड़ाऊं से भी वंचित रहे. नतीजा क्या हुआ कि बेचारे भूल ही गए खड़ाऊं का उपयोग तक करना. 14 साल के वनवास के बाद जब वह दुबारा अयोध्या लौटे और भरत भाई ने पूरी ईमानदारी से उन्हें उनका राजकाज लौटाया तो वह एकदम आम जनता जैसा ही व्यवहार करते नज़र आए. तो बेचारे मिलने के बाद भी झेल नहीं पाए राजदंड और आख़िरकार फिरसे उसे हनुमान जी सौंप कर चलते बने. बोल दिया कि भाई देखो, अब यह सब तुम्हीं संभालो. अपने राम तो चले.
पर हनुमान जी भला कबके खड़ाऊं पहनने और इस्तेमाल करने वाले. इस पेड़ से उस पेड़ तक, और भारत से श्रीलंका तक सीधे उछल-कूद जाने वाले को खड़ाऊं की क्या ज़रूरत? तो वे तो जितने दिन चला सके मुगदड़ से राजकाज चलाते रहे. खड़ाऊं का तो उन्होंने इस्तेमाल ही नहीं किया. उसी खड़ाऊं पर इस घोर कलिकाल में नज़र पड़ी लोकतंत्र के कुछ सम्राटों की तो उन्होंने तुरंत आन्दोलन खड़ा कर दिया. आगे की तो कहानी आप जानते ही हैं.
आज मैं सोचता हूं तो लगता है कि अगर भगवान ने अपनी खड़ाऊं न दी होती और उसके इस्तेमाल के वह आदी बने रहे होते तो क्या यह दिन हमें यानी कि भारत की आम जनता को देखने पड़ते? बिलकुल नहीं. अब भगवान राम तो हुए त्रेता में और इसके बाद आया द्वापर. द्वापर में हुआ महाभारत और वह किस कारण से हुआ वह भी जानते ही हैं. ग़ौर करिएगा कि महाभारत के दौरान भी जो सबसे बड़े योद्धा जी थे, श्रीमान अर्जुन जी, वह जूतवे नहीं उठा रहे थे. युद्ध के मैदान में जाके लग सबको पहचानने कि वह रहे हमारे चाचाजी, वह मौसा जी, वह मामा जी और वह दादा जी. अब बताइए हम कैसे और किसके ऊपर जूता चलाएं. तब सारथी भगवान कृष्ण को उनके ऊपर ज्ञान का जूता चलाना पड़ा. बताना पड़ा कि देखो ये तो सब पहले से ही मरे हुए हैं. तुम कौन होते हो मारने वाले. मारने और बनाने वाला तो कोई दूसरा है. वो तो सामने आता ही नहीं है, और सब मर जाते हैं. पार्टी हाईकमान की तरह. तुमको तो सिर्फ़ जूता हाथ में उठाना ही है. बाक़ी इनका टर्म तो पहले ही बीत चुका है. तब जाके उन्होने जूता उठाया और युद्ध जीता.
लेकिन सद अफ़सोस कि वह भी अच्छे जूतेबाज नहीं थे. उनका जूता भी बहुत दिन चल नही पाया. थोड़े ही दिनों भी वह भी भाग गए हिमालय. इसलिए कलियुग में फिर चाणक्य महराज को बनाना पड़ा एक जूतेबाज चन्द्रगुप्त. चन्द्रगुप्त ने टक्कर लिया कई लोगों से उसी जूते के दम पर चला दिया अपना सिक्का. जब तक उनका जूता चला तब तक देश में थोड़ा अमन-चैन रहा. बन्द हुआ तो फिर जयचन्द जैसे लोग आ गए और विदेश से बुला-बुला के आक्रांता ले आए. चलता रहा संघर्ष. आख़िरकार जब पब्लिक और राजपरिवारों सब पर अंग्रेजों का जूता चलने लगा तो मजबूरन फिर कुछ लोगों को जूता उठाना पड़ा. तब जाके देश स्वतंत्र हुआ. इस तरह अगर देखा जाए तो पूरा इतिहास किसका है भाई? विचारों का? ना. आविष्कारों का? ना. नीति का? ना. धर्म का? ना. आपके ही क्या, दुनिया के पूरे के पूरे इतिहास पर छाया हुआ है सिर्फ़ जूता. अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर कहा जाए कि इतिहास तो जूते से लिखा गया है. यक़ीन न हो देख लीजिए, आज भी जिसके हाथ में सत्ता का जूता होता है, वह जैसे चाहता है वैसे इतिहास को मोड़ लेता है. जब चाहता है किताबें और किताबों के सारे तथ्य बदल देता है. वह जब चाहता है राम के होने से इनकार कर देता है और जब चाहे हर्षद मेहता को महान बता सकता है. वह जब तक चाहे जॉर्ज पंचम के प्रशस्ति गान का गायन पूरे देश से पूरे सम्मान के साथ करवाता रहे और अंग्रेजी को हिन्दुस्तान के राजकाज की भाषा बनाए रखे.
"वह जब तक चाहे जॉर्ज पंचम के प्रशस्ति गान का गायन पूरे देश से पूरे सम्मान के साथ करवाता रहे और अंग्रेजी को हिन्दुस्तान के राजकाज की भाषा बनाए रखे."
ReplyDeleteशाबाश.
तब तक जूता चलता रहेगा.
सत्ता का जूता या फिर जूते का सत्ता ! होना चाहिए जूते का दहला सत्ता के नहले पर !
ReplyDeleteऐसा लगता है कि हमारे राष्ट्रीय चिन्ह के लिए दमदार प्रत्याशी तो "जूता" ही बनेगा.
ReplyDeleteजूता केवल चलाने की चीज नहीं है। उसमें संग्रह भी किया जाने लगा। कुछ लोगों ने उसमें चारा रूपी नोट भरा और कुछ ने नोट रूपी चारा। कुछ पांच साल सिरहाने रख कर सोये और फिर उसे कोई हिन्दू का जूता बताने लगा और कोई मुसलमान का।
ReplyDeleteकित्ता लिखियेगा जूता पुराण - २६००० पोस्टों में भी न अंटेगा! :-)
आपका जूता तो चल ही गया। यह अच्छा अवसर है कि आप इस जूता कथा को किताबी रूप दे दें।
ReplyDeleteभाइयों! आप सभी लोगों के सुझाव बड़े महत्वपूर्ण हैं. मैं सभी सुझावों पर अमल का पक्का वादा तो नहीं कर सकता, पर अपनी सीमाओं में जितना संभव हो कोशिश ज़रूर करूंगा.
ReplyDeleteजूता - कथा सही चल रहा है .
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
ReplyDeleteसच्ची क्या विकट स्थिति है देश में ,...कुछ लोग राम जी की जय बोलने में व्यस्त हैं तो कुछ लोग रोम जी की जय बोलने में !
ReplyDeleteजनता रामायण और रोमायण का फ्लोप्शो देखकर किम्कर्तव्यविमूढ़ है