वे जो धर्मनिरपेक्ष हैं...
अभी थोड़े दिनों पहले मुझे गांव जाना पड़ा. गांव यानी गोरखपुर मंडल के महराजगंज जिले में फरेन्दा कस्बे के निकट बैकुंठपुर. हमारे क्षेत्र में एक शक्तिपीठ है.. मां लेहड़ा देवी का मन्दिर. वर्षों बाद गांव गया था तो लेहड़ा भी गया. लेहड़ा वस्तुत: रेलवे स्टेशन है और जिस गांव में यह मंदिर है उसका नाम अदरौना है. अदरौना यानी आर्द्रवन में स्थित वनदुर्गा का यह मन्दिर महाभारतकालीन बताया जाता है. ऐसी मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने राजा विराट की गाएं भी चराई थीं और गायों को चराने का काम उन्होंने यहीं आर्द्रवन में किया था और उसी वक़्त द्रौपदी ने मां दुर्गा की पूजा यहीं की थी तथा उनसे पांडवों के विजय की कामना की थी. हुआ भी यही.
समय के साथ घने जंगल में मौजूद यह मंदिर गुमनामी के अंधेरे में खो गया. लेकिन फिर एक मल्लाह के मार्फ़त इसकी जानकारी पूरे क्षेत्र को हुई. मैंने जबसे होश संभाला अपने इलाके के तमाम लोगों को इस जगह पर मनौतियां मानते और पूरी होने पर दर्शन-पूजन करते देखा है. ख़ास कर नवरात्रों के दौरान और मंगलवार के दिन तो हर हफ़्ते वहां लाखों की भीड़ होती है और यह भीड़ सिर्फ़ गोरखपुर मंडल की ही नहीं होती, दूर-दूर से लोग यहां आते हैं. इस भयावह भीड़ में भी वहां जो अनुशासन दिखता है, उसे बनाए रख पाना किसी पुलिस व्यवस्था के वश की बात नहीं है. यह अनुशासन वहां मां के प्रति सिर्फ़ श्रद्धा और उनके ही भय से क़ायम है.
ख़ैर, मैं जिस दिन गया, वह मंगल नहीं, रविवार था. ग़नीमत थी. मैंने आराम से वहीं बाइक लगाई, प्रसाद ख़रीदा और दर्शन के लिए बढ़ा. इस बीच एक और घटना घटी. जब मैं प्रसाद ख़रीद रहा था, तभी मैंने देखा एक मुसलमान परिवार भी प्रसाद ख़रीद रहा था. एक मुल्ला जी थे और उनके साथ तीन स्त्रियां थीं. बुर्के में. एकबारगी लगा कि शायद ऐसे ही आए हों, पर मन नहीं माना. मैंने ग़ौर किया, उन्होंने प्रसाद, कपूर, सिन्दूर, नारियल, चुनरी, फूल...... वह सब ख़रीदा जिसकी ज़रूरत विधिवत पूजा के लिए होती है. जान-बूझ कर मैं उनके पीछे हो लिया. या कहें कि उनका पीछा करने का पाप किया. मैंने देखा कि उन्होंने पूरी श्रद्धापूर्वक दर्शन ही नहीं किया, शीश नवाया और पूजा भी की. नारियल फोड़ा और रक्षासूत्र बंधवाया. फिर वहां मौजूद अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के आगे भी हाथ जोड़े और सबके बाद भैरो बाबा के स्थान पर भी गए. आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया. मैंने मुल्ला जी से उनका नाम पूछ लिया और उन्होने सहज भाव से अपना नाम मोहम्मद हनीफ़ बताया. इसके आगे मैंने कुछ पूछा नहीं, क्योंकि पूछने का मतलब मुझे उनका दिल दुखाना लगा. वैसे भी उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखने की ग़लती तो मैं कर ही चुका था.
