पोंगापंथ अप टू कन्याकुमारी
अभी पहली तारीख को दक्षिण भारत का एक लम्बा भ्रमण करके आया हूँ. त्रिवेन्द्रम, मदुरै, कोडाइकैनाल,रामेश्वरम और कन्याकुमारी तक फैले भारत की समृद्ध प्रकृति को देखा और महसूस किया. कितना अच्छा है अपना देश, शायद बयान नहीं कर सकता . यात्रा का वर्णन तो विस्तार में और बाद में करूँगा लेकिन पहले जो बातें बहुत चुभीं , उन्हें कहे बिना रहा नहीं जाता. अस्तु , आपसे क्षमा याचना करते हुए पहले कटु अनुभव ही!
दक्षिण भारत अपने विशाल और वैभवशाली मंदिरों के लिए विश्वविख्यात है। त्रिवेन्द्रम का श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर भी अपने वास्तु और धार्मिक महत्व के लिये अत्यंत प्रसिद्ध है।परंतु हिन्दू धर्म की पोंगापंथी यहीं से शुरू हो जाती है. पहली विडम्बना कि यह मंदिर हिन्दू मात्र के लिए(ही) खुला है जबकि इसका कोई निर्धारण नहीं किया जाता कि दर्शनार्थी कौन है! चलिए , यह अच्छी बात है किंतु क़्या ईश्वर का द्वार केवल धर्म विशेष के लिये ही खुला होना चाहिए ? आगे देखिए, मंदिर में प्रवेश के लिए ड्रेस कोड भी है- पुरुष केवल धोती में, सिर्फ धोती में ही अन्दर जा सकता है. उसे पैंट-शर्ट तो क्या बनियान तक उतारनी पडती है. बैग , मोबाइल , जूते –चप्पल और अन्य साजो सामान तो खैर हर बडे मंदिर में बाहर रखना ही होता है. हाँ, मजे की बात यह है कि आपको पर्स ले जाने की पूरी छूट है, उसे तो चेक भी नहीं किया जाता. उसे रखवा लिया तो दान-दक्षिणा अब हमारे दो परिवारों के उपरोक्त सामान मंदिर के क्लॉक रूम में जमा कराने का शुल्क 208/- बना. अब सामान के लिये आप ये न कहें कि ज़्यादा रहा होगा. चार बडे और चार बच्चों के शरीर पर जो भी रहा हो. मेरे दस साल के बेटे को भी शुद्धीकरण की इस प्रक्रिया से गुजरना पडा. औरत अगर साडी में है तो ठीक है नहीं तो उसे भी लुंगीनुमा एक धोती लपेटनी पडती है.हाँ, वे छोटी से लुंगीनुमा धोती का शुल्क 15/- प्रति नग लेते हैं. अन्दर के चढावे अलग हैं जिसमें दूर से जाने वाले श्रद्धालु ही शिकार बनते हैं.
मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर मदुरै में ऐसा कुछ विशेष तो नहीं है परंतु बाहरी लोगों ( जो अपने रंग-रूप और भाषा से पहचान लिए जाते हैं) को प्रवेश शुल्क जैसे संकटों से गुजरना पडता है.
अब आइए रामेश्वरम चलते हैं. यहाँ रामनाथ स्वामी का विश्वविख्यात मंदिर है. भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से यह एक है जिसे लंका विजय अभियान के पूर्व श्रीराम ने खुद स्थापित किया था और जिसकी यात्रा की कामना हर हिन्दू करता है, यह चार धामों में एक है. यहाँ का विधान है कि श्रद्धालु पहले सागर में नहाता है और फिर दर्शन के पूर्व मंदिर में स्थित अग्नितीर्थम के 22 कुंडों में उन्ही गीले कपडों में स्नान करता है. इसके लिये पंडे खूब मोलभाव करते हैं. सरकारी व्यवस्था है, 25/ प्रति व्यक्ति टिकट निर्धारित है पर कौन परवाह करता है इन नियमों की ?
कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषी ने तपस्या की थी, ऐसे विवेकवान और उच्च विचारवान की तपः पूत धरती पर पोंगापंथ हावी है, कन्याकुमारी के मंदिर में आपको प्रवेश चाहिए तो आपको कमर के ऊपर पूर्णतया नंगा होना पडेगा ,जैसे सारी अशुद्धता वहीं बसी हो.यहाँ तक देखते-देखते मैं ऊब चुका था. मैंने तो दूर से ही हाथ जोड लिए और सोचता रहा कि क्या इक्कीसवीं सदी में भी हम इन आवरणों को नोच कर फेंक नहीं पाएंगे और हर श्रद्धालु को आत्मिक शांति के लिए मंदिरों में प्रवेश को सर्वसुलभ नहीं कर पाएंगे ? आखिर कब तक हम भगवान के एजेंटों को नियुक्त करते रहेंगे और उनकी सुनते रहेंगे?
दक्षिण भारत अपने विशाल और वैभवशाली मंदिरों के लिए विश्वविख्यात है। त्रिवेन्द्रम का श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर भी अपने वास्तु और धार्मिक महत्व के लिये अत्यंत प्रसिद्ध है।परंतु हिन्दू धर्म की पोंगापंथी यहीं से शुरू हो जाती है. पहली विडम्बना कि यह मंदिर हिन्दू मात्र के लिए(ही) खुला है जबकि इसका कोई निर्धारण नहीं किया जाता कि दर्शनार्थी कौन है! चलिए , यह अच्छी बात है किंतु क़्या ईश्वर का द्वार केवल धर्म विशेष के लिये ही खुला होना चाहिए ? आगे देखिए, मंदिर में प्रवेश के लिए ड्रेस कोड भी है- पुरुष केवल धोती में, सिर्फ धोती में ही अन्दर जा सकता है. उसे पैंट-शर्ट तो क्या बनियान तक उतारनी पडती है. बैग , मोबाइल , जूते –चप्पल और अन्य साजो सामान तो खैर हर बडे मंदिर में बाहर रखना ही होता है. हाँ, मजे की बात यह है कि आपको पर्स ले जाने की पूरी छूट है, उसे तो चेक भी नहीं किया जाता. उसे रखवा लिया तो दान-दक्षिणा अब हमारे दो परिवारों के उपरोक्त सामान मंदिर के क्लॉक रूम में जमा कराने का शुल्क 208/- बना. अब सामान के लिये आप ये न कहें कि ज़्यादा रहा होगा. चार बडे और चार बच्चों के शरीर पर जो भी रहा हो. मेरे दस साल के बेटे को भी शुद्धीकरण की इस प्रक्रिया से गुजरना पडा. औरत अगर साडी में है तो ठीक है नहीं तो उसे भी लुंगीनुमा एक धोती लपेटनी पडती है.हाँ, वे छोटी से लुंगीनुमा धोती का शुल्क 15/- प्रति नग लेते हैं. अन्दर के चढावे अलग हैं जिसमें दूर से जाने वाले श्रद्धालु ही शिकार बनते हैं.
मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर मदुरै में ऐसा कुछ विशेष तो नहीं है परंतु बाहरी लोगों ( जो अपने रंग-रूप और भाषा से पहचान लिए जाते हैं) को प्रवेश शुल्क जैसे संकटों से गुजरना पडता है.
अब आइए रामेश्वरम चलते हैं. यहाँ रामनाथ स्वामी का विश्वविख्यात मंदिर है. भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से यह एक है जिसे लंका विजय अभियान के पूर्व श्रीराम ने खुद स्थापित किया था और जिसकी यात्रा की कामना हर हिन्दू करता है, यह चार धामों में एक है. यहाँ का विधान है कि श्रद्धालु पहले सागर में नहाता है और फिर दर्शन के पूर्व मंदिर में स्थित अग्नितीर्थम के 22 कुंडों में उन्ही गीले कपडों में स्नान करता है. इसके लिये पंडे खूब मोलभाव करते हैं. सरकारी व्यवस्था है, 25/ प्रति व्यक्ति टिकट निर्धारित है पर कौन परवाह करता है इन नियमों की ?
कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषी ने तपस्या की थी, ऐसे विवेकवान और उच्च विचारवान की तपः पूत धरती पर पोंगापंथ हावी है, कन्याकुमारी के मंदिर में आपको प्रवेश चाहिए तो आपको कमर के ऊपर पूर्णतया नंगा होना पडेगा ,जैसे सारी अशुद्धता वहीं बसी हो.यहाँ तक देखते-देखते मैं ऊब चुका था. मैंने तो दूर से ही हाथ जोड लिए और सोचता रहा कि क्या इक्कीसवीं सदी में भी हम इन आवरणों को नोच कर फेंक नहीं पाएंगे और हर श्रद्धालु को आत्मिक शांति के लिए मंदिरों में प्रवेश को सर्वसुलभ नहीं कर पाएंगे ? आखिर कब तक हम भगवान के एजेंटों को नियुक्त करते रहेंगे और उनकी सुनते रहेंगे?
बहुत ज़ोरदार सवाल आपने उठाए हैं सर. ये सवाल ऐसे हैं जो पहले ही उठाए जाने चाहिए थे, लेकिन मुश्किल यह है कि लोग आम तौर पर या तो शुद्ध श्रद्धालु बन कर जाते और लिखते हैं या फिर किसी ख़ास विचारधारा की ग़ुलामी के क्रम में तथाकथित नास्तिक. ये दोनों ही स्थितियां किसी भी सच को उसकी संपूर्णता में उजागर नहीं होने देतीं.आप श्रद्धा और सामाजिक दृष्टिकोण दोनों को एक साथ लेकर चल रहे हैं और यह एक अच्छी बात है. अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी. साधुवाद.
ReplyDeleteईश्वर है अगर..?.तो हमारे घर में भी होगा...!...मैं पोंगापंथियों के साथ हूँ...वे तो समाज को चेताने के लिए प्रयासरत हैं कि बचो ढकोसलों से ईश्वर की ठेकेदारी से ,ये तो हम हैं जो उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद आडम्बरों से चिपके रहते हैं ...
ReplyDeleteभैया लोग फिर भी नहीं समझते
ReplyDeleteआपने अपने लेख में रूढ़ियों का अच्छा पर्दाफास किया है।
ReplyDeleteयदि गौर से देखेंगे तो प्रत्येक प्रचीन मंदिरों में इस तरह की व्यवस्था के पीछे खास तरह के पंडों का पारिवारिक कब्जा है...ये लोग हर तरह से माल झटकने के तमाम तंत्र को बड़ी कुशलता से संचालित करते हैं...और आप चाह करके भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते...आपको पूरी तरह से उनकी बनाई हुई व्यवस्था के तहत ही भगवान तक पहुंचनापड़ता है...तमाम मंदिर मनुष्य के अंदर व्याप्त ईश्वर की अभिव्यक्ति है....
ReplyDeleteस्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषी ने तपस्या की थी, ऐसे विवेकवान और उच्च विचारवान की तपः पूत धरती पर पोंगापंथ हावी है !!
ReplyDeleteस्वामी विवेकानन्द की आत्मा को कितना कष्ट पहुंचता होगा .. इसका जरा भी अनुमान कर लें तो .. जनता के कल्याण की सोंचे!!
आलोक जी ने लगभग मेरे मन की बात कह दी है ....
ReplyDeleteक्या ये पुजारी धर्म की कीमत वसूल रहे हैं?जहाँ मानव-मानव में भेद हो वहां धर्म मौजूद हो सकता है क्या?हिन्दू धर्म का यह असल चेहरा तो नहीं ही है .
ReplyDelete"मजे की बात यह है कि आपको पर्स ले जाने की पूरी छूट है, उसे तो चेक भी नहीं किया जाता"
तो यहाँ चल क्या रहा है?
