भाजपा का सत्यानाश तो होना ही था
लाख टके की सवाल है कि भाजपा हारी क्यों। अगले पांच साल तक भाजपा को लगातार इस प्रश्न को मथना होगा। त्वरित प्रतिक्रिया में टीवी वाले भाजपा की हार बजाय कांग्रेस की जीत को महत्व देते हुये राहुल गांधी को हीरो बनाने पर तुले हुये हैं, और यह स्वाभाविक भी है। टीवी वालों को परोसने के लिए खुराक चाहिये। भाजपा के नीति निर्धारण में शामिल लोगों को अपनी खोपड़ी को ठंडा करके इस हार के कारणों की पड़ताल करनी होगी।
भाजपा की हार का प्रमुख कारण है भाजपा की पहचान का गुम होना। पूरे चुनाव में भाजपा शब्द कहीं सुनाई ही नहीं दिया। भाजपा की एक पृथक पहचान हुआ करती थी, जो गठबंधन में पूरी तरह से गुम हो गई थी। अब जब पार्टी की पहचान ही गुम हो जाये तो जीतने का सवाल ही कहां पैदा होता है।
एक तरफ देश में जहां भाजपा की पहचान गुम हुई वहीं दूसरी तरफ देश के मुसलमान भाजपा को नहीं भूले थे। प्रत्येक मतदान क्षेत्र में वे लोग भाजपा के खिलाफ सक्रिय नकारात्मक मतदाता की भूमिका में नजर आये। भाजपा के खिलाफ तो उन्हें वोट करना ही था। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि किसी एसे व्यक्ति को उनका वोट न मिले जो जीतने के बाद भाजपा के खेमे में चला जाये। एसी परिस्थिति में वे कांग्रेस के वे स्वाभाविक मतदाता बन गये।
भाजपा की अंदरुनी राजनीति भी बुरी तरह से गडमगड रही। आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना एक बड़ी गलती थी। आडवाणी भाजपा कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास पैदा नहीं कर सके, क्योंकि उनके अंदर इस क्षमता का ह्रास बहुत पहले ही हो चुका था। एक बहुत बड़े हिन्दू समुदाय के बीच, जो भाजपा का कैडर था, पाकिस्तान में जिन्ना के कब्र पर माथा टेककर वह अपनी विश्वसनीयता खो चुके थे। इसके साथ ही मुसलमानों के बीच में आडवाणी की छवि में कोई बदलाव नहीं हुआ था। आडवाणी का दोहरा व्यक्तित्व भाजपा के लिये घातक साबित हुआ।
इसके अलावा भाजपा के प्रचारतंत्र में जुटे लोगों की भी नपुंसकता खुलकर दिखाई दी। जितने भी पोस्टर तैयार किये गये थे उनमें आडवाणी को प्रमुखता से दिखाया गया था, और भाजपा के विगत इतिहास की कहीं कोई झलक नहीं रखी गई। अटल बिहारी वाजपेयी को पोस्टरों से दूर रखा गया, जबकि भापपा की परंपरा को मजबूती के साथ रखने के लिए उन्हें प्रचार अभियान के तहत पोस्टरों में शामिल किया जाना चाहिये था। गांवों में एक बहुत बड़ा तबका आज भी अटल बिहारी वाजपेयी को न सिर्फ पहचानता है बल्कि प्यार भी करता है।
आडवाणी विदेशी मुल्कों में जमा भारतीय धन को वापस लाने की बात कर रहे थे,जबकि इस मुद्दे से ग्रामीण भारत का कही दूर दूर तक लेना देना नहीं है। इस मुद्दे से वे अपने आप को जोड़ ही नहीं पा रहे थे। इधर शहरी तबका को पता था कि आडवाणी की बातें खोखली हैं, क्योंकि यह संभव ही नहीं था। साथ ही इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के समर्थकों में एसे लोग भी थे जिनके पैसे विदेशों में रन कर रही हैं। इस मुद्दे पर ये लोग भी भाजपा से अलग हो गये।