बाद में मुझे याद आया कि यह दृश्य तो शायद मैं पहले भी कई बार देख चुका हूं. इसी जगह क़रीब 10 साल पहले मैं एक ऐसे मुसलमान से भी मिल चुका हूं, जो हर मंगलवार को मां के दर्शन करने आते थे. उन्होंने 9 मंगल की मनौती मानी थी, अपने खोये बेटे को वापस पाने के लिए. उनका बेटा 6 महीने बाद वापस आ गया था तो उन्होंने मनौती पूरी की. मुझे अब उनका नाम याद नहीं रहा, पर इतना याद है कि वह इस्लाम के प्रति भी पूरे आस्थावान थे. तब मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. मोहर्रम के कई दिन पहले ही हमारे गांव में रात को ताशा बजने का क्रम शुरू हो जाता था और उसमें पूरे गांव के बच्चे शामिल होते थे. मैं ख़ुद भी नियमित रूप से उसमें शामिल होता था. हमारे गांव में केवल एक मुस्लिम परिवार हैं, पर ताजिये कई रखे जाते थे और यहां तक कि ख़ुद मुस्लिम परिवार का ताजिया भी एक हिन्दू के ही घर के सामने रखा जाता था. गांव के कई हिन्दू लड़के ताजिया बाबा के पाएख बनते थे. इन बातों पर मुझे कभी ताज्जुब नहीं हुआ. क्यों? क्योंकि तब शायद जनजीवन में राजनीति की बहुत गहरी पैठ नहीं हुई थी.
इसका एहसास मुझे तीसरे ही दिन हो गया, तब जब मैंने देवबन्द में जमीयत उलेमा हिन्द का फ़तवा सुना और यह जाना कि प्रकारांतर से हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम उसे सही ठहरा आए हैं. यह अलग बात है कि अब सरकारी बयान में यह कहा जा रहा है कि जिस वक़्त यह फ़तवा जारी हुआ उस वक़्त चिदम्बरम वहां मौजूद नहीं थे, पर जो बातें उन्होंने वहां कहीं वह क्या किसी अलगाववादी फ़तवे से कम थीं? अब विपक्ष ने इस बात को लेकर हमला किया और ख़ास कर मुख्तार अब्बास नक़वी ने यह मसला संसद में उठाने की बात कही तो अब सरकार बगलें झांक रही है. एक निहायत बेवकूफ़ी भरा बयान यह भी आ चुका है कि गृहमंत्री को फ़तवे की बात पता ही नहीं थी, जो उनके आयोजन में शामिल होने से एक दिन पूर्व ही जारी किया जा चुका था और देश भर के अख़बारों में इस पर ख़बरें छप चुकी थीं. क्या यह इस पूरी सरकार की ही काबिलीयत पर एक यक्षप्रश्न नहीं है? क्या हमने अपनी बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में सौंप रखी है, जिनका इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि देश में कहां-क्या हो रहा है? अगर हां तो क्या यह हमारे-आपके गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा नहीं है? आख़िर सरकार हमने चुनी है.
अभी हाल ही में एक और बात साफ़ हुई. यह कि जनवरी में मुसलमानों को बाबा रामदेव से बचने की सलाह देने वाले दारुल उलूम के मंच पर उनके आते ही योग इस्लामी हो गया. यह ज़िक्र मैं सिर्फ़ प्रसंगवश नहीं कर रहा हूं. असल में इससे ऐसे संगठनों का असल चरित्र उजागर होता है. इन्हीं बातों से यह साफ़ होता है कि राजनेताओं और धर्मध्वजावाहकों - दोनों की स्थिति एक जैसी है. देश और समुदाय इनके लिए सिर्फ़ साधन हैं. ऐसे साधन जिनके ज़रिये ये अपना महत्व बनाए रख सकते हैं. मुझे मुख़्तार अब्बास नक़वी की भावना या उनकी बात और इस मसले को लेकर उनकी गंभीरता पर क़तई कोई संदेह नहीं है, लेकिन उनकी पार्टी भी इसे लेकर वाकई गंभीर है, इस पर संदेह है. जिस बात के लिए भाजपा ने जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया, वही पुण्यकार्य वाचिक रूप में वर्षों पहली आडवाणी जी कर चुके हैं. फिर भी अभी तक वह पार्टी में बने हुए हैं, अपनी पूरी हैसियत के साथ. हालांकि उनको रिटायर करने की बात भी कई बार उठ चुकी है. फिर क्या दिक्कत है? आख़िर क्यों उन्हें बाहर नहीं किया जाता? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि आख़िर क्यों आडवाणी और चिदम्बरम जैसे महानुभावों पर विश्वास किया जाता है? आख़िर क्यों ऐसे लोगों को फ़तवा जारी करने का मौक़ा दिया जाता है और ऐसे देशद्रोही तत्वों के साथ गलबहियां डाल कर बैठने और मंच साझा करने वालों को देश का महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपा जाता है? क्या सौहार्द बिगाड़ने वाले ऐसे तत्वों के साथ बैठने वालों का विवादित ढांचा ढहाने वालों की तुलना में ज़रा सा भी कम है? क्या मेरे जैसे हिन्दू या मोहम्मद हनीफ़ जैसे मुसलमान अगर कल को राष्ट्र या मनुष्यता से ऊपर संप्रदाय को मानने लगें तो उसके लिए ज़िम्मेदार आख़िर कौन होगा? क्या चिदम्बरम जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष इसके लिए उलेमाओं और महंतों से कुछ कम ज़िम्मेदार हैं?