-----पर्यटन उद्योग .धर्म को हाई जैक करने के बाद अब धार्मिक स्थलों को स्टॉक मार्केट में लिस्ट कराने की ही देर है .
आप सबकी टिप्पणियों से लगा कि पोंगापंथ से उपजी मेरी टीस में आपको भी दर्द का एहसास हो रहा है. मुझे लगता है कि लगभग हर बौद्धिक व्यक्ति इन विडम्बनाओं का थोडा- बहुत विरोधी ज़रूर होगा.इष्टदेव जी ने मेरे दृष्टिकोण को ठीक से समझा है; आलोक नन्दन जी ने भी समस्या को गहराई तक जाने की कोशिश की है और उनकी बात इत्तेफाक रखने लायक है. नीताजी शायद ज्यादा ही व्यंग्य कर गई हैं. ईश्वर हमारे घर में तो क्या ,हमारे दिल में ही रहता है .ऐसा अनेक महान लोगों ने कहा है फिर भी मनुष्य भटकता रहा है. हमारे मनीषियों ने पर्यटन को धर्म के साथ जोडकर मिलीजुली संस्कृति की परिकल्पना की थी. किसी भी बहाने घर से निकलना तो हो. हम अपनी परिधि से बाहर निकलें तो.निकलते भी हैं. अगर इन ईश्वरीय एजेंटों से बच सएं तो कितना सुखद हो !
ReplyDeleteइन पोंगापंथियों ने ही धर्म का बेडा गर्क किया है,इस लिये हम ने मंदिर जाना ही छोड दिया.
ReplyDeleteतीर्थस्थल भ्रमण
ReplyDeleteऔर आत्मशुद्धि के बहाने पर्यटन और विचार शुद्धि हो जाए इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है .आप यदि वहां से आकर भी ये पाते हैं
"आप सबकी टिप्पणियों से लगा कि पोंगापंथ से उपजी मेरी टीस में आपको भी दर्द का एहसास हो रहा है"
तो जरूर "हमारे मनीषियों के पर्यटन को धर्म के साथ जोडकर मिलीजुली संस्कृति की परिकल्पना " में किसी ने कुछ गड़बडी कर दी है .पाखंडों को परंपरा मान सकते हैं पर मुझे लगता है कि भेदभाव और लालच आस्था के सेहत लिए ठीक नहीं है .
अब देखिये न सवेरे ८ बजे से ९.३० बजे तक बीबीसी और चाइना रेडियो इंटरनेशनल का एक के बाद एक एक ही फ्रीक्वेंसी पर प्रसारण होता है.सामान मत और विचारधारा के चलते बीबीसी के श्रोताओं में भी CRI लोकप्रिय होता जा रहा है .प्रसारण में गौरवगान और पाकिस्तानी मित्रता के अलावे एक भाग जरूर तिब्बत और निर्वासितों को समर्पित होता है ,जिसमे बताया जाता है कि चीन बहुत ही धर्मप्रिय और सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक आज़ादी प्रदान करने वाला देश है .हमे मालुम होना चाहिए कि ओलंपिक से ठीक पहले बौध भिक्षुओं ने तिब्बत में आजादी और धूम धड़ाम से खेलों का स्वागत किया था.
क्या भारत में हम धर्म का असल अर्थ चीन से नहीं सीख सकते .
दक्षिण भारत क्या पूरे भारत में सभी प्रमुख स्थानों पर पंडों के नोच खसोट से श्रद्धालुओं को दो चार होना ही पड़ता है...
ReplyDeleteक्या कहा जाय,उनकी वृत्ति ही यही है...आज कर्म क्षेत्र में लगभग हर व्यक्ति अपने अपने कार्यक्षेत्र में यही करने को तो बाध्य है अपने जीवन यापन के लिए....