भारत में एक बहुत बड़ा तबका दाल रोटी से ऊपर उठ चुका है। ये हाईटेक की ओर भाग रहा है। भाजपा ने जिस तरह से मेल, नेट और एसएमस का इस्तेमाल किया उससे यह वर्ग इरिटेट हुया। इस वर्ग की अपनी मानसिकता विकसित हो गई है और भाजपा को इस मानसिकता को समझकर प्रचार अभियान चलाना चाहिये थे। पिछले प्रचार नेट प्रचार अभियान से तो निश्चित रूप से इसे सबक लेना चाहिये था। पिछली बार ये लोग फीलगुड करा रहे थे, जो एक अस्पष्ट सी अवधारणा थी। और जिस तरह से भाजपा ने लोगों के ऊपर हाईटेक प्रचार हमला किया था उसका उल्टा ही असर पड़ा। इस बार भाजपा के हाईटेक प्रचार अभियान में भी सिर्फ और सिर्फ आडवाणी ही शामिल थे।
कांग्रेस की सफलता का श्रेय राहुल गांधी को देने वाले भारत में हुये मतदान पैटर्न को गलत तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि सही तरीके से कहा जाये तो मतदान पैटर्न को ये लोग प्रस्तुत ही नहीं कर रहे हैं। मतदाताओं पर राहुल गांधी का प्रभाव सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा है, वो भी सिर्फ पांच प्रतिशत मतदाताओं पर। इससे ज्यादा कुछ नहीं है। इस चुनाव के सबसे निर्णायक कारकों में महत्वपूर्ण है मुस्लिम मतदाताओं का व्यवहार। बिहार में लालू का माई ध्वस्त हुआ। मुस्लिम मतदाताओं ने वहां पर जनता दल एस और कांग्रेस को अपना मत दिया। नीतिश कुमार का कभी कोई कौम्यूनल बैकग्राउंड नहीं रहा है। सुशासन की बात कह करके नीतिश ने अपनी छवि को मजबूत बनाया और मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जीतने में सफल रहे। गठबंधन में शामिल होकर भी नीतिश ने अपने आप को अलग तरीके से प्रस्तुत किया और इस रुप में उनकी मजबूरी को समझते हुये मुस्लिमों ने उन्हें अपना वोट दिया।
कांग्रेस ने अपने पुराने बागियों को साथ लेकर न सिर्फ डैमेज को रोका, बल्कि अन्य पार्टियों को डैमेज करते हुये इसका फायदा भी उठाया। उत्तर प्रदेश में मायावती के खिलाफ मुसलामानों के दिमाग में यह भ्रम फैलाने में कांग्रेस सफल रही कि जरूरत पड़ने पर मायावती भाजपा की गोद में बैठ सकती है। और अपने पिछले कारनामों के कारण मायावती मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत सकी। उधर मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को मंच प्रदान करके हार्डकोर मुसलमानों को सकते में डाल दिया। चूंकि बाबरी डैमेज के समय कल्याण सिंह ताल ठोकनो वालों में शामिल थे। इसलिये हार्डकोर मुसलमान मुलायम सिंह के हाथ से फिसल गये। कांग्रेस को इसका पूरा फायदा मिला।
एक फिर दोहरा दूं कि भाजपा का उत्थान हिन्दुत्व के लहर पर हुआ था, और वह उससे कब विमुख हुई खुद उसे भी पता नहीं चला। सत्ता की चाहत उसकी पहचान को निगल गई और वह गठबंधनों के भीड़ में गुम हो गई। भारत के मुसलमान इस बात को महसूस कर रहे हैं कि कांग्रेस पूरी तरह से वंशवाद की चपेट में है, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं है। भाजपा का बेस हिन्दुत्व रहा है, हालांकि अब बेस छिटक गया है। भाजपा को खुद पता नहीं है कि उसकी जमीन क्या है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व भाजपा गांव, चौपालों, खेतों और खलिहानों तक फैली थी। भाजपा इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को भी भुला दी....सत्यानाश तो होना ही था।
भाजपा की हार का प्रमुख कारण है भाजपा की पहचान का गुम होना। पूरे चुनाव में भाजपा शब्द कहीं सुनाई ही नहीं दिया। भाजपा की एक पृथक पहचान हुआ करती थी, जो गठबंधन में पूरी तरह से गुम हो गई थी। अब जब पार्टी की पहचान ही गुम हो जाये तो जीतने का सवाल ही कहां पैदा होता है।
