देवदर्शन टैक्स इन इंडिया
-हरिशंकर राढ़ी
आज की ताजा खबर यह है कि शिरडी स्थित श्री साईं भगवान के दर्शन के लिए अब शुल्क लगेगा। प्रातःकालीन आरती के लिए 500रु, मध्याह्न की आरती के लिए 300रु और सामान्य दर्शन के लिए 100रु। इसमें कुछ शर्तें भी शामिल हो सकती हैं, टर्म्स एण्ड कंडीशन्स अप्लाई वाली ट्यून! परन्तु टैक्स तो लगेगा ही लगेगा!
गत सितम्बर माह में मैं दक्षिण भारत की यात्रा पर गया था जिसका वृत्तान्त मैं ब्लॉग पर 'पोंगापंथ अपटू कन्याकुमारी' शीर्षक से लेखमाला के रूप में दे रहा हूँ। कुछ कड़ियाँ आई थीं और उस पर हर प्रकार की प्रतिक्रिया भी आई थी। इस वृत्तान्त में मंदिरों में धर्म के नाम पर हो रहे आर्थिक शोषण को सार्वजनिक दृष्टि में लाना मेरा प्रमुख उद्देश्य रहा। बहुत समर्थन मिला था मेरे विचार को। परन्तु कुछ लोगों ने इसे जायज ठहराने का भी प्रयास किया। उनका कहना था कि कुछ शुल्क निर्धारित कर देने से मंदिर के रखरखाव एवं कर्मचारियों के जीवन यापन में मदद मिलेगी और पंडों की लूट से छुटकारा भी मिलेगा। वैसे इनके इस तर्क से पूर्णतया असहमत भी नहीं हुआ जा सकता। पर, यह शुल्क कितना हो, यह भी महत्त्व पूर्ण है।
अब आज साईं बाबा के भक्तों पर गाज गिर ही गई।वैसे भी आजकल धर्म से बड़ा उद्योग शायद ही कोई हो। नाना प्रकार के बाबा जी इस कलयुग में प्रकट हो भक्तों का उद्धार कर रहे हैं और उनका जीवन सफल बना रहे हैं!ऐसी स्थिति में अगर दीनहीनों के श्रद्धास्थल साईं बाबा के संरक्षकों ने दर्शन शुल्क लगा दिया तो समयानुकूल ही है।
समस्या इस देश की मानसिकता को लेकर है। ईश्वर है कि नहीं, इस बहस का तो कोई अन्त हो ही नहीं सकता। परन्तु देश की अधिकांश जनता ईश्वर में विश्वास रखती है। सबके अपने -अपने ईश्वर हैं, अपने-अपने भगवान। जब एक सामान्य भारतीय हर ओर से थकहार जाता है तो ईश्वर के सहारे ही अपने जीवन की नैया छोड़ निराशा और आत्महत्या के भंवर से पार निकल जाता है। गलती चाहे खुद की हो, और कितनी बड़ी क्यों न हो, ईश्वर का दिया दंड समझ झेल जाता है और ईश्वर के बहाने अपनी जिन्दगी ( जो मनुष्य को जनसंख्या मानने वाले की नजर में कुछ नहीं है, बस एक आंकड़ा है और बड़े लोगों के लिए भीड़ बढ़ाने का माध्यम मात्र है) जी लेता है। कभी- कभी दो चार पैसे बच जाएं तो निकट के किसी देवालय में जाकर या कुम्भ नहाकर स्वयं को धन्य एवं ईश्वर का कृपापात्र समझ लेता है। चार धाम यात्रा या एक सुदूरवर्ती भक्त के लिए शिरडी साईंधाम की यात्रा सामान्यतः स्वप्न बनकर ही रह जाती है।अब ऐसे में साईंबाबा मंदिर प्रबन्धन ने क्या संदेश देना चाहा है, यह तो समझ के बाहर है।
मैंने सुना है कि शिरडी साईं बाबा मंदिर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है। वहां वैसे ही लाखों का चढ़ावा चढ़ जाता है। यात्राएं तो बहुत की मैंने किन्तु दुर्भाग्य से अभी तक शिरडी धाम के दर्शनों के लिए नहीं जा पाया। हाँ, भविष्य की योजनाओं में शामिल जरूर है यह यात्रा। अब अगर मैं शिरडीधाम की यात्रा सपरिवार करूँ और प्रातःकालीन आरती देखने की इच्छा न रुके तो मैं अपने परिवार (पति-पत्नी और दो बच्चों) के लिए पांच सौ प्रति व्यक्ति की दर से दो हजार का टिकट लूँ तब जाकर जन -जन की आस्था के केन्द्र साईं महराज की आरती देख सकूँ!