समय के साथ घने जंगल में मौजूद यह मंदिर गुमनामी के अंधेरे में खो गया. लेकिन फिर एक मल्लाह के मार्फ़त इसकी जानकारी पूरे क्षेत्र को हुई. मैंने जबसे होश संभाला अपने इलाके के तमाम लोगों को इस जगह पर मनौतियां मानते और पूरी होने पर दर्शन-पूजन करते देखा है. ख़ास कर नवरात्रों के दौरान और मंगलवार के दिन तो हर हफ़्ते वहां लाखों की भीड़ होती है और यह भीड़ सिर्फ़ गोरखपुर मंडल की ही नहीं होती, दूर-दूर से लोग यहां आते हैं. इस भयावह भीड़ में भी वहां जो अनुशासन दिखता है, उसे बनाए रख पाना किसी पुलिस व्यवस्था के वश की बात नहीं है. यह अनुशासन वहां मां के प्रति सिर्फ़ श्रद्धा और उनके ही भय से क़ायम है.
ख़ैर, मैं जिस दिन गया, वह मंगल नहीं, रविवार था. ग़नीमत थी. मैंने आराम से वहीं बाइक लगाई, प्रसाद ख़रीदा और दर्शन के लिए बढ़ा. इस बीच एक और घटना घटी. जब मैं प्रसाद ख़रीद रहा था, तभी मैंने देखा एक मुसलमान परिवार भी प्रसाद ख़रीद रहा था. एक मुल्ला जी थे और उनके साथ तीन स्त्रियां थीं. बुर्के में. एकबारगी लगा कि शायद ऐसे ही आए हों, पर मन नहीं माना. मैंने ग़ौर किया, उन्होंने प्रसाद, कपूर, सिन्दूर, नारियल, चुनरी, फूल...... वह सब ख़रीदा जिसकी ज़रूरत विधिवत पूजा के लिए होती है. जान-बूझ कर मैं उनके पीछे हो लिया. या कहें कि उनका पीछा करने का पाप किया. मैंने देखा कि उन्होंने पूरी श्रद्धापूर्वक दर्शन ही नहीं किया, शीश नवाया और पूजा भी की. नारियल फोड़ा और रक्षासूत्र बंधवाया. फिर वहां मौजूद अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के आगे भी हाथ जोड़े और सबके बाद भैरो बाबा के स्थान पर भी गए. आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया. मैंने मुल्ला जी से उनका नाम पूछ लिया और उन्होने सहज भाव से अपना नाम मोहम्मद हनीफ़ बताया. इसके आगे मैंने कुछ पूछा नहीं, क्योंकि पूछने का मतलब मुझे उनका दिल दुखाना लगा. वैसे भी उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखने की ग़लती तो मैं कर ही चुका था.
