आत्मीयता की त्रासदी :बेघर हुए अलाव
परिवर्तन,क्षरण ,ह्रास या स्खलन प्रकृति के नियम हैं और प्रकृति में ऐसा होना सहज और स्वाभाविक होता है किन्तु यही प्रक्रिया जब समाज में होने शुरू हो जाती है तो वह समूची मानव जाति के लिए घातक हो जाती है मानवीय मूल्यों से विचलन, अपनी ही संस्कृति के उपहास और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम शायद बहुत आगे निकल गए हैं परिवर्तन की लहर आई है और सर्वत्र विकास ही दिख रहा है विकास गांवों का भी हुआ है किन्तु विकास के रासायनिक उर्वरक ने मिट्टी की अपनी गंध छीन ली है उस हवा में अब वह अपनत्व नहीं है जो हर रीतेपन को सहज ही भर लेता था भारत के गांव थे ही संस्कृति एवं परम्परा के पोषक! भोजपुरी भाषी क्षेत्र के गांव तो सदैव ही ऐसे थे जहां निर्धनता के कीचड़ मे आदर्श एवं आत्मीयता के कमल खिलते रहे अब ये गांव आत्मीयता का विचलन देख रहे हैं, समृद्ध परम्पराएं टूट रही हैं और अपनी संस्कृति से जुड़े लोगों के मन में टीस पैदा हो रही है। संभवतः ऐसी ही टीस की उपज है ओम धीरज का नवगीत संग्रह-“बेघर हुए अलाव” संवेदनशीलता ही कवि पूंजी होती है गांव के अपनत्व ,मिट्टी के मोह,और परम्पराओं के प्रति ओम धीरज काफी संवेदनशील हैं...