दोष केवल मंदिर व्यवस्थापकों का नहीं , पूरी व्यवस्था का है। देश में बढ़ते व्यवसायीकरण का है। कोई पर्व हो , त्योहार हो या व्रत हो, उद्योग और लालच हर जगह हावी है। पैसे के बल पर ही आदमी ‘महान‘ बन रहा है। धार्मिक ठेकेदारों को मालूम है कि तीर्थयात्रा अब पर्यटन में बदल चुकी है और अब सभी धामों में पैसे वाले ही लोग आते हैं और धर्म और श्रद्धा को पैसे से तौलते हैं । यह सब अब खूब बिकता है तो क्यों न बेचें ?क्या करें गरीबों की श्रद्धा का ?समस्या तो श्रद्धा को ही लेकर है। श्रद्धा गरीबी की समानुपाती होती है। सामान्य, हतभाग्य एवं दीन-दुर्बल की आस्था ही उसके लिए ईश्वर होती है। जितनी श्रद्धा ऐसे लोगों की साईं बाबा में है, उतनी ही साईं बाबा की ऐसे दीन हीन लोगों में थी। पर ‘उदारीकरण‘ के इस आर्थिक युग में बिकने वाली चीज क्यों न बेचें, भले ही वह भगवान या साईंबाबा क्यों न हों ?
आज की ताजा खबर यह है कि शिरडी स्थित श्री साईं भगवान के दर्शन के लिए अब शुल्क लगेगा। प्रातःकालीन आरती के लिए 500रु, मध्याह्न की आरती के लिए 300रु और सामान्य दर्शन के लिए 100रु। इसमें कुछ शर्तें भी शामिल हो सकती हैं, टर्म्स एण्ड कंडीशन्स अप्लाई वाली ट्यून! परन्तु टैक्स तो लगेगा ही लगेगा!
गत सितम्बर माह में मैं दक्षिण भारत की यात्रा पर गया था जिसका वृत्तान्त मैं ब्लॉग पर 'पोंगापंथ अपटू कन्याकुमारी' शीर्षक से लेखमाला के रूप में दे रहा हूँ। कुछ कड़ियाँ आई थीं और उस पर हर प्रकार की प्रतिक्रिया भी आई थी। इस वृत्तान्त में मंदिरों में धर्म के नाम पर हो रहे आर्थिक शोषण को सार्वजनिक दृष्टि में लाना मेरा प्रमुख उद्देश्य रहा। बहुत समर्थन मिला था मेरे विचार को। परन्तु कुछ लोगों ने इसे जायज ठहराने का भी प्रयास किया। उनका कहना था कि कुछ शुल्क निर्धारित कर देने से मंदिर के रखरखाव एवं कर्मचारियों के जीवन यापन में मदद मिलेगी और पंडों की लूट से छुटकारा भी मिलेगा। वैसे इनके इस तर्क से पूर्णतया असहमत भी नहीं हुआ जा सकता। पर, यह शुल्क कितना हो, यह भी महत्त्व पूर्ण है।
अब आज साईं बाबा के भक्तों पर गाज गिर ही गई।वैसे भी आजकल धर्म से बड़ा उद्योग शायद ही कोई हो। नाना प्रकार के बाबा जी इस कलयुग में प्रकट हो भक्तों का उद्धार कर रहे हैं और उनका जीवन सफल बना रहे हैं!ऐसी स्थिति में अगर दीनहीनों के श्रद्धास्थल साईं बाबा के संरक्षकों ने दर्शन शुल्क लगा दिया तो समयानुकूल ही है।
समस्या इस देश की मानसिकता को लेकर है। ईश्वर है कि नहीं, इस बहस का तो कोई अन्त हो ही नहीं सकता। परन्तु देश की अधिकांश जनता ईश्वर में विश्वास रखती है। सबके अपने -अपने ईश्वर हैं, अपने-अपने भगवान। जब एक सामान्य भारतीय हर ओर से थकहार जाता है तो ईश्वर के सहारे ही अपने जीवन की नैया छोड़ निराशा और आत्महत्या के भंवर से पार निकल जाता है। गलती चाहे खुद की हो, और कितनी बड़ी क्यों न हो, ईश्वर का दिया दंड समझ झेल जाता है और ईश्वर के बहाने अपनी जिन्दगी ( जो मनुष्य को जनसंख्या मानने वाले की नजर में कुछ नहीं है, बस एक आंकड़ा है और बड़े लोगों के लिए भीड़ बढ़ाने का माध्यम मात्र है) जी लेता है। कभी- कभी दो चार पैसे बच जाएं तो निकट के किसी देवालय में जाकर या कुम्भ नहाकर स्वयं को धन्य एवं ईश्वर का कृपापात्र समझ लेता है। चार धाम यात्रा या एक सुदूरवर्ती भक्त के लिए शिरडी साईंधाम की यात्रा सामान्यतः स्वप्न बनकर ही रह जाती है।अब ऐसे में साईंबाबा मंदिर प्रबन्धन ने क्या संदेश देना चाहा है, यह तो समझ के बाहर है।
मैंने सुना है कि शिरडी साईं बाबा मंदिर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी है। वहां वैसे ही लाखों का चढ़ावा चढ़ जाता है। यात्राएं तो बहुत की मैंने किन्तु दुर्भाग्य से अभी तक शिरडी धाम के दर्शनों के लिए नहीं जा पाया। हाँ, भविष्य की योजनाओं में शामिल जरूर है यह यात्रा। अब अगर मैं शिरडीधाम की यात्रा सपरिवार करूँ और प्रातःकालीन आरती देखने की इच्छा न रुके तो मैं अपने परिवार (पति-पत्नी और दो बच्चों) के लिए पांच सौ प्रति व्यक्ति की दर से दो हजार का टिकट लूँ तब जाकर जन -जन की आस्था के केन्द्र साईं महराज की आरती देख सकूँ!
दोष केवल मंदिर व्यवस्थापकों का नहीं , पूरी व्यवस्था का है। देश में बढ़ते व्यवसायीकरण का है। कोई पर्व हो , त्योहार हो या व्रत हो, उद्योग और लालच हर जगह हावी है। पैसे के बल पर ही आदमी ‘महान‘ बन रहा है। धार्मिक ठेकेदारों को मालूम है कि तीर्थयात्रा अब पर्यटन में बदल चुकी है और अब सभी धामों में पैसे वाले ही लोग आते हैं और धर्म और श्रद्धा को पैसे से तौलते हैं । यह सब अब खूब बिकता है तो क्यों न बेचें ?क्या करें गरीबों की श्रद्धा का ?समस्या तो श्रद्धा को ही लेकर है। श्रद्धा गरीबी की समानुपाती होती है। सामान्य, हतभाग्य एवं दीन-दुर्बल की आस्था ही उसके लिए ईश्वर होती है। जितनी श्रद्धा ऐसे लोगों की साईं बाबा में है, उतनी ही साईं बाबा की ऐसे दीन हीन लोगों में थी। पर ‘उदारीकरण‘ के इस आर्थिक युग में बिकने वाली चीज क्यों न बेचें, भले ही वह भगवान या साईंबाबा क्यों न हों ?
वाह दर्शनों के लिए भी शुल्क!
ReplyDeleteकलियुग की जय हो!!
ठीक लिख रहे हैं. मिशनरियों के पूजा स्थलों तथा इस्लामी इबादतगाहों पर टैक्स लगाने की हिम्मत नहीं पड़ती.
ReplyDeleteपता नहीं, भग्वद्गीता में कृष्ण ने कोई टेक्स का जिक्र नहीं किया!
ReplyDeleteहे भगवान् ! अब तो राम ही रखे !!
ReplyDeleteजानकारी तो मिली ,आभार.
ReplyDeleteOne day we are going to buy the rights even for starting and ending a life....Leave the temple sector of the indian economy apart,For being rich one needs to pay first...Poors are already in the vicious spiral ...they will neither afford the expensive education nor will they ascend ever.!They are now destined to die out in a sewer.
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