कविता - tumhaari deh
तुम्हारी देह
प्रिये
तुम अपनी देह में बंधी रहो
क्योंकि
तुम्हारी देह मेरा अन्तिम सत्य है
तुम्हारी
देह एक जीवन है,
जीवनयात्रा है
कर्म है
धर्म है
आस्था और आकर्षण है
देह की परिधि के बाहर
कुछ
नहीं बस shoonya है
इस देह ने ही तुम्हें
मेरी प्रियतमा बनाया है
जब तुम्हारी याद आई है
tumhara तन ही याद आया है ।
तुम्हारी देह
कुन्दन है,
कामाग्नि एवं विरहाग्नि में
तपकर इसका रूप निखरा है।
तुम्हारा तन सप्त सरोवर है
निर्मलहै
निर्झर है
हिमषीतल है ।
तुम्हारा तन
श्नल है
मैं जल जाता हूँ
जब तुम मेरे पास होती हो
सर्दियों में जब
मेर सीने पर सिर रखकर सोती हो,
तुम्हारी देह दर्पण है
अंग-अंग में तुम्हारा प्रतिबिम्ब है
प्रतिबिम्ब मेरा भी है
किन्तु वह तुम्हारी देह पर अर्पण है
और कदाचित नारीमय भी है।
तुम्हारी देह
खाद्य है
पेय है
पथ्य है
भोग्य है
सेव्य है
ओषधि है
संजीवनी है
तुम्हारी देह
शृंगार है
रति है
रतिपति है
पुष्पबाण है
बसन्त है
सुगन्ध है
पुष्प है,मकरंद है
पूजा है तुम्हारी देह
साधना है
यज्ञ है
हवन है
हवि है
होत्री भी है
यजमान है तुम्हारी देह।
सार्वभौमिक साहित्य है
तुम्हारी देह,
मूलपाठ है
षाब्दिक कृतियाँ तो इसकी टीकाएँ हैं।
तुम्हारी देह
अmrit और मदिरा की
लबालब भरी हुई
गागर है
जहाँ भी जाती हो
दो- चार बूँद छलक ही जाती है
और रह जाता है
एक अदृष्य निषान
तुम्हारी देह का ।
तुम्हारी देह
एक नाव है
जिसपर बैठकर हम पार जाते हैं
कामना के,
वासना के
और चेतना के।
लज्जा है तुम्हारी देह
श्रद्धा, ईष्र्या और इड़ा है।
तुम्हारे कुंतल
तुम्हारी आँखें
सीधी उतरती हैं दिल में
बेधती हैं,साधती हैं
और चीखती हैं।
उरोज
उन्नत षिखर हैं
मनु को प्रलय से बचाने के
आलम्ब,आश्रय और विश्रामस्थल हैं
जीवन हैं,
अमृत हैं और हालाहल हैं
कटि कटार है
आधार है या गोमुख से निकली
गंगा की धार है!
बहुत कुछ है आसपास
षीतलता
कोमलता
निर्मलता
प्रवाह
निर्वाह,
दाह और कदाचित आत्मदाह!
आभूषण तुम्हारे सेवक हैं
वस्त्र तुम पर ष्षोभा पाते हैं
मैं तो क्या
देवता भी तुम्हारी देह पाने के लिए
धरती पर चुपके से आते हैं
वस्तुतः सब कुछ मिथ्या है
तुम्हारी देह
सत्य है
इस सत्य पर निष्चित ही
सच्चरित्र की मृत्यु है
मैं नहीं मानता आत्मा को अजर -अमर
वह तो दुर्बल है
चंचल है
कर्महीन, धर्महीन और पलायनवादी है
आत्मा भी भटकती - भटकती
तुम्हारी देह में षरण पाती है
और
मैंने तो यही पढ़ा है
अनुभव ने भी यही गढ़ा है
षरणदाता सदैव ही षरणार्थी से बड़ा है
mera मन
अब निष्चल है
तुम्हारी देह मेरा अन्तिम स्थल है।
--हरीशंकर राढ़ी
प्रिये
तुम अपनी देह में बंधी रहो
क्योंकि
तुम्हारी देह मेरा अन्तिम सत्य है
तुम्हारी
देह एक जीवन है,
जीवनयात्रा है
कर्म है
धर्म है
आस्था और आकर्षण है
देह की परिधि के बाहर
कुछ
नहीं बस shoonya है
इस देह ने ही तुम्हें
मेरी प्रियतमा बनाया है
जब तुम्हारी याद आई है
tumhara तन ही याद आया है ।
तुम्हारी देह
कुन्दन है,
कामाग्नि एवं विरहाग्नि में
तपकर इसका रूप निखरा है।
तुम्हारा तन सप्त सरोवर है
निर्मलहै
निर्झर है
हिमषीतल है ।
