महंगाई को लेकर भूतियाये लालू
आलोक नंदन
लालू यादव महंगाई को लेकर भूतियाये हुये हैं। 28 जनवरी को चक्का जाम आंदोलन का आह्वान करते फिर रहे हैं। (यदि बिहार में इसी तरह से ठंड रही तो उनका यह चक्का जाम आंदोलन वैसे ही सफल हो जाएगा)। बिहार में जहां-तहां जनसभा करके लालू यादव लोगों को ज्ञान दे रहे हैं कि जब जब कांग्रेस सत्ता में आई है, तब तब कमरतोड़ महंगाई लाई है। घुलाटीबाजी में लालू का जवाब नहीं। जब तक कांग्रेस के सहारे इनको सत्ता का स्वाद मिलता रहा तब तक कांग्रेस के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोले। वैस लालू यादव ने अपना पोलिटिकल कैरियर कांग्रेस के खिलाफ भाषणबाजी करके ही बनाया था। राजनीति में परिवारवाद के खिलाफ थूथन उठाकर खूब बोलते थे। सत्ता में आने के बाद इन्होंने राजनीति में जो परिवारवाद लाया, उस पर तो मोटा मोटा थीसीस तैयार किया जा सकता है।
दोबारा सत्ता में आने का सपना देखने वाले बड़बोले लालू यादव लोगों से कहते फिर रहे हैं कि वे जब सत्ता में आएंगे फूंक मारकर महंगाई को उड़ा देंगे, जैसे महंगाई कोई बैलून का गुब्बारा है। वैसे बोलने में क्या जाता है, मुंह है कुछ भी बोलते रहिये। प्रोब्लम होता है बंद से।
बंद का लफड़ा भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ शुरु किया था। चूंकि उस समय शासक अंग्रेज थे, इसलिये बंदकारी भाई लोग खुद अपना काम बंद करते थे और दूसरों को काम बंद करने के लिए प्रेरित करते थे। अंग्रेजों का डंडा बंदकारियों पर बरसने के लिए हमेशा तैयार रहता था। स्वतंत्रता के बाद बंद का कारोबार छुटपुट तरीके से चलता रहा। जेपी के समय यह थोड़ा व्यापक रूप से सामने आया। लालू यादव जेपी के चेला थे, (बाद में भले ही जेपी से सिद्दांतों को घोरकर पी गये) अत: बंद के तौर तरीको को कुछ ज्याद ही आत्मसात कर लिया। बिहार में सत्ता में आने के बाद भी गरीब रैली और गरीब रैला कराते रहे। सरकारी तंत्र का इस्तेमाल जमकर किया। स्मरण करने योग्य है कि गरीब रैली और रैला के दौरान पूरे बिहार में स्वत ही बंद जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। राजधानी पटना का तो कबाड़ा ही निकल जाता था। अब सत्ता से बाहर धकियाये जाने के बाद एक बार फिर वह बंद- बुंद की बात कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि क्या बिहार को बंद कर देने से महंगाई पर रोक लग जाएगी ? बंद के दौरान तमाम तरह के दुकानदारों के साथ जोर जबरदस्ती आम हो जाता है। गांधी जी का बंद स्वप्रेरित होता था। यानि की हम काम नहीं करेंगे। जबकि विगत में देख चुके हैं कि लालू यादव का रेलम रेला में खूब हुड़दंगई होता रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनतंत्र में अपनी बात को कहने के लिए बंद एक स्वाभाविक हथियार है। जनतंत्र का मैकेनिज्म यूरोप और अमेरिका में काफी मजबूत है। अपनी बातों को कहने के लिए लोगों को बंद का सहारा नहीं लेना पड़ता है। हाथों में बैनर लेकर लोग सड़क पर उतर आते हैं, और वहां की सरकारें भी इस तरह के प्रदर्शनों को गंभीरता से लेती हैं। सामान्य जनजीवन को डिस्टर्ब नहीं किया जाता है। अचानक फूट पड़ने वाली स्वाभाविक हिंसा की बात अलग है।
यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि आमजनता के हित के नाम पर आम जनता को ही परेशान किया जाता है। लालू यादव की शैली अब पुरानी पड़ चुकी है, बिहार के लोगों की मानसिकता में निखार आया है। महंगाई को लेकर ‘कामन विल’ चिंतित है, लेकिन इसके लिए गैरजरूरी तरीकों को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। राजधानी पटना से इतर दूर दराज के गांवों में कंपकंपी के बावजूद लालू के जनसभाओं में लोगों की भीड़ तो जुट रही हैं, लेकिन साथ ही बंद के औचित्य पर चौतरफा आलोचनात्मक तरीके से चर्चा भी हो रही है। लोगबाग लालू यादव को सुन तो रहे हैं, लेकिन इस बंद में सक्रिय भागीदारी से बचने की बात भी कर रहे हैं। बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले लाल बुझकड़ों का कहना है कि महंगाई को लेकर लालू यादव अपने कार्यकर्ताओं को फेरते रहने की कोशिश कर रहे हैं ताकि आगामी चुनाव उनका कदम ताल बन सके।
इस बार लालू यादव का नारा है, रोको महंगाई, बांधों दाम नहीं तो होगा चक्का जाम। अब चक्का जाम करने का अर्थ होगा सीधे-सीधे मजदूर और दैनिक रोजगार करने वाले लोगों की पेट पर लात मारना। सिर्फ पटना शहर में रिक्शेवाले और आटोवाले बहुत बड़ी तादाद में है। आटोवाले तो लोकल पटना के ही हैं, जबकि अधिकतर रिक्शेवाले दूर दराज के गांवों और कस्बों से आये हुये हैं। अब यदि चक्का जाम होता है तो इनकी दिहाड़ी निश्चित रूप से मारी जाएगी। उस दिन कमाई तो दूर इन्हें अपनी जेब से खुराकी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। अपने घर का आंटा गिल करके उन्हें दिन पर बैठना पड़ेगा। कमोबेश पूरे बिहार के प्रत्येक जिलों और कस्बों की स्थिति यही है। इसी तरह सब्जी और खाने पीने की अन्य चीजें भी राजधानी पटना में विभिन्न वाहनों से पहुंचती हैं। बंद के दौरान राजद कार्यकर्ता कितने अनुशासित रह पाते हैं यह तो समय ही बताएगा। अब सवाल उठता है कि यह बंद किसके लिए है? इसका नकारात्मक असर सीधे आम जनता पर देखने को मिलेगा।
लालू बोल रहे हैं कि भूख से अब तक सूबे में पांच सौ लोगों ने दम तोड़ दिया है। थोड़ी देर के लिए लालू के इस आंकड़े पर यकीन करने के साथ ही उनसे यह पूछा जा सकता है कि क्या आप बंद करके इस आंकड़े में इजाफा करने की जुगत में है? इस बंद से निसंदेह लालू के कीचन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। उनके पत्नी और बाल बच्चों को समय पर ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर मिल जाएंगे। लेकिन पटना सहित विभिन्न जिलों में दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति एक दिन के लिए जरूर हिल जाएगी।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महंगाई एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों को पूरा हक है कि वे सरकार को घेरे। लेकिन सरकार को घेरने के चक्कर में जनता की ऐसी की तैसी करने का अधिकार किसी को नहीं है। केंद्र और राज्य सरकार को जनविरोधी बताने वाले लालू यादव खुद जनविरोधी तरीके अख्तियार कर रहे हैं। बदलते समय की मांग है कि ‘राजनीति के लिए राजनीति’ की फिलासफी अब नहीं चलेगी। सही मुद्दों को उठाने का तरीका भी सही होना चाहिये। बंद की प्रवृति को नकारना ही होगा, भले ही इस बंद की भागीदारी का आकार कुछ भी क्यों न हो।
लालू यादव महंगाई को लेकर भूतियाये हुये हैं। 28 जनवरी को चक्का जाम आंदोलन का आह्वान करते फिर रहे हैं। (यदि बिहार में इसी तरह से ठंड रही तो उनका यह चक्का जाम आंदोलन वैसे ही सफल हो जाएगा)। बिहार में जहां-तहां जनसभा करके लालू यादव लोगों को ज्ञान दे रहे हैं कि जब जब कांग्रेस सत्ता में आई है, तब तब कमरतोड़ महंगाई लाई है। घुलाटीबाजी में लालू का जवाब नहीं। जब तक कांग्रेस के सहारे इनको सत्ता का स्वाद मिलता रहा तब तक कांग्रेस के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोले। वैस लालू यादव ने अपना पोलिटिकल कैरियर कांग्रेस के खिलाफ भाषणबाजी करके ही बनाया था। राजनीति में परिवारवाद के खिलाफ थूथन उठाकर खूब बोलते थे। सत्ता में आने के बाद इन्होंने राजनीति में जो परिवारवाद लाया, उस पर तो मोटा मोटा थीसीस तैयार किया जा सकता है।
