निठारीकरण हो गया
कर दिया जो वही आचरण हो गया ।
लिख दिया जो वही व्याकरण हो गया ।
गोश्त इन्सान का यूं महकने लगा
जिंदगी का निठारीकरण हो गया ।
क्योंकि घर में ही थीं उसपे नज़रें बुरी
द्रौपदी के वसन का हरण हो गया ।
उस सिया को बहुत प्यार था राम से
पितु प्रतिज्ञा ही टूटी , वरण हो गया ।
'राढ़ी ' वैसे तो कर्ता रहा वाक्य का
वाच्य बदला ही था, मैं करण हो गया ।
कल भगीरथ से गंगा बिलखने लगी
तेरे पुत्रों से मेरा क्षरण हो गया । ।
बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है!
ReplyDeleteबधाई!
गोश्त इन्सान का यूं महकने लगा
ReplyDeleteजिंदगी का निठारीकरण हो गया ।
बहुत खूबसूरती से कही बात
बहुत ही सुन्दर और प्रासंगिक.
ReplyDeleteउधर आपने लिखा, बहुत बहुत खूब
ReplyDeleteइधर मेरे दिल का हरण हो गया !!
..बार-बार पढ़के संतुलन खो गया ?
vaah raarhee jee.vyawastha kee visangatiyon par kyaa sateek dhang se piroya hai.
ReplyDeleteअद्भुत है यह रचना. जितनी बार पढ़ी जाए, नई ही लगेगी. आज के आदमी की पीड़ा बिलकुल सही पहचान है.
ReplyDeletebahut behtareen kavita. Bhavnatmak.
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