बाद में मुझे याद आया कि यह दृश्य तो शायद मैं पहले भी कई बार देख चुका हूं. इसी जगह क़रीब 10 साल पहले मैं एक ऐसे मुसलमान से भी मिल चुका हूं, जो हर मंगलवार को मां के दर्शन करने आते थे. उन्होंने 9 मंगल की मनौती मानी थी, अपने खोये बेटे को वापस पाने के लिए. उनका बेटा 6 महीने बाद वापस आ गया था तो उन्होंने मनौती पूरी की. मुझे अब उनका नाम याद नहीं रहा, पर इतना याद है कि वह इस्लाम के प्रति भी पूरे आस्थावान थे. तब मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. मोहर्रम के कई दिन पहले ही हमारे गांव में रात को ताशा बजने का क्रम शुरू हो जाता था और उसमें पूरे गांव के बच्चे शामिल होते थे. मैं ख़ुद भी नियमित रूप से उसमें शामिल होता था. हमारे गांव में केवल एक मुस्लिम परिवार हैं, पर ताजिये कई रखे जाते थे और यहां तक कि ख़ुद मुस्लिम परिवार का ताजिया भी एक हिन्दू के ही घर के सामने रखा जाता था. गांव के कई हिन्दू लड़के ताजिया बाबा के पाएख बनते थे. इन बातों पर मुझे कभी ताज्जुब नहीं हुआ. क्यों? क्योंकि तब शायद जनजीवन में राजनीति की बहुत गहरी पैठ नहीं हुई थी.
इसका एहसास मुझे तीसरे ही दिन हो गया, तब जब मैंने देवबन्द में जमीयत उलेमा हिन्द का फ़तवा सुना और यह जाना कि प्रकारांतर से हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम उसे सही ठहरा आए हैं. यह अलग बात है कि अब सरकारी बयान में यह कहा जा रहा है कि जिस वक़्त यह फ़तवा जारी हुआ उस वक़्त चिदम्बरम वहां मौजूद नहीं थे, पर जो बातें उन्होंने वहां कहीं वह क्या किसी अलगाववादी फ़तवे से कम थीं? अब विपक्ष ने इस बात को लेकर हमला किया और ख़ास कर मुख्तार अब्बास नक़वी ने यह मसला संसद में उठाने की बात कही तो अब सरकार बगलें झांक रही है. एक निहायत बेवकूफ़ी भरा बयान यह भी आ चुका है कि गृहमंत्री को फ़तवे की बात पता ही नहीं थी, जो उनके आयोजन में शामिल होने से एक दिन पूर्व ही जारी किया जा चुका था और देश भर के अख़बारों में इस पर ख़बरें छप चुकी थीं. क्या यह इस पूरी सरकार की ही काबिलीयत पर एक यक्षप्रश्न नहीं है? क्या हमने अपनी बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में सौंप रखी है, जिनका इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि देश में कहां-क्या हो रहा है? अगर हां तो क्या यह हमारे-आपके गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा नहीं है? आख़िर सरकार हमने चुनी है.
अभी हाल ही में एक और बात साफ़ हुई. यह कि जनवरी में मुसलमानों को बाबा रामदेव से बचने की सलाह देने वाले दारुल उलूम के मंच पर उनके आते ही योग इस्लामी हो गया. यह ज़िक्र मैं सिर्फ़ प्रसंगवश नहीं कर रहा हूं. असल में इससे ऐसे संगठनों का असल चरित्र उजागर होता है. इन्हीं बातों से यह साफ़ होता है कि राजनेताओं और धर्मध्वजावाहकों - दोनों की स्थिति एक जैसी है. देश और समुदाय इनके लिए सिर्फ़ साधन हैं. ऐसे साधन जिनके ज़रिये ये अपना महत्व बनाए रख सकते हैं. मुझे मुख़्तार अब्बास नक़वी की भावना या उनकी बात और इस मसले को लेकर उनकी गंभीरता पर क़तई कोई संदेह नहीं है, लेकिन उनकी पार्टी भी इसे लेकर वाकई गंभीर है, इस पर संदेह है. जिस बात के लिए भाजपा ने जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया, वही पुण्यकार्य वाचिक रूप में वर्षों पहली आडवाणी जी कर चुके हैं. फिर भी अभी तक वह पार्टी में बने हुए हैं, अपनी पूरी हैसियत के साथ. हालांकि उनको रिटायर करने की बात भी कई बार उठ चुकी है. फिर क्या दिक्कत है? आख़िर क्यों उन्हें बाहर नहीं किया जाता? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि आख़िर क्यों आडवाणी और चिदम्बरम जैसे महानुभावों पर विश्वास किया जाता है? आख़िर क्यों ऐसे लोगों को फ़तवा जारी करने का मौक़ा दिया जाता है और ऐसे देशद्रोही तत्वों के साथ गलबहियां डाल कर बैठने और मंच साझा करने वालों को देश का महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपा जाता है? क्या सौहार्द बिगाड़ने वाले ऐसे तत्वों के साथ बैठने वालों का विवादित ढांचा ढहाने वालों की तुलना में ज़रा सा भी कम है? क्या मेरे जैसे हिन्दू या मोहम्मद हनीफ़ जैसे मुसलमान अगर कल को राष्ट्र या मनुष्यता से ऊपर संप्रदाय को मानने लगें तो उसके लिए ज़िम्मेदार आख़िर कौन होगा? क्या चिदम्बरम जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष इसके लिए उलेमाओं और महंतों से कुछ कम ज़िम्मेदार हैं?
