अथातो जूता जिज्ञासा-28
और अब बात आधुनिक भारत में जूता चिंतन की. निराला जी से थोड़े पहले उनके ही धातृ शहर इलाहाबाद में हुए एक अकबर इलाहाबादी साहब. अपने ज़माने के बहुत उम्दा शायरों में गिने जाते हैं वह और अगर क़रीने से देखा जाए तो बिलकुल आधुनिक सन्दर्भों में जूता चिंतन की शुरुआत ज़नाब अकबर इलाहाबादी साहब से ही होती है. यह अलग बात है कि उनके पूर्वजों को जूते चलाने का भी शौक़ रहा हो, पर जहां तक मैं जानता हूं, अकबर साहब के शौक़ सिर्फ़ जूते पहनने तक ही सीमित थे. उन्होंने कभी भी जूते चलाने में किसी तरह की हिस्सेदारी नहीं की. ख़ास कर जूते बनाने का शौक़ तो उनके पूर्वजों को भी नहीं था. इसके बावजूद पढ़े-लिखे लोगों के बीच जूते पर केन्द्रित उनका एक जुमला अत्यंत लोकप्रिय है. जब भी कोई ऐसी-वैसी बात होती है, भाई लोग उन्हें फट से कोट कर देते हैं. जूते पर केन्द्रित उनका शेर है :
बूट डासन ने बनाया मैंने एक मज़्मूं लिखा
मुल्क में मज़्मूं न फैला और जूता चल पड़ा.
ख़ुद मुझे भी यह शेर बेहद पसन्द है. पर इस शेर के साथ एक दिक्कत है. इस दिक्कत की वजह शायद यह है कि शिल्प के स्तर पर वह ज़रूर थोड़े-बहुत पश्चिमी मानसिकता से प्रभावित रहे होंगे. जहां साहित्य के उम्दा होने की बुनियादी शर्त उसके दुखांत होने को माना जाता है. जहां यथार्थ के नाम पर हताशावादी स्वर ही प्रमुख है. यह आशा तक नहीं छोड़ी जाती कि शायद आगे के लोग ही कोई रास्ता निकाल सकें. शायद इसीलिए उन्हें शिक़ायत हुई जूते से. बिलकुल वैसे ही जैसे हार जाने के बाद एक नेताजी को शिक़ायत हुई जनता से. पहले तो विशुद्ध भारतीयता की बात करके सत्ता में आई उनकी पार्टी ने पांच साल तक सत्ता सुख ले लेने के बाद यह तय किया कि ये अंट-शंट टाइप के अनपढ़-देहाती कार्यकर्ताओं से पिंड छुड़ाया जाए और इनकी जगह स्मार्ट टाइप के इंग्लिश स्पीकिंग ब्रैंड मैनेजरों को लाया जाए. फिर उनकी ही सलाह पर उन्होंने एलेक्शन की कैम्पेनिंग की. यहां तक कि नारे भी उनके ही सुझावों के अनुसार बने. लेकिन चुनाव का रिज़ल्ट आने के बाद पता चला कि जनता तो फील गुड और इंडिया शाइनिंग का मतलब ही नहीं समझ सकी. तब बेचारे खिसिया कर कहे कि काम करने वाली सरकार इस देश की जनता को नहीं चाहिए.
शायद यही वजह है कि इस बार महंगाई चरम पर होने के बावजूद उनकी पार्टी ने चुनाव के दौरान एक बार भूल कर भी महंगाई का जिक्र नहीं किया. शायद उन्होंने तय कर लिया है कि आगे अगर सत्ता में आए भी तो महंगाई-वहंगाई जैसे फ़ालतू के मुद्दों पर कोई काम नहीं करेंगे. यह अलग बात है कि इसके पहले भी उन्होंने आम जनता के लिए क्या किया, यह गिना पाना ख़ुद उनके लिए ही मुश्किल है. हालांकि वह कौन है जिसने उनके राजकाज में गुड फील किया और किधर की इंडिया शाइन करते हुए दिखी, इसे आम भारतीय नहीं जानता.
वैसे भी आम भारतीय यह बात कैसे जान सकता है! बेचारा वह तो रहता है भारत में और इधर बात होती है इंडिया की. पूरी तरह भारत में ही रहने वाले और उसमें ही रचे-बसे आम आदमी को इंडिया कैसे दिखे? वैसे यह सच है कि भारत के ही किसी कोने में इंडिया भी है, पर यह जो इंडिया है उसमें मुश्किल से 20 परसेंट लोग ही रहते हैं. वही इसे जानते हैं और वही इसे समझते हैं. इस इंडिया में होने वाली जो चमक-दमक है, वह भारत वालों को बस दूर से ही दिखाई देती है और भारत वाले इसे देखते भी बड़ी हसरत से हैं. उसके सुख भारत वालों के लिए किसी रहस्यलोक से कम नहीं हैं. ठीक इसी तरह इंडिया वालों के लिए भारत के दुख भी कोई रुचि लेने लायक चीज़ नहीं हैं. वे समझ ही नहीं पाते कि ये भूख और ग़रीबी कौन सी चीज़ हैं और बेकारी क्यों होती है. उनके लिए यह समझना लगभग असंभव है कि महंगाई से परेशान होने की ज़रूरत क्या है. भाई जो चीज़ एक साल पहले 10 रुपये की मिलती थी, वह सौ रुपये की हो गई, तो इसमें परेशान होने जैसी क्या बात है? निकालो जेब से 100 रुपये और ले लो. सबसे मुश्किल और दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि भारत वालों के भेजे में यह आसान सी बात घुसती ही नहीं है.