तुम्हारा तन
श्नल है
मैं जल जाता हूँ
जब तुम मेरे पास होती हो
सर्दियों में जब
मेर सीने पर सिर रखकर सोती हो,
तुम्हारी देह दर्पण है
अंग-अंग में तुम्हारा प्रतिबिम्ब है
प्रतिबिम्ब मेरा भी है
किन्तु वह तुम्हारी देह पर अर्पण है
और कदाचित नारीमय भी है।
तुम्हारी देह
खाद्य है
पेय है
पथ्य है
भोग्य है
सेव्य है
ओषधि है
संजीवनी है
तुम्हारी देह
शृंगार है
रति है
रतिपति है
पुष्पबाण है
बसन्त है
सुगन्ध है
पुष्प है,मकरंद है
पूजा है तुम्हारी देह
साधना है
यज्ञ है
हवन है
हवि है
होत्री भी है
यजमान है तुम्हारी देह।
सार्वभौमिक साहित्य है
तुम्हारी देह,
मूलपाठ है
षाब्दिक कृतियाँ तो इसकी टीकाएँ हैं।
तुम्हारी देह
अmrit और मदिरा की
लबालब भरी हुई
गागर है
जहाँ भी जाती हो
दो- चार बूँद छलक ही जाती है
और रह जाता है
एक अदृष्य निषान
तुम्हारी देह का ।
तुम्हारी देह
एक नाव है
जिसपर बैठकर हम पार जाते हैं
कामना के,
वासना के
और चेतना के।
लज्जा है तुम्हारी देह
श्रद्धा, ईष्र्या और इड़ा है।
तुम्हारे कुंतल
तुम्हारी आँखें
सीधी उतरती हैं दिल में
बेधती हैं,साधती हैं
और चीखती हैं।
उरोज
उन्नत षिखर हैं
मनु को प्रलय से बचाने के
आलम्ब,आश्रय और विश्रामस्थल हैं
जीवन हैं,
अमृत हैं और हालाहल हैं
कटि कटार है
आधार है या गोमुख से निकली
गंगा की धार है!
बहुत कुछ है आसपास
षीतलता
कोमलता
निर्मलता
प्रवाह
निर्वाह,
दाह और कदाचित आत्मदाह!
आभूषण तुम्हारे सेवक हैं
वस्त्र तुम पर ष्षोभा पाते हैं
मैं तो क्या
देवता भी तुम्हारी देह पाने के लिए
धरती पर चुपके से आते हैं
वस्तुतः सब कुछ मिथ्या है
तुम्हारी देह
सत्य है
इस सत्य पर निष्चित ही
सच्चरित्र की मृत्यु है
मैं नहीं मानता आत्मा को अजर -अमर
वह तो दुर्बल है
चंचल है
कर्महीन, धर्महीन और पलायनवादी है
आत्मा भी भटकती - भटकती
तुम्हारी देह में षरण पाती है
और
मैंने तो यही पढ़ा है
अनुभव ने भी यही गढ़ा है
षरणदाता सदैव ही षरणार्थी से बड़ा है
mera मन
अब निष्चल है
तुम्हारी देह मेरा अन्तिम स्थल है।
--हरीशंकर राढ़ी
आज की उपभोक्तावादी वृत्ति पर ज़ोरदार और धारदार व्यंग्य है. बधाई.
ReplyDeleteमैटेरियलिज्म में आपने गहरी आस्था व्यक्त की है...आकार, प्रकार, महक आदि ही सबकुछ है...सभी ज्ञानेंद्रियों से जिसे पाया जा सके वही सत्य है...रोमांटिसिज्म चाहे लाख छलांग लगा ले, लेकिन उसका आधार हमेशा मैटेरियलिज्म ही होगा....
ReplyDeletebeshak jordaar illustration ki zaroorat ho to bekhatak mangva lijiye
ReplyDeleteगहरा दर्शन .
ReplyDeleteएक शब्द बस- ’अद्भुत"
ReplyDeletesyam jagotaji
ReplyDeleteillustration ki zaroorat to padati hi rahti hai. bina illustration ke zindagi kya ?
hari shanker rarhi
हरिशंकर राढ़ी!
ReplyDeleteतुम्हारी देह पसन्द आयी!
लिखते रहो! बधाई!!
अद्भुत प्रहार करती धारदार रचना,
ReplyDeleteस्तुति और संस्तुति की
आदत के सच का अनावरण
बड़ी कुशलता से कर दिया कवि ने...
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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