देवबंदियों का अक्ल तो खराब है ही , इधर विपक्ष वालों को भी अपनी दुकान सजाने के मौका मिल गया है...वैसे चिदंबरम साहब के एक से एक किस्से सुनने को आ रहे हैं...इष्टदेव जी इनका कुछ भी नहीं होने वाला है...बेमतलब की बातें करके लोगों को एक बार फिर भड़काने में लगे हुये है...चिदंबरम साहब को वेदांता कंपनी के हित साधने की सुध रहती है लेकिन यह ख्याल नहीं रहता है कि किस मंच पर बैठ कर वह क्या बक रहे हैं...ये लोग देश का कोढ़ बन गये हैं, और स्वस्थ्य समाज में भी इसे फैलाने में लगे हैं...धर्मनिरपेक्षता को लेकर आज तक मैं कंफ्यूज हूं...चिंदरम जैसे लोगों के अक्ल ठिकाने पर लाने की जरूरत है...देवबंदियों के पास भी कोई काम धाम नहीं बचा है..उलुल जुलुल फतवे जारी करके बिना मतलब के समाज में टेंशन ला रहे हैं...सब दुकानदारी का मामला है, बस पुड़िया बेच रहे हैं।
ReplyDeleteसिद्धार्थनगर का निवासी हूँ और मैं भी इस मंदिर का
ReplyDeleteदर्शन कर चूका हूँ | काफी मान्यता है इस मंदिर की
यादें ताजा कराने के लिए धन्यवाद
मन्दिर के दर्शन कराने के लिए आभार!
ReplyDeleteएक गंभीर तथ्य को इतने सुन्दर और सार्थक ढंग से सामने रखने के लिए आपका साधुवाद !!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लगा आपका यह आलेख पढ़कर...शब्दशः सहमत हूँ आपके हर बात से...आज भी यदि सांप्रदायिक सौहाद्र कायम है तो सिर्फ आम जनता के सहिष्णुता के कारण ही..वर्ना तो धर्मध्वजधारी और राजनेता अपने भर कोई कोर कसर नहीं छोड़ते धर्म जाति भाषा क्षेत्र के नाम पर लोगों को लड़ने भिड़ने में...वस्तुतः धर्म तो इनके लिए साधन भर है,जिसमे मनुष्य समुदाय को बाँट ये अपनी स्वार्थ की रोटी सेंकते हैं...
विचारोत्तेजक एवं सारगर्भित पोस्ट। इससे ज्यादा कुछ भी कहने में असमर्थ, डर है गलत मतलब न निकाल लिया जाए।
ReplyDelete------------------
परा मनोविज्ञान-अलौकिक बातों का विज्ञान।
ओबामा जी, 70 डॉलर में लादेन से निपटिए।
गांवों का भोला-भाला होरी कहां जानता है सियासत की ज़बान...अब तक इतनी नफ़रत उसमें नहीं घुली कि बटेसर बाबा को, माता का थान और गांव-गढ़ी की मोहब्बत भुला जाए. अच्छा लिखा आपने.
ReplyDeleteआप और हनीफ़ दोनों धर्म से ऊपर कैसे उठे हैं ?