बहरहाल, कुछ ऐसी ही दिक्कत अकबर इलाहाबादी साहब के साथ भी हुई लगती है. अब सोचिए मज़्मूं कैसे चलेगा? उसके पास कोई हाथ-पैर तो होते नहीं और चलने के लिए पैर बहुत ज़रूरी हैं. तो जब मज़्मूं के पास पैर होते ही नहीं तो वह चलेगा कैसे? तो जाहिर सी बात है कि मज़्मूं चलने के लिए लिखे ही नहीं जाते. बल्कि इसे बाद के हिन्दी के आलोचकों-कवियों ने ज़्यादा अच्छी तरह समझा. वे उसे मज़्मूं मानते ही नहीं जो चल निकले. आज हिन्दी में मज़्मूं वही माना जाता है जिस पर लोकप्रियता का आरोप न लगाया जा सके. इस आरोप से किसी भी मज़्मूं को बचाने की शर्त यह है कि उसे ऐसे लिखा जाए कि वह किसी की समझ में ही न आ सके. इसके बावजूद यह ध्यान भी रखा जाता है कि कोई यह न कह सके कि भाई आपका तो मज़्मूं जो है, वो अपंग है. तो इसके लिए मज़्मूं को ये कवि-लेखक-आलोचक लोग आपस में ही एक से दूसरे की गोद में उठाते हुए इसके चल रहे होने का थोड़ा सा भ्रम बनाए रखते हैं. वैसे ही जैसे माताएं शिशुओं को अपनी गोद में उठाए हुए ख़ुद चलती रहती हैं और मंजिल पर पहुंच जाने के बाद शिशु ये दावा कर लेते हैं कि वे चले.
इसके ठीक विपरीत जूता या अकबर साहब के शब्दों में कहें तो बूट बनाया ही जाता है चलने के लिए. आप चाहें तो यूं भी कह सकते हैं कि बूट बनाया जाता है पैरों के लिए और पैर होते हैं चलने के लिए. अब जो चीज़ पैरों का रक्षा कवच बन कर चल सकती है, वह हाथों में हो तो भी चलेगी ही. क्योंकि चलन उसकी फितरत है. एक और मार्के की बात इसमें यह भी है कि यह रक्षा उसी की करती है जिसके पास होती है. मतलब यह कि जो इसे चलाता है. यह उसकी मर्जी पर निर्भर है कि वह इसे कैसे चलाए. चाहे तो पैरों से और चाहे तो हाथों से चला ले. बस इसी बात को कालांतर में अकबर साहब के कुछ समानधर्माओं ने समझ लिया और वे शुरू हो गए.
जूते चल पड़े और बोलतियाँ बंद हो गयीं ! बहुत खूब !
ReplyDeleteबोलती लोगों की तो बंद होनी ही थी. अब जो जूते बोल रहे थे.
ReplyDeleteजूता पुराण की जय हो।
ReplyDelete-----------
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प्रिय बन्धु
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका लेखन [juuta puran]
आज कल तो लिखने पढने वालो की कमी हो गयी है ,ऐसे समय में ब्लॉग पर लोगों को लिखता-पढता देख बडा सुकून मिलता है लेकिन एक कष्ट है कि ब्लॉगर भी लिखने पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं जबकि पढने पर कम .--------
नई कला, नूतन रचनाएँ ,नई सूझ ,नूतन साधन
नये भाव ,नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन
शुभकामनाये
जय हिंद
असली चलचलाहट
ReplyDeleteजूते में
आजकल आई है।
"वे उसे मज़्मूं मानते ही नहीं जो चल निकले. आज हिन्दी में मज़्मूं वही माना जाता है जिस पर लोकप्रियता का आरोप न लगाया जा सके. इस आरोप से किसी भी मज़्मूं को बचाने की शर्त यह है कि उसे ऐसे लिखा जाए कि वह किसी की समझ में ही न आ सके. इसके बावजूद यह ध्यान भी रखा जाता है कि कोई यह न कह सके कि भाई आपका तो मज़्मूं जो है, वो अपंग है. तो इसके लिए मज़्मूं को ये कवि-लेखक-आलोचक लोग आपस में ही एक से दूसरे की गोद में उठाते हुए इसके चल रहे होने का थोड़ा सा भ्रम बनाए रखते हैं. वैसे ही जैसे माताएं शिशुओं को अपनी गोद में उठाए हुए ख़ुद चलती रहती हैं और मंजिल पर पहुंच जाने के बाद शिशु ये दावा कर लेते हैं कि वे चले."
ReplyDeleteबहुत शानदार!
जय हो-जय हो-जय हो इस पुराण की ,आप अच्छा लिख रहें हैं ,बधाई .
ReplyDeleteअब देखिये न, हमारे पास कभी जूता कम्पनी खोलने की अकिल आई तो जूते की ब्राण्ड का नाम होगा - मज्मूं! Mazmoo बड़ा हाई-फाई नाम लगेगा। तब आप इस लेख की बेसिस पर रॉयल्टी मांग सकेंगे। :-)
ReplyDeleteज्ञान भैया
ReplyDeleteआपने नाम तो बहुत अच्छा सोचा. लेकिन मैं कोई नेता या सेठ नहीं हूं जो दूसरे की मेहनत का माल ख़ुद पचा लूं. इसकी रॉयल्टी पर दावा आप ही शहर इलाहाबाद के ज़नाब अकबर इलाहाबादी साहब को जानी चाहिए. क्योंकि शब्द मैंने उन्हीं से लिया है, ये अलग बात है कि लिखता उन्हें पढ़ने के बहुत पहले से ही रहा हूं. :-)
अकबर इलाहाबादी के इस अनूठे शेर से परिचय करवाने का शुक्रिया...
ReplyDeleteहमेशा की तरह अच्छी पोस्ट
बोलती तो अपनी भी बंद है भाई..सही जा रहे हो!!
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