एक तरफ देश में जहां भाजपा की पहचान गुम हुई वहीं दूसरी तरफ देश के मुसलमान भाजपा को नहीं भूले थे। प्रत्येक मतदान क्षेत्र में वे लोग भाजपा के खिलाफ सक्रिय नकारात्मक मतदाता की भूमिका में नजर आये। भाजपा के खिलाफ तो उन्हें वोट करना ही था। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि किसी एसे व्यक्ति को उनका वोट न मिले जो जीतने के बाद भाजपा के खेमे में चला जाये। एसी परिस्थिति में वे कांग्रेस के वे स्वाभाविक मतदाता बन गये।
भाजपा की अंदरुनी राजनीति भी बुरी तरह से गडमगड रही। आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना एक बड़ी गलती थी। आडवाणी भाजपा कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास पैदा नहीं कर सके, क्योंकि उनके अंदर इस क्षमता का ह्रास बहुत पहले ही हो चुका था। एक बहुत बड़े हिन्दू समुदाय के बीच, जो भाजपा का कैडर था, पाकिस्तान में जिन्ना के कब्र पर माथा टेककर वह अपनी विश्वसनीयता खो चुके थे। इसके साथ ही मुसलमानों के बीच में आडवाणी की छवि में कोई बदलाव नहीं हुआ था। आडवाणी का दोहरा व्यक्तित्व भाजपा के लिये घातक साबित हुआ।
इसके अलावा भाजपा के प्रचारतंत्र में जुटे लोगों की भी नपुंसकता खुलकर दिखाई दी। जितने भी पोस्टर तैयार किये गये थे उनमें आडवाणी को प्रमुखता से दिखाया गया था, और भाजपा के विगत इतिहास की कहीं कोई झलक नहीं रखी गई। अटल बिहारी वाजपेयी को पोस्टरों से दूर रखा गया, जबकि भापपा की परंपरा को मजबूती के साथ रखने के लिए उन्हें प्रचार अभियान के तहत पोस्टरों में शामिल किया जाना चाहिये था। गांवों में एक बहुत बड़ा तबका आज भी अटल बिहारी वाजपेयी को न सिर्फ पहचानता है बल्कि प्यार भी करता है।
आडवाणी विदेशी मुल्कों में जमा भारतीय धन को वापस लाने की बात कर रहे थे,जबकि इस मुद्दे से ग्रामीण भारत का कही दूर दूर तक लेना देना नहीं है। इस मुद्दे से वे अपने आप को जोड़ ही नहीं पा रहे थे। इधर शहरी तबका को पता था कि आडवाणी की बातें खोखली हैं, क्योंकि यह संभव ही नहीं था। साथ ही इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के समर्थकों में एसे लोग भी थे जिनके पैसे विदेशों में रन कर रही हैं। इस मुद्दे पर ये लोग भी भाजपा से अलग हो गये।
भारत में एक बहुत बड़ा तबका दाल रोटी से ऊपर उठ चुका है। ये हाईटेक की ओर भाग रहा है। भाजपा ने जिस तरह से मेल, नेट और एसएमस का इस्तेमाल किया उससे यह वर्ग इरिटेट हुया। इस वर्ग की अपनी मानसिकता विकसित हो गई है और भाजपा को इस मानसिकता को समझकर प्रचार अभियान चलाना चाहिये थे। पिछले प्रचार नेट प्रचार अभियान से तो निश्चित रूप से इसे सबक लेना चाहिये था। पिछली बार ये लोग फीलगुड करा रहे थे, जो एक अस्पष्ट सी अवधारणा थी। और जिस तरह से भाजपा ने लोगों के ऊपर हाईटेक प्रचार हमला किया था उसका उल्टा ही असर पड़ा। इस बार भाजपा के हाईटेक प्रचार अभियान में भी सिर्फ और सिर्फ आडवाणी ही शामिल थे।