ReplyDeleteवन्दे मातरम के प्रथम दो पद राष्ट्र गान के रूप में मान्य हुए हैं । इन पदों के ठीक बाद वाले पद की शुरुआत ,’तुमी दुर्गा..’ से होती है । वन्दे मातरम गाते हुए फांसी पर चढ़ने वाले जमाने में तथाकथित हिन्दुत्ववादी क्या कर रहे थे? ’काला पानी’ से छूटने के लिए एक-दो-नहीं पाँच बार अंग्रेज सरकार को माफ़ीनामा लिख रहे थे ।
भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध कर वाइस रॉय की कार्यकारिणी में शामिल हो रहे थे ।
आपकी शुरूआती बातों से बड़ा अच्छा लगा क्योंकि यही हमारा पूर्व का माहौल रहा है और इसे बने रहने में ही सब की भलाई थी. बाद में की गयी बातें दिल को दुखाती हैं.
ReplyDeleteहम अभी अभी ही अस्पताल से आये हैं. हमारी अर्धांगिनी जो गठियावात की मरीज भी है, अपनी जंघा की हड्डी तुड़वा बैठी है. आज ही शल्यक्रिया संपादित हुई है. प्लेट डाल कर नट बोल्ट से कस दिया गया है. अब कुछ हफ्ते हम आप सब से दूर रहने के लिए मजबूर हैं.
मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि इस समय कोई धर्म निरपेक्ष है तो वह कोई अनपढ ही होगा. पढने का मतलब तो तर्क शक्ति के विकास से होता है और फिर प्रायः धर्म की जगह पाखन्ड आसन लगा लेता है. बढता आतंकवाद इस बात का सबूत है. अब कहा क्या जाए? देवबन्द तो फतवा उत्पादक उद्योग है ही, हमारे राजनेता कौन से कम हैं?इन्हें तो राजनीति की अपनी दुकान चलानी है.वोट के बदले तरह – तरह के राजनीतिक उत्पाद बेचना है. अब ग्राहक की जाति धर्म या पेशे से दुकान दार को क्या लेना देना? फिर यह समस्या तो हमें विरासत में मिली है. आज तो जमाना ही खराब है, आप उस समय के बारे में क्या कहेंगे? दीमक तो जड में डाल दिया गया था. बाप रे, इतना कंफ्युजन? एक देश के तीन – तीन नाम, दो- दो राष्ट्र गान (राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत का अंतर इस बन्दे को भी पता है), दो_दो सदन ! अरे किसी एक पर तो सहमत हो जाते ! प्रश्न तो बहुत महत्व का उठाया आपने. देखते हैं .
ReplyDeleteआपने बहुत ही सीधी और सरल बात को दिल से कहा है. आप जैसे धर्मिन पूरे देश मे भरे पडे है जो बिन किसी झन्डे के और बिना किसी डन्डे के धर्म निरपेक्ष थे, है और रहेगे. लेकिन किसी राजनीतिक दल को ले लो जिसे आजमा के देखो अमन का दुश्मन नज़र आता है.
ReplyDeleteउपस्थित।
ReplyDeleteराजनीति ने बिगाड़ा नहीं तो यहां के बन्दे थे बड़े काम के!
ReplyDeleteभाई अफ़लातून जी!
ReplyDeleteजहां तक आपका पहला सवाल है कि हम और हनीफ़ दोनों धर्म से ऊपर कैसे उठे, इसके जवाब में सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूं कि मैं कभी धर्म से ऊपर नहीं उठा और न मुझे ऐसा लगता है कि हनीफ़ जी ही धर्म से ऊपर उठे होंगे. अगर हम या हनीफ़ जी धर्म से ऊपर उठे होते तो दुर्गा माता के मन्दिर जाने की क्या ज़रूरत होती? हां, पंथ या कहें संप्रदाय की धारणा से हम ज़रूर मुक्त हैं. मुझे लगता है कि हर व्यक्ति जिसकी थोड़ी-बहुत आस्था ईश्वर में है वह सम्प्रदाय के पूर्वाग्रह से मुक्त है. क्योंकि ईश्वर एक है और दुनिया का हर रंग-रूप उसकी ही अभिव्यक्ति है. अगर कोई धोती-कुर्ता पहनने वाले पिता के प्रति आस्थावान है , तो उसी के पैंट-शर्ट पहन लेने पर वह उसे गाली कैसे दे सकता है? किसी दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय का विरोध या उसके प्रतीकों का अपमान मुझे ऐसा ही लगता है. क्योंकि हर धार्मिक मत ईश्वर को परमपिता कहता है. मेरी हनीफ जी से इस मसले पर कोई बातं तो नहीं हुई, पर मुझे लगता है कि शायद वह भी ऐसा ही सोचते होंगे. अलबत्ता आपकी दूसरी बात मैं ठीक से समझ नहीं पाया. पर एक आग्रह ज़रूर करना चाहूंगा. वही जो बहुत पहले कवि रघुवीर सहाय प्रश्न के रूप में उठा चुके हैं:
फटा सुथन्ना पहने जिसके गुन हरचरना गाता है
राष्ट्रगान में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है?