दोबारा सत्ता में आने का सपना देखने वाले बड़बोले लालू यादव लोगों से कहते फिर रहे हैं कि वे जब सत्ता में आएंगे फूंक मारकर महंगाई को उड़ा देंगे, जैसे महंगाई कोई बैलून का गुब्बारा है। वैसे बोलने में क्या जाता है, मुंह है कुछ भी बोलते रहिये। प्रोब्लम होता है बंद से।
बंद का लफड़ा भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ शुरु किया था। चूंकि उस समय शासक अंग्रेज थे, इसलिये बंदकारी भाई लोग खुद अपना काम बंद करते थे और दूसरों को काम बंद करने के लिए प्रेरित करते थे। अंग्रेजों का डंडा बंदकारियों पर बरसने के लिए हमेशा तैयार रहता था। स्वतंत्रता के बाद बंद का कारोबार छुटपुट तरीके से चलता रहा। जेपी के समय यह थोड़ा व्यापक रूप से सामने आया। लालू यादव जेपी के चेला थे, (बाद में भले ही जेपी से सिद्दांतों को घोरकर पी गये) अत: बंद के तौर तरीको को कुछ ज्याद ही आत्मसात कर लिया। बिहार में सत्ता में आने के बाद भी गरीब रैली और गरीब रैला कराते रहे। सरकारी तंत्र का इस्तेमाल जमकर किया। स्मरण करने योग्य है कि गरीब रैली और रैला के दौरान पूरे बिहार में स्वत ही बंद जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। राजधानी पटना का तो कबाड़ा ही निकल जाता था। अब सत्ता से बाहर धकियाये जाने के बाद एक बार फिर वह बंद- बुंद की बात कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि क्या बिहार को बंद कर देने से महंगाई पर रोक लग जाएगी ? बंद के दौरान तमाम तरह के दुकानदारों के साथ जोर जबरदस्ती आम हो जाता है। गांधी जी का बंद स्वप्रेरित होता था। यानि की हम काम नहीं करेंगे। जबकि विगत में देख चुके हैं कि लालू यादव का रेलम रेला में खूब हुड़दंगई होता रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनतंत्र में अपनी बात को कहने के लिए बंद एक स्वाभाविक हथियार है। जनतंत्र का मैकेनिज्म यूरोप और अमेरिका में काफी मजबूत है। अपनी बातों को कहने के लिए लोगों को बंद का सहारा नहीं लेना पड़ता है। हाथों में बैनर लेकर लोग सड़क पर उतर आते हैं, और वहां की सरकारें भी इस तरह के प्रदर्शनों को गंभीरता से लेती हैं। सामान्य जनजीवन को डिस्टर्ब नहीं किया जाता है। अचानक फूट पड़ने वाली स्वाभाविक हिंसा की बात अलग है।
यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि आमजनता के हित के नाम पर आम जनता को ही परेशान किया जाता है। लालू यादव की शैली अब पुरानी पड़ चुकी है, बिहार के लोगों की मानसिकता में निखार आया है। महंगाई को लेकर ‘कामन विल’ चिंतित है, लेकिन इसके लिए गैरजरूरी तरीकों को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। राजधानी पटना से इतर दूर दराज के गांवों में कंपकंपी के बावजूद लालू के जनसभाओं में लोगों की भीड़ तो जुट रही हैं, लेकिन साथ ही बंद के औचित्य पर चौतरफा आलोचनात्मक तरीके से चर्चा भी हो रही है। लोगबाग लालू यादव को सुन तो रहे हैं, लेकिन इस बंद में सक्रिय भागीदारी से बचने की बात भी कर रहे हैं। बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले लाल बुझकड़ों का कहना है कि महंगाई को लेकर लालू यादव अपने कार्यकर्ताओं को फेरते रहने की कोशिश कर रहे हैं ताकि आगामी चुनाव उनका कदम ताल बन सके।
