तुम कविता हो
प्रिये !
तुमने तो शुरु से ही
एक कविता का जीवन
जिया है,
बस
समय, भाव एवं परिस्थितियों ने
तुम्हारा किरदार
बदल दिया है।
पहले
जब मैं अबोध था,
तुम चंचल किंतु वात्सल्य रस से भरी
बालगीत लगती थी।
धीरे- धीरे
गेयता का पुट आया तो
तुम
कवित्त, घनाक्षरी
और
सवैया लगने लगी ।
क्रमशः
तुम श्रृंगार रस में पग गई,
अन्य सभी रस गौड.हो गये
और
बाह्य साहित्य के प्रभाव में
प्यार भरी गज़ल हो गई।
एक दिन अज़ीब सी कल्पना हुई
और तुम मुझे
समस्यापूर्ति लगने लगी।
मुझे लगा
मैं कुछ भूल रहा हूं
कस्तूरी मृग की भांति
व्यर्थ ही इधर उधर
कुछ ढूंढ रहा हूं
तुम तो तुलसी की चौपाई हो,
मेरी अंतरात्मा में
गहराई तक
समाई हो।
पाश्चात्य सभ्यता का युग आया
मुझे लगा
तुम छन्दमुक्त हो गई हो,
उन्मुक्त हो गई हो ,
वर्जनाएं समाप्त हो गई हैं
तुम्हारा शास्त्रीय स्वरूप
बदल गया है
पंक्तियों का आकार
परिवर्तित हो गया है
कहीं क्षीण तो कहीं स्थूल हो गई हो,
तुममें अब वीणा का अनुनाद नहीं है
नादयंत्र की थाप है
पर इस मुक्ति के कारण
तुम प्रवहमान हो गई हो,
ताज़गी लिये चलती हो
तुम्हारा यह उन्मुक्त रूप
मैनें
प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया है
हां,शर्त यह जरूर है
कि तुम अनुभूति एवं भाव से
भरी रहना
क्योंकि मेरे लिए तुम
अभी भी एक कविता हो।
तुमने तो शुरु से ही
एक कविता का जीवन
जिया है,
बस
समय, भाव एवं परिस्थितियों ने
तुम्हारा किरदार
बदल दिया है।
पहले
जब मैं अबोध था,
तुम चंचल किंतु वात्सल्य रस से भरी
बालगीत लगती थी।
धीरे- धीरे
गेयता का पुट आया तो
तुम
कवित्त, घनाक्षरी
और
सवैया लगने लगी ।
क्रमशः
तुम श्रृंगार रस में पग गई,
अन्य सभी रस गौड.हो गये
और
बाह्य साहित्य के प्रभाव में
प्यार भरी गज़ल हो गई।
एक दिन अज़ीब सी कल्पना हुई
और तुम मुझे
समस्यापूर्ति लगने लगी।
मुझे लगा
मैं कुछ भूल रहा हूं
कस्तूरी मृग की भांति
व्यर्थ ही इधर उधर
कुछ ढूंढ रहा हूं
तुम तो तुलसी की चौपाई हो,
मेरी अंतरात्मा में
गहराई तक
समाई हो।
पाश्चात्य सभ्यता का युग आया
मुझे लगा
तुम छन्दमुक्त हो गई हो,
उन्मुक्त हो गई हो ,
वर्जनाएं समाप्त हो गई हैं
तुम्हारा शास्त्रीय स्वरूप
बदल गया है
पंक्तियों का आकार
परिवर्तित हो गया है
कहीं क्षीण तो कहीं स्थूल हो गई हो,
तुममें अब वीणा का अनुनाद नहीं है
नादयंत्र की थाप है
पर इस मुक्ति के कारण
तुम प्रवहमान हो गई हो,
ताज़गी लिये चलती हो
तुम्हारा यह उन्मुक्त रूप
मैनें
प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया है
हां,शर्त यह जरूर है
कि तुम अनुभूति एवं भाव से
भरी रहना
क्योंकि मेरे लिए तुम
अभी भी एक कविता हो।
गजब ढा रहे हैं आप तो ....बेहतरीन...बेहतरीन...बेहतरीन
ReplyDeleteek uchchkotee ki rachana .......laazabaaw
ReplyDeleteजबरदस्त!! बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर,लाजवाब.
ReplyDeleteवाह..वाह..
ReplyDeleteकविता के माध्यम से जीवन की सुन्दर कथा ।
अव्यक्त को व्यक्त कर दिया राढी जी!
ReplyDeleteमुझे तो इसमें बड़ी भयंकर धोखाधड़ी नज़र आ रही है.
ReplyDeleteलाजवाब!!!
ReplyDeleteहां,शर्त यह जरूर है
ReplyDeleteकि तुम अनुभूति एवं भाव से
भरी रहना
क्योंकि मेरे लिए तुम
अभी भी एक कविता हो।
...khubsurat bhavabhivyakti..Badhai ho Radhi ji !!
तुम्हारा यह उन्मुक्त रूप
ReplyDeleteमैनें
प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया है
हां,शर्त यह जरूर है
कि तुम अनुभूति एवं भाव से
भरी रहना
क्योंकि मेरे लिए तुम
अभी भी एक कविता हो।
अति सुन्दर गहन भवों से युक्त सारांश .
बधाई.
यह भाषा , साहित्य, जीवन जीने की पद्धति या कुछ और भी हो सकती है. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteIs prbhavi rachna ke liye badhai.
ReplyDeleteमैं इष्टदेव जी से सहमत हूँ ,वो आपके लिए तो कविता है परन्तु आप उनके लिए क्या हैं.?
ReplyDeleteसोच के मुझे भी बताइये और इष्ट देव जी को भी
अलका जी,
ReplyDeleteकविता को समझने वाला और और उसे पसंद करने वाला कोई कवि ही होता है, इस सत्य को कविता भी समझती है और वह भी कवि को बहुत प्यार करती है. दोनों ही एक दूसरे को उम्र भर चाहते हैं और एक दूसरे को अमर कर देते हैं वे ! एक दूसरे के पूरक हैं कवि और कविता . कविता कवि की पहचान है तो कवि कविता का प्रेमी. अगर मेरे लिए वह कविता है तो मेरे बिना उसकी संकल्पना ही नहीं !जितनी ही कोमल है वह उतना ही उदार हूं मैं,इसीलिए तो वह मेरे पास है. बहुत डूब कर समझना होगा आपको !
गुस्ताखी माफ़ हो तो मै यह कहना चाहूँगा कि यह बहस बेकार है.....कविता के साथ "समझ या समझना" जोड़ा नहीं जा सकता....ये बात ही दिल की है यहाँ समझ क क्या काम!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है......मन भाई..
सप्रेम,
महेन्द्र मिश्र