मेरा ख़याल है इस 'भारत भाग्य विधाता' और 'गुरुदेव-महात्मा प्रकरण' पर भी काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है. इसलिए इसे तो समझ ही गए होंगे. जन-गण-मन का भी सिर्फ़ एक ही पद है जिसे हम गाते हैं. इसके बाक़ी चार पदों की चर्चा नहीं होती. यहां तक कि 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ...' के भी एक शेर का जिक्र नहीं किया जाता. पर उस भारतभाग्य विधाता से तो बेहतर है कि 'वन्देमातरम' गाया जाए और जितना गाया जाता है उतने में दुर्गा की स्तुति तो नहीं की जाती. अगर की भी जाए तो दुर्गा की स्तुति जॉर्ज पंचम से तो बेहतर है. रही बात हिन्दुत्ववादियों की है तो उनके बारे में किसी सवाल का जवाब उनसे ही लिया जाना चाहिए. मैं हिन्दुत्ववादी तो हूं नहीं, पर इस्लामवादी भी नहीं हूं. वैसे यह फोरम सबके लिए खुला है. हिन्दुत्ववादी या इस्लामवादी या ईसाइयतवादी या जो कोई भी वादी अथवा ग़ैर वादी चाहे यहां अपने मत (सहमति या असहमति) शालीन भाषा में दर्ज करा सकता है.
@ज्ञानदत्त जी!
ReplyDeleteबिलकुल सही बात कही सर आपने!
जी हां, यह गलतफहमी पता न कब दूर होगी कि यह जो "धर्म और आस्था' है न उनके अर्थ जनता और राजनेताओं के लिए एक जैसे हैं। आप ने जिस मुस्लिम शख्स को गोरखपुर में हिन्दू मंदिर में देखा वह असल धर्मनिरपेक्षता है और हम सभी कांगे्रस समेत तमाम पार्टियों के जिन नेताओं को देख रहे वे वास्तव में अधर्मनिरपेक्षता के दूत हैं। लेकिन सच यह भी है कि हम इस फर्क को समझ नहीं पाते। जब हमारे पास मौका होता है, हम आसानी से गुमराह कर दिये जाते हैं। राजनीति में सुचिता ! पता नहीं इस देश में कभी आयेगी भी कि नहीं। धन्यवाद, सुंदर सच लिखने के लिए।
ReplyDeletebahut hee sundar aur saarthak aalekh.
ReplyDeletebakee kee tippaneeyon me to sab kaha hee ja chuka hai .kafee sarthak . ek tippanee ke pratiuttar me aapne baat aur saaf kar dee hai .
aapke sahasik lekhan par badhayee aur shubhkamnayen .
इस्टदेव जी यह जो आपने देखा यह वास्तव में हमारी संस्कृति की थाती है। ब्रज के रसिया बांके बिहारी जी की जो आप बेहतरीन पोशाकें देखते हैं यह सब मुसलमान कारीगरों द्वारा तैयार की जाती हैं। मैने खुद कई मुस्लिम परिवारों को औलाद की खातिर हनुमान जी के आगे नतमस्तक होते देखा है ठीक वैसे ही जैसे आगरा में शेरजंग वाले बाबा और अजमेर श्ारीफ में हिंदुओं को सजता करते देखा है। यह धर्म की दीवार तथाकथित नेताओं की देने है। इससे उनके राजनीतिक स्वार्थ पूरे होते हैं।
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