कांग्रेस की सफलता का श्रेय राहुल गांधी को देने वाले भारत में हुये मतदान पैटर्न को गलत तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि सही तरीके से कहा जाये तो मतदान पैटर्न को ये लोग प्रस्तुत ही नहीं कर रहे हैं। मतदाताओं पर राहुल गांधी का प्रभाव सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा है, वो भी सिर्फ पांच प्रतिशत मतदाताओं पर। इससे ज्यादा कुछ नहीं है। इस चुनाव के सबसे निर्णायक कारकों में महत्वपूर्ण है मुस्लिम मतदाताओं का व्यवहार। बिहार में लालू का माई ध्वस्त हुआ। मुस्लिम मतदाताओं ने वहां पर जनता दल एस और कांग्रेस को अपना मत दिया। नीतिश कुमार का कभी कोई कौम्यूनल बैकग्राउंड नहीं रहा है। सुशासन की बात कह करके नीतिश ने अपनी छवि को मजबूत बनाया और मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जीतने में सफल रहे। गठबंधन में शामिल होकर भी नीतिश ने अपने आप को अलग तरीके से प्रस्तुत किया और इस रुप में उनकी मजबूरी को समझते हुये मुस्लिमों ने उन्हें अपना वोट दिया।
कांग्रेस ने अपने पुराने बागियों को साथ लेकर न सिर्फ डैमेज को रोका, बल्कि अन्य पार्टियों को डैमेज करते हुये इसका फायदा भी उठाया। उत्तर प्रदेश में मायावती के खिलाफ मुसलामानों के दिमाग में यह भ्रम फैलाने में कांग्रेस सफल रही कि जरूरत पड़ने पर मायावती भाजपा की गोद में बैठ सकती है। और अपने पिछले कारनामों के कारण मायावती मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत सकी। उधर मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को मंच प्रदान करके हार्डकोर मुसलमानों को सकते में डाल दिया। चूंकि बाबरी डैमेज के समय कल्याण सिंह ताल ठोकनो वालों में शामिल थे। इसलिये हार्डकोर मुसलमान मुलायम सिंह के हाथ से फिसल गये। कांग्रेस को इसका पूरा फायदा मिला।
एक फिर दोहरा दूं कि भाजपा का उत्थान हिन्दुत्व के लहर पर हुआ था, और वह उससे कब विमुख हुई खुद उसे भी पता नहीं चला। सत्ता की चाहत उसकी पहचान को निगल गई और वह गठबंधनों के भीड़ में गुम हो गई। भारत के मुसलमान इस बात को महसूस कर रहे हैं कि कांग्रेस पूरी तरह से वंशवाद की चपेट में है, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं है। भाजपा का बेस हिन्दुत्व रहा है, हालांकि अब बेस छिटक गया है। भाजपा को खुद पता नहीं है कि उसकी जमीन क्या है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व भाजपा गांव, चौपालों, खेतों और खलिहानों तक फैली थी। भाजपा इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को भी भुला दी....सत्यानाश तो होना ही था।
bhajpa k patan par itna sateek vivechan kar k aapne bahut achha karya kiya hai sirji, agar unmen akl hogi toh ve aapko bula kar sammanit zaroor karenge.......atalji ka zikra karke bhi aapne sahi rag par hath rakha hai
ReplyDeleteAAPKO BARMBAR BADHAI
भाई जी अब दाल रोटी से ऊपर के लोग हों या नीचे के सबके साक्षरता और समझ के स्तर में आमूल चूल परिवर्तन हो चुका है .अब लोग नारों और अभिनय के पीछे वाले मकसद को पकड़ ले रहे हैं.
ReplyDeleteलोग जान गए हैं की हिंदुत्व का झुनझुना उनका बेडा पार नहीं करने वाला .कूएं में घुसकर रणनीति तैयार करने वाले ब्राह्मणवादी ,रूढिवादी और आडम्बरी भाजपा के जमीन से कटे घमंडी नेता यदि हिंदुत्व को फिर से पहचान और मुद्दा बनाए तो लगता है उन्हें लुप्तप्राय प्रजाति बनने से कोई नहीं रोक पायेगा .
