रावण के चेहरों पर उड़ता हुआ गुलाल
आलोक नंदन पुश्त दर पुश्त सेवा करने वाले कहारों से बीर बाबू कुछ इसी तरह पेश आते थे, “अरे मल्हरवा, सुनली हे कि तू अपन बेटी के नाम डौली रखले हे ?” “जी मलिकार”, हाथ जोड़े मल्हरवा का जवाब होता था। “अरे बहिन....!!! अभी उ समय न अलई हे कि अपन बेटी के नाम बिलाइती रखबे..., कुछ और रख ले .... भुखरिया, हुलकनी ...... लेकिन इ नमवा हटा दे, ज्यादा माथा पर चढ़के मूते के कोशिश मत कर”, अपने ख़ास अंदाज़ में बीर बाबू अपने पूर्वजों के तौर-तरीक़ों को हांकते थे. उनके मुंह पर यह जुमला हमेशा होता था, “छोट जात लतिअइले बड़ जाते बतिअइले”. इलाके में कई तरह की हवाएं आपस में टकरा रही थीं और जहां तहां लोगों के मुंह से भभकते हुए शोले निकल रहे थे. “अंग्रेजवन बहिन...सब चल गेलक बाकि इ सब अभी हइये हथन .” “एक सरकार आविते थे, दूसर सरकार जाइत हे, बाकि हमनी अभी तक इनकर इहां चूत्तर घसित ही.. ” “अभी तक जवार में चारो तरफ ललटेने जलित थे, इ लोग बिजली के तार गिरही न देलन...अब मोबाइल कनेक्शन लेके घूमित हथन...सीधे सरकार से बात करित हथन ” “एक बार में चढ़ जायके काम हे... ” “बाकि अपनो अदमियन सब भी तो बहिनचोदवे ...