इस बार लालू यादव का नारा है, रोको महंगाई, बांधों दाम नहीं तो होगा चक्का जाम। अब चक्का जाम करने का अर्थ होगा सीधे-सीधे मजदूर और दैनिक रोजगार करने वाले लोगों की पेट पर लात मारना। सिर्फ पटना शहर में रिक्शेवाले और आटोवाले बहुत बड़ी तादाद में है। आटोवाले तो लोकल पटना के ही हैं, जबकि अधिकतर रिक्शेवाले दूर दराज के गांवों और कस्बों से आये हुये हैं। अब यदि चक्का जाम होता है तो इनकी दिहाड़ी निश्चित रूप से मारी जाएगी। उस दिन कमाई तो दूर इन्हें अपनी जेब से खुराकी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। अपने घर का आंटा गिल करके उन्हें दिन पर बैठना पड़ेगा। कमोबेश पूरे बिहार के प्रत्येक जिलों और कस्बों की स्थिति यही है। इसी तरह सब्जी और खाने पीने की अन्य चीजें भी राजधानी पटना में विभिन्न वाहनों से पहुंचती हैं। बंद के दौरान राजद कार्यकर्ता कितने अनुशासित रह पाते हैं यह तो समय ही बताएगा। अब सवाल उठता है कि यह बंद किसके लिए है? इसका नकारात्मक असर सीधे आम जनता पर देखने को मिलेगा।
लालू बोल रहे हैं कि भूख से अब तक सूबे में पांच सौ लोगों ने दम तोड़ दिया है। थोड़ी देर के लिए लालू के इस आंकड़े पर यकीन करने के साथ ही उनसे यह पूछा जा सकता है कि क्या आप बंद करके इस आंकड़े में इजाफा करने की जुगत में है? इस बंद से निसंदेह लालू के कीचन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। उनके पत्नी और बाल बच्चों को समय पर ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर मिल जाएंगे। लेकिन पटना सहित विभिन्न जिलों में दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति एक दिन के लिए जरूर हिल जाएगी।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महंगाई एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों को पूरा हक है कि वे सरकार को घेरे। लेकिन सरकार को घेरने के चक्कर में जनता की ऐसी की तैसी करने का अधिकार किसी को नहीं है। केंद्र और राज्य सरकार को जनविरोधी बताने वाले लालू यादव खुद जनविरोधी तरीके अख्तियार कर रहे हैं। बदलते समय की मांग है कि ‘राजनीति के लिए राजनीति’ की फिलासफी अब नहीं चलेगी। सही मुद्दों को उठाने का तरीका भी सही होना चाहिये। बंद की प्रवृति को नकारना ही होगा, भले ही इस बंद की भागीदारी का आकार कुछ भी क्यों न हो।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महंगाई एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों को पूरा हक है कि वे सरकार को घेरे। लेकिन सरकार को घेरने के चक्कर में जनता की ऐसी की तैसी करने का अधिकार किसी को नहीं है। केंद्र और राज्य सरकार को जनविरोधी बताने वाले लालू यादव खुद जनविरोधी तरीके अख्तियार कर रहे हैं। बदलते समय की मांग है कि ‘राजनीति के लिए राजनीति’ की फिलासफी अब नहीं चलेगी। सही मुद्दों को उठाने का तरीका भी सही होना चाहिये। बंद की प्रवृति को नकारना ही होगा, भले ही इस बंद की भागीदारी का आकार कुछ भी क्यों न हो.............
ReplyDeleteनिष्कर्ष से सहमत मगर बिना चिल्लाये कोई सुनता भी तो नहीं.
Aapke ek ek shabd se sahmat hun...
ReplyDeleteऐसे मुद्दे तो होने ही चाहिए ताकि सियासत की रोटी पकती रहे... अभी बिहार का विकास रिपोर्ट भी आ गया है... तो वहां तो कोई गुंजाइश है नहीं २ मुद्दा है उनके पास... एक रेल दुर्घटना दूसरा शाश्वत महंगाई..
ReplyDeleteनितीश का शासन अच्छा चल रहा है लालू ख्बाव देखते रहें.
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