सही है आपका विश्लेषण, जब तक भाजपा की "पहचान" कायम थी, उसके वोट और सीटें बढ़ती रहीं, जैसे ही सत्ता की चाहत में गठबन्धन किये, सेकुलरों की नकल करके नकली सेकुलर बनने की कोशिश की, पिट गये… आम हिन्दू निराश है, उसे महसूस हो रहा है कि उसकी तरफ़ से बोलने वाला कोई नहीं है, एक प्रकार का शून्य पैदा हो रहा है, जिसे भरने के लिये निश्चित ही कोई नई पहल होगी और शायद एक नई भाजपा का जन्म हो… वैसे भी अगले 5 साल तक तो अपमान सहना ही नियति है…
ReplyDeleteसिर्फ़ मुसलमान ही नहीं, हिन्दुओं ने भी भाजपा के ख़िलाफ़ ख़ूब वोट डाले हैं. क्योंकि यह बात सबकी समझ में आ गई है कि उनकी समस्याओं का हल मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़े से नहीं, जनहितकारी नीतियों से होना है. यह अलग बात है कि वह कॉंग्रेस के पास न कभी रही हैं न कभी होंगी. वह पहले से ही एक्स्पोज़्ड थी. लेकिन भाजपा सत्ता में आने से पहले आदर्शों की बात बहुत करती थी. दिन रात हिन्दी-संस्कृत का गाना गाती थी. और जब 5 साल सत्ता में रह गई तो इसका चुनावी नारा भी अंग्रेजी में हो गया. मतलब यह कि बदले हुए रंग में कांग्रेस का शासन. ध्यान रखें, देश को कॉंग्रेस नहीं चाहिए. उसे अपनी उन जटिल समस्याओं का समाधान चाहिए जिन्हें कांग्रेस ने पहले पैदा किया, फिर पाल-पोस कर बड़ा किया है. दुर्भाग्य से उन मुश्किलों के प्रति भाजपा का रुख़ भी यही रहा. एक बात और, यह न सोचें कि कोंग्रेस-भाजपा-तीसरा-चौथा-पांचवां मोर्चा कोई नहीं कर रहा है तो जनता यह मान कर बैठ जाएगी कि अब समस्याओं का हल नहीं होना है. वह मजबूर है और मज्बूर ही रहेगी. ना. ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है. इस चुनाव के दौरान उठे जूते भविष्य की तस्वीर साफ़ करने के लिए काफ़ी हैं. अभी मुश्किल से देश भर में बीस जोड़ी जूते उठे हैं. अगली बार हो सकता है कि 20 हज़ार जोड़ी उठें और इसके बाद बीस करोड़ जोड़ी जूते भी उठेंगे. तब सोचिए, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का पोषण करने वाले इस खानदानी लोकतंत्र का क्या होगा?
ReplyDeletelongo ke pass ainy congress ek hi vikalp tha
ReplyDeleteuska bantadhaar ker diya in ad-wani ne
बहुत सही टिप्पणी सांस्कृत्यायन जी इ हिंदुत्व का चीज़ हा भाई ,इ का से पेट भरला का ? हाट हिंदुत्व मुसल्मानात्व आ जातित्व की थोऊ थोऊ
ReplyDeleteइ भाजपा के नेता लोगन ना समझिहें ,हमरो चुनाव के पाहिले आश्चर्य होवत रहे की इ लोगन आपण पैर प् काहे का कुल्हाडी मारत हवन लोग .
पर भाजपा नेतवन के सुनी के लागत हा की इ लोग अपना के पूरा ख़तम कर लिहां लोग .इ बात सही हा कि भारतीय पूंजीवादी कांग्रेस आईल ता विकल्पहीनता के वजह से ,काहे से की ५० % लोग वोट देलन लोग आ ५०% लोग माओवादी आ नक्सलवादी विचार धारा नीमन लागे लागल बा . जूता वार्निंग सिस्टम के सिग्नल ना समझ आई ता फ्यूचर में ......
आक्रोश की तेज़ लू के साथ जोरदार जूताव्रिष्टि होने की संभावना है
आपने तो भाजपा का सत्यानाश पूरा कर ही दिया वैसे इन नतीजों से मैं बहुत खुश हूँ क्योंकि मैं न आडवाणी को पी.एम् चाहती थी न मायावती को ,एक धर्मवाद चलता है दूसरा जातिवाद जबकि मेरे देश को विज्ञानवाद चाहिए ,विकासवाद चाहिए खैर...
ReplyDeleteएक लम्बी प्लास्टिक सर्जरी के बाद आपका चेहरा निखर कर सामने आया है इसलिए दो किलो धन्यवाद ले लीजिये मेरे ब्लॉग का अनुसरण करने के लिए ,भगवान् मुझको आपकी एक्सरे दृष्टि से बचाए
Rabbit in Hindi
ReplyDeleteSaturn in Hindi
Tortoise in Hindi
Sparrow in Hindi
Mars in Hindi
Peacock in Hindi
Horse in Hindi