मेरा चैन -वैन सब
(दूसरी और अन्तिम किश्त )
गर्मी ठीक से नहीं पड़ रही है इसलिए पानी कभी-कभी आ ही जाता है। वर्मा जी मूली खरीदने गए थे; अत्याधुनिक आविष्कारों का लाभ प्राप्त हो गया-आर डी एक्स की भेंट चढ़ गए। शहर के लोग बहुत जिन्दादिल होते हैं, साहसी होते हैं। मूली की विक्री पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कोई भी मर जाए, शहर वाले विचलित नहीं होते। यह सत्य टी वी वालों ने सिद्ध कर दिया है।वे बताते हैं कि मूली खरीदने वाले उसी अदम्य उत्साह से आ रहे हैं। कई चैनलों पर ग्राहकों का साक्षात्कार भी तत्काल दिखाया गया है।
पर, शहर वाले बरबाद हो रहे हैं। इस तथ्य की संगीतमय अभिव्यक्ति के बाद संदेह की गुंजाईश नहीं रह जाती ।गांववालों का क्या हाल है , इसका विवरण यहां सुलभ नही है।वैसे बरबाद होने और चैन-वैन उजड़ने का जश्न वहां भी मनाया जा रहा है। कइयों को इस पर आपत्ति है कि "बरबाद सूची " में गांववालों का जिक्र क्यों नहीं ? गांव और शहर में इतना भेदभाव क्यों ? और सुविधाओं की बात तो छोड़िए, क्या गांव वालों को अब बरबाद होने का भी हक नहीं ? इन सभी प्रश्नों ने मुझे निष्प्राण ही कर दिया होता , परन्तु शर्मा जी ने एक लम्बा भाषण ठोंका -“यह जानते हुए भी कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और संगीत ईश्वर की भक्ति, आप ऐसी शंका कर रहे हैं ?गांववाले क्या खाकर शहर वालों का मुकाबला करेंगे ? वे तो इस बरबाद प्रतियागिता में शामिल होने की भी अर्हता नहीं रखते !यहां एक ऐसी अंगड़ाई का वर्णन है जो टूटने न पाए...... यानी लम्बी खिंचे। ऐसी अंगड़ाई उसे ही आ सकती है जो देर तक सोने का माद्दा रखता हो। चार बजे सुबह ही उठ जाने वाला क्या खाक बरबाद होगा ? पूरे के पूरे कपड़े पहन लिए , अब किसी का चैन उजाड़ना तुम्हारे वश का होगा ? कर भला तो हो भला !एक दो मुकदमे खड़े कर देने से अब किसी का चैन- वैन नहीं उजड़ता ! नाखून कटा के शहीद बनने चले।
ये ऊँची चीजें हैं , बड़े लोगों पर फबती हैं! उसी का जश्न है। शहरी समाज सभ्य होता है । संगीत से इसका पुराना रिश्ता है जो समय-समय पर प्रकट होता रहा है।गीतकारों ने उच्च समाज की नब्ज पकड़ लिया है और उन्होंने सबको स्वर दे दिया है। कभी पूरे देश के अरमां आंसुओं में बहे थे, कभी दीदी का देवर दीवाना हो गया था, थोड़े दिनों पहले होठ भीग गए थे और बहुत से लोगों को “कांटा” चुभ गया था......तब भी खुशी का माहौल था।” मुझे भी अपना चैन-वैन उजड़ा-उजड़ा सा लग रहा था। शर्मा जी अभी कुछ और बोलते पर उनके मोबाइल का चैन- वैन उजड़ने लग गया था। पता नहीं कब सेटल होगा चैन और कब टूटेगी अंगड़ाई.....? आओ , तब तक बरबाद हो लें।
गांव वालों को इतना भी गया-गुज़रा न समझें. लगता है आपके शर्मा जी ने "बगल वाली जान मारेली........." नहीं सुना है. ई तो बड़ी मामूली चीज़ है, इससे भी ज़्यादा ज़ोरदार चीज़ें हैं, जिनका ज़िक्र करना मुझे यहां मुनासिब नहीं लगता.
ReplyDeleteअच्छी रचना..हैपी ब्लॉगिंग
ReplyDeleteवाह राढ़ी जी, चैन वैन का तात्पर्य पैंट की चैन से तो नहीं आज रीमिक्स का जमाना है और ऐसे गाने दिखाए जा रहे हैं कि वह भी सम्भव है। लेकिन तैयारी तो पूरी बर्बादी की है आगे भगवान ही मालिक है।
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