सभी जगह यही हालत है, हम तो उज्जैन में रहते हैं इसलिये धर्म से सम्बन्धित आडम्बर, पाखण्ड और लूट को बहुत करीब से देखा है, इसी प्रकार हर 12 साल में होने वाले कुम्भ को भी नज़दीक से देखा है और उसमें चलने वाले खटकरम हमसे छिपे नहीं है। मैं तो सारे बाबाओं से दूर रहता हूं, सिर्फ़ बाबा रामदेव को छोड़कर, जो भले ही पैसा कमा रहे हों, लेकिन कम से कम जागरूकता तो पैदा कर रहे हैं…
ReplyDeleteचिपलूनकर जी कौन कहता है कि बाबा रामदेव पैसे कमा रहे हैं ,अब आजीवन कुछ भी दान-दक्षिणा के भरोसे तो चल नहीं सकता ,दवाओं एवं अन्य उत्पादों के माध्यम से जो धन अर्जित हो रहा है वो वापस संस्था ,देश और गरीब बच्चों के स्कूल में लग रहा है.स्वामी रामदेव जैसे बिरले ही पैदा होते हैं ,आगे आगे देखिये होता है क्या.
ReplyDeleteभाई एनॉनिमस जी!
ReplyDeleteवैसे तो मैं आपकी बात से सहमत हूं, पर अगर बाबा रामदेव पैसे कमा भी रहे हों तो अच्छे काम से पैसे कमाना कोई अपराध थोड़े ही है. सत्कर्म से धन कमाना और उसे सत्कर्मों में ही व्यय करना धर्म के अनुसार पुरुषार्थ और संविधान के अनुसार हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. इसमें दिक्क़त क्या है? और हां, हम भी चाहते हैं कि आगे-आगे कुछ हो. इस देश के हालात बदलें.
आपके द्बारा प्रस्तुत चित्रण से लगा मैं दुबारा इन स्थानों का पर्यटन कर आया और मन समुद्र में नहाया सा मैला हो गया.
ReplyDeleteहरिशंकर जी, क्या अब भी श्रद्धालु पहले सागर के उस तट पर फारिग होते हैं जिसमे वे स्नान करते हैं ??
पूर्व का ऐसा घिनोना अहसास अब तक नहीं भूल पाया हूँ.
लगता है आज धर्म की नहीं स्वास्थय की ज़रुरत ज्यादा है और रामदेव जी इसमें सबसे अग्रणी हैं.
[] राकेश 'सोहम'
राकेशजी, परम्पराएं इतनी जल्दी नहीं बदलतीं और वह भी धार्मिक आस्था से जुडी. रामेश्वरम के सागर में नहाने वालों की भीड आज भी कम नहीं है. सुविधाओं में वृद्धि से यात्रियों की संख्या बढी है. (सुविधाओं की वजह से ही) तट पर फारिग होने की घटनाएं कम हैं पर सागर का पानी उतना ही नमकीन है.जाने वाला सोचता है कि इतनी दूर से एक ही बार तो आया हूँ, अच्छा बुरा मै भी कर लूं. श्रद्धा न सही औपचारिकता ही सही! हमारेदेश में तो पर्यटन ही धर्म के सहारे होता है. इस विषय में मै लिख चुका हूँ. यहां बाबा रामदेव की बात उठी है. मैं भी उनका पूरा सम्मान और समर्थन करता हूँ.परंतु ,यह भी निवेदन है कि कोई भी अपने आप में समग्र नहीं होता. स्वामी रामदेव भी किसीको समग्र संतुष्टि नहीं दे सकते. देशाटन का अपना अलग महत्त्व है, इससे जो ज्ञानवर्धन, मानसिक संतोष और आनन्द मिलता है ,उसका कोई विकल्प नहीं है. यह बात अलग है कि देश के प्रमुख पर्यटन स्थल धार्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है इस लिए घालमेल की स्थिति है. आवश्यकता धर्म को झुठलाने की नहीं .पोंगापंथ को धकियाने की है. अब आडम्बरों और धार्मिक ठेकेदारी को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
ReplyDeleteaap bilkul sahi keh rahe hain, sir.
ReplyDeletesamajh me nahin aata ki sab samajhdar log dharm ka naam aate hi apne aankh, naak, muh aur kaan band kyun